प्रस्तुत ग्रन्य के अन्तर्गत महाकवि 'दण्डी' की कृतियों काव्यादर्श, दशकुमारचरित और अवन्तिसुन्दरी में चित्रित संस्कृति के विविध आयामों का अध्ययन कर तत्कालीन लोक-संस्कृति को चित्रित किया गया है। संस्कृति एवं धर्म का माहात्य हमारे संस्कृत ग्रन्यों के मूल विषय हैं। भारत की मौलिक एकता, अखण्डता, सांस्कृतिक जीवन, साहित्य, पुरुषार्थ, लोक-चेतना, धार्मिक विश्वास, लोककला, भौगोलिक स्वरूप एवं परम्परादि के वर्णन से सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य ओत-प्रोत है। संस्कृत ही संस्कृति की संवाहिका है। अन्तः करण को शुद्ध एवं निर्मल बनाकर संस्कृति मनुष्य के वास्तविक मानवीय स्वरूपों को समलंकृत करती है। संस्कृति से संयमित होकर ही मनुष्य सोल्लास जीवन-यापन करता हुआ अपने परम लक्ष्य को प्राप्त करता है। आचरण और व्यवहार की सुधरता इसी के गोद में निखरती है। संस्कृति एवं साहित्य का चोली-दामन का सम्बन्ध है। संस्कृति समाज की परिचायिका है तो साहित्य समाज का दर्पण है। इसमें हनारी सम्पूर्ण जीवन-शैली समाहित है। संस्कृति के बिना मनुष्य अस्तित्त्वहीन है। संस्कृति किसी देश व राष्ट्र की पहचान होती है। अपनी सांस्कृतिक विरासत के बल पर ही भारत सम्पूर्ण विश्व में अपना विशेष स्थान रखता है। इसके विषय में 'मनुस्मृति' में इस प्रकार कहा गया है-
'एतत् देश प्रसूतस्य सकाशादग्र जन्मनः ।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्पृथिव्यां सर्वमानवाः ।।"
(मनु., 2/20)
इस देश में उत्पन्न विद्वानों से पृथ्वी पर सब मनुष्य अपने-अपने चरित्र सीखे। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति के वैशिष्ट्य से प्रभावित होकर अनेक विदेशी विद्वानों ने यहाँ की संस्कृति को अपनी जीवन-शैली बना लिया। वे अपना देश छोड़कर यहाँ के बासी हो गये। भारतीय संस्कृति की मौलिक विशेषताओं से सम्मिलित संस्कृत महाकवियों की साहित्यिक रचनाएं अपनी पृथक् पृथक् महत्त्व रखती हैं, इसी सन्दर्भ में महाकवि 'दण्डी' की कृतियों का अनुशीलन विशेष उल्लेखनीय है। इनकी कृतियों में वर्णित, कथा, संवाद, चरित्र, घटनाक्रम, भाषा-शैली, आदि लोक-संस्कृति का दिग्दर्शन कराती हैं। अध्येता तत्कालीन सांस्कृतिक स्वरूपों से अवगत हो जाता है। सम्पूर्ण गद्य साहित्य संस्कृति के शाश्वत मूल्यों सत्य, अहिंसा, दया, प्रेम, करुणा, सहकार, बन्धुत्व-भावना आदि की चिरन्तता को व्यक्त करता है। यहाँ अधर्म पर धर्म की, अन्याय पर न्याय की, असत्य पर सत्य की विजय का उद्घोष दिखलाई पड़ता है।
आचार्य 'दण्डी' लोक कवि हैं। वे सदैव वर्तमान की बात करते हैं, दृश्यमान प्रपञ्यात्मक जगत् ही उनकी कृतियों का यथार्थ विषय है। 'कविशिरोमणि दण्डी' का साहित्य जन-साधारण से लेकर राजकुमारों तक के अत्यन्त साहसिक क्रिया-कलापों, यात्राओं, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, जय-पराजयों, लाभ-हानि, राग-द्वेष, हर्ष-विपाद आदि से पूर्ण हैं। इनकी कृतियों में समाज का वही स्वरूप वर्णित है जिसका समाज प्रत्यक्ष दर्शन करता है। लोक का अर्थ ही 'लोक्यते असी स लोकः' अर्थात् जो प्रत्यक्ष दिखाई देता है वही लोक है। लोक सदैव अपनी प्राकृतिक आवश्यकताओं के अनुरूप चलता है। इसमें किसी प्रकार का हस्तक्षेप सम्भव नहीं है। लोक में सहज रूप से 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावनाएँ निहित होती हैं। लोक सदैव अपनी मर्यादाओं में रहता है, मर्यादा का उल्लंघन उसे किसी प्रकार से ग्राह्य नहीं है। सब कुछ लोक का है, और लोक के लिए है। "लोक हमारे जीवन का महासमुद्र है उसमें भूत, भविष्य और वर्तमान सभी कुछ संचित रहता है। लोक ही राष्ट्र का अमर स्वरूप है। लोक के कृत्स्न ज्ञान और सम्पूर्ण अध्ययन में सब शास्त्रों का पर्यवसन है। लोक अध्ययन बुद्धि का कुतूहल नहीं है। लोक संपर्क के बिना सब अधूरे हैं। जो ज्ञान लोक हित के लिये नहीं वह अधूरा है।" (अग्रवाल वासुदेवशरण-सम्मेलन पत्रिका) लोक-जीवन का दुःख-दर्द, हर्ष-उत्तास और वैचारिक प्रतिक्रियाओं का स्वर प्रायः पारंपरिक ही होता है। वह समकालीन अर्थ व्यवस्था के ठोस दबाव का परिणाम न होकर नियति के क्रूर विधान का परिणाम है, जिनकी वैचारिकता सामाजिक विषमताओं का परिवर्तन न होकर बने-बनाये पारम्परिक रूप में चली आती है। देश की गुलामी और समाज की जड़ता के विरुद्ध जो अनेक वैचारिक और भावात्मक आंदोलन हुए उनमें केवल पढ़े-लिखे लोग ही शामिल नहीं थे, अनपढ़ किसान और मजदूर भी शामिल था, शहर ही शामिल नहीं था, गांव भी शामिल था। अर्थात् वह सभी समुदाय शामिल थे जिससे लोक बनता है।
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