प्रकाशकीय
प्रस्तुत पुस्तक के लेखक से 'मण्डल' के पाठक भली प्रकार परिचित हैं । कुछ समय पूर्व उनकी एक पुस्तक 'भागवत कथा' 'मण्डल' से प्रकाशित हुई थी, जिसे पाठकों ने बहुत पसंद किया । उसकी लोकप्रियता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि कुछ ही समय में उस पुस्तक के कई संस्करण हो चुके हैं और उसकी मांग बराबर बनी हुई है ।
लेखक की यह पुस्तक भी अत्यन्त उपयोगी है । जैसा कि पुस्तक के नाम से स्पष्ट है, इसकी सामग्री महाभारत से ली गयी है । वस्तुत: लेखक की आकांक्षा थी कि महाभारत से चुनकर वह ऐसी सामग्री पाठकों को दें, जो जन-सामान्य के लिए उपयोगी हो और जिसे पढ़कर पाठक कुछ शिक्षा और कुछ प्रेरणा प्राप्त करें । अपने इस उद्देश्य में लेखक कहां तक सफल हुए हैं, इसका निर्णय तो पुस्तक पढ़कर पाठक स्वयं कर सकेंगे, लेकिन इतना हम अवश्य कह सकते हैं कि सामग्री के चयन में लेखक ने बहुत सावधानी रखी है और बड़ा परिश्रम किया है । पुस्तक के विषय में लेखक ने स्वयं अपने प्रारम्भिक निवेदन में विस्तार से प्रकाश डाला है । उससे पाठकों को पता चलेगा कि किन मुख्य बातों को उन्होंने ध्यान में रखकर इस पुस्तक को तैयार किया है।
लेखक की भाषा और शैली अपने ढंग की निराली है । उसमें सरलता और सहजता है । इस पूरी पुस्तक में पाठकों को कहीं भी विचारों की अस्पष्टता तथा भाषा-शैली की उलझन नहीं मिलेगी ।
हमें पूरा विश्वास है कि सभी वर्गो और क्षेत्रों के पाठक इस पुस्तक को मनोयोग-पूर्वक पढ़ेंगे और इसके विचारों से भरपूर लाभ लेंगे ।
प्रस्तावना
भारतीय वाङ्मय में 'महाभारत' हिमालय के शुद्ध शिखर की तरह दूर से ही दिखाई देता है । इसकी उच्चता और शुभ्रता अनायास खींच लेती है अपनी ओर । इस हिम-शृंग को देखते ही प्रगति दूर हो जाती है और प्राणों में उत्साह और ओजस् का जैसे नया संचार होने लग जाता है।
अध्यात्म की मीमांसा, धर्म का विवेचन तथा लोक-व्यवहार का दर्शन और इस सबका सुन्दर समन्वय 'महाभारत' में हम एकत्र पाते हैं । बड़े-बड़े मनीषियों ने 'महाभारत' की महिमा का गान किया है, फिर भी पार नहीं पाया ।
देश में और विदेशों में भी 'महाभारत' पर काफी लिखा गया और शोधकार्य हुआ है । इस बृहत्काय ग्रंथ के अध्ययन के लिए लम्बे समय और धैर्य की आवश्यकता है, जबकि इस दौड़-धूप के युग में कहां तो इतना समय और कहां अवकाश और धैर्य ' सामान्य इच्छा रहती है कि थोड़े में बहुत-सारा मिल जाये । 'महाभारत' के प्रमुख पात्रों पर लिखे गये अनेक निबंध और पुस्तकें, वासुदेवशरण अग्रवाल की भारत-सावित्री तथा अंग्रेजी में कमला सुब्रह्मण्यम् के संक्षिप्त महाभारत और सर्वाधिक लोकप्रिय राजाजी (चक्रवर्ती राजगोपालाचारी) के साररूप 'महाभारत' ने इस दिशा में बड़ा अच्छा काम किया है, थोड़े में अधिक चाहनेवाले पाठकों को बड़ा लाभ पहुंचाया है ।
इसी कोटि का एक और ग्रंथ हमारे सामने प्रस्तुत है- 'महाभारत-सार' । इसके रचयिता श्री सूरजमल मोहता हैं । मोहताजी द्वारा लिखित 'भागवत-कथा' ने हिन्दी-जगत् में अच्छी ख्याति प्राप्त की है ।
'महाभारत-सार' में आदिपर्व, युद्धपर्व और शातिपर्व-इन तीनों पर्वों में संपूर्ण ग्रंथ की प्रमुख कथाओं और प्रसंगों को कौशलपूर्वक संकलित किया गया है-ऐसी कथाएं और प्रसंग, जिनको मानवीय संस्कृति और आदर्श जीवन का मूलाधार कहा जा सकता है ।
इसमें संदेह नहीं कि मोहताजी ने 'महाभारत' का अच्छा अध्ययन और चिंतन किया है । 'महाभारत-सार' में जिस सुबोध शैली और प्रवाहमयी भाषा का उपयोग उन्होंने किया है, वह सराहनीय है । मोहताजी औद्योगिक प्रवृत्तियों में संलग्न रहते हुए भी आश्चर्य होता है कि अध्ययन और चिंतन को लेकर इतना अच्छा लिखने के लिए वे कैसे समय निकाल लेते होंगे । किंतु आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि धर्म-जिज्ञासा तथा भक्ति-भावना को अपने जीवन में उन्होंने एक विशेष स्थान देने का प्रयास किया है ।
आशा है, 'महाभारत-सार' का हिन्दी-जगत् में वैसा ही स्वागत होगा जैसा कि 'भागवत-कथा' का हुआ है । '' दो शब्द
भारतीय संस्कृति में रामायण और महाभारत दो अनुपम रत्न हैं, जिनके विषय में प्रत्येक भारतीय कुछ-न-कुछ लान रखता है । वास्तव में इन दोनों ग्रंथों से पहले भारतीय साहित्य में केवल वैदिक वाङ्मय का अस्तित्व था । महर्षि वाल्मीकि के प्रथम छन्द को ही श्लोक की संज्ञा दी गई थी । अनन्तर महर्षि कृष्णद्वैपायन व्यास का प्रादुर्भाव हुआ । अप्रतिम कार्यों के कारण उन्हें भगवान का ही अवतार माना गया है । उन्होंने वेदों का विभाग किया, जिससे उन्हें 'वेद-व्यास' कहा गया, ब्रह्मसूत्रो का सम्पादन किया और अन्त में श्रीमद्भागवत का निर्माण किया । सांसारिक प्राणी के लिए विनश्वर जीवन में इतना लिखना असंभव प्रतीत होता है, अत: उनमें भगवत्ता का आरोप किया गया ।
केवल महाभारत में एक लाख श्लोक माने जाते हैं, जिनकी रचना में कितना समय लगा होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता । भरत के वंश का वर्णन होने से इसका नाम 'भारत' तथा विशालता के कारण 'महाभारत' संज्ञा हुई । इसमें बड़े युद्ध का वर्णन होने के कारण भी 'महाभारत' नाम हुआ होगा । महाभारत से श्रीमद्भागवत गीता, विष्णु सहस्रनाम जैसे उच्चकोटि के ग्रंथ निकले हैं तथा कथावस्तु में श्रीमद्भागवत भी महाभारत से ही अनुप्राणित प्रतीत होती है । महाभारत में चार अंग हैं-नीति, आध्यात्मिक, भक्ति और जप । गीता आध्यात्मिक विषयों का प्रतिपादन करती है । भागवत भक्ति तथा विष्णु सहस्रनाम हमें जप की ओर आकर्षित करते हैं, अत: जो विषय मैंने भागवत कथा' में लिख दिये, उन्हें महाभारत में लिखने का साहस नहीं किया है । महाभारत, अठारह पुराण और श्रीमद्भागवत की कथाओं में एक ही चरित्र-नायक के चरित्र विविध रूपों में मिलते हैं तथा तीनों ही महाग्रंथों की भाषा में भी बहुत भेद मिलता है, जिससे प्रतीत होता है कि ये ग्रंथ एक ही व्यक्ति के लिखे हुए नहीं होने चाहिए । एक ग्रंथ में जिस नाम के व्यक्ति का चरित साधारण रूप में अंकित हुआ है, दूसरे ग्रंथ में उसी व्यक्ति का चित्रण बहुत ही उदार रूप में वर्णित किया गया है । भाषा और शैली का अंतर 1. लेखक द्वारा संक्षिप्त रूप में अनुदित तथा 'सस्ता साहित्य मण्डल' द्वारा प्रकाशित ।
भी स्थान-स्थान पर स्पष्ट प्रतीत होता है, जिससे एक ही लेखनी की रचना मानने में बुद्धि को आपत्ति होती है । संभव है, महर्षि व्यास की रचना में अन्य विद्वानों ने क्षेपक मिला दिये हों । संभव है, व्यास पदवीधारी अन्य-अन्य विद्वानों ने अन्य-अन्य समय पर इनकी रचना की हो । संभव है, बाद में भी नीति-कथाएं जोड़ दी गई हों । इसका निर्णय करना तो विशिष्ट विद्वानों का काम है । मेरी बुद्धि इस विशाल ग्रंथ पर अपने विचार प्रकट करने में असमर्थ है । अत: इस ग्रंथ की शुद्धि हेतु किसी संस्था द्वारा विद्वानों की सहायता से क्षेपकों को हटाकर शुद्ध करने का कार्य संपन्न हो सके, तो समाज की बड़ी सेवा होगी । मैं तो मात्र इतना कह सकता हूं कि केवल महाभारत में ही भाषा और शैली को देखते हुई कई स्थानों में अन्य लेखनी का चमत्कार प्रतीत होता है । महाभारत वस्तुत: कौरव-पांडवों की कीर्ति का ही वर्णन करता है । भगवान श्रीकृष्ण के परिचय का उल्लेख पांडवों के साथ की घटनाओं तक ही सीमित है । श्रीमद्भागवत भगवान के अवतारों का विशद वर्णन करती है और भक्ति बढ़ाने का उपदेश देती है । महाभारत का महत्व विशेषत: नीति-शास्त्र के रूप में ही है । भाषा की दृष्टि से यह ग्रंथ अद्वितीय और रोचक है । कहावत है कि जो मानव के हित की शिक्षा महाभारत में नहीं है, वह दूसरे किसी ग्रंथ में भी नहीं । अत: विद्वानों ने इस ग्रंथ की महत्ता का प्रतिपादन किया है । श्रीमद्भागवत में विविध चरित्रों का चित्रण महाभारत से पूर्णतया भिन्न है, यथा, श्रीमद्भागवत के परीक्षित को जब शमीक मुनि के पुत्र से मिले शाप की सूचना प्राप्त हुई तो उन्होंने सोचा, ' 'मेरे लिए वैराग्य का अवसर आ गया है, अब भगवान के चरण-कमलों की सेवा ही मेरे लिए सर्वोपरि है ।' ' ऐसा विचार कर वह आमरण-अनशन व्रत लेकर गंगातट पर जा बैठे और अनन्य भाव से श्रीकृष्ण के चरण-कमलों का ध्यान करने लगे । उनकी ऐसी अवस्था सुनकर बड़े-बड़े ऋषि-मुनि वहां आ पहुंचे, जिनका यथेष्ट सत्कार कर राजा ने अपना निश्चय सुनाया और उनसे आशीर्वाद मांगा । जब परमहंस श्री शुकदेवजी वहां पधारे तो राजा की प्रार्थना पर भगवत-कथा कहते हुए परम तत्व का उपदेश देने लगे । अंत में राजा ने श्री शुकदेवजी की बड़े आदर और श्रद्धा के साथ विधिवत् पूजा की । उनके चले उनाने के बाद राजर्षि परीक्षित परमात्मा के चिंतन में ध्यान-मग्न होकर ब्रह्म-स्वरूप हो गये । तक्षक के डसने के समय से पहले ही राजर्षि स्थिति को प्राप्त कर चुके थे । अत: उन्हें उसके दंश का अनुभव ही नहीं हुआ ।
इस तरह परीक्षित का चित्रण बहुत ही उदात्त, निर्भीक और वीतराग के रूप में किया गया है, जबकि महाभारत का परीक्षित ऋषि पुत्र के शाप से बहुत ही भयभीत हो गया है । उसने एक ऊंचा महल बनवाया, जिसमें एक ही खंभा लगा था । वहां रक्षा के लिए आवश्यक प्रबंध किया गया, सब प्रकार की औषधियां जुटा ली गयीं और बैद्यों तथा मंत्रसिद्ध ब्राह्मणों को चारों ओर नियुक्त कर दिया गया! उस महल में पूर्णतया सुरक्षित होकर राजा सब कार्य करने लगे । वहां कोई भी उनसे मिलने नहीं आता था । वायु को भी प्रवेश के समय रोका जाता था । सातवें दिन फल खाते समय राजा को फल पर छोटा-सा कीड़ा दिखायी दिया, जिसे देखकर राजा हँसकर बोले-सूर्यास्त हो रहा है । ऋषि-पुत्र के शाप से मैं अब मुक्त हो जाऊंगा । किंतु वही कीड़ा तक्षक बनकर राजा को डसने लगा और परीक्षित वज से आहत के समान पृथ्वी पर गिर पड़े ।
दोनों चित्रण पढ़ने के बाद यह तर्क-संगत नहीं प्रतीत होता है कि जिस लेखनी ने श्रीमद्भागवत के परीक्षित का चरित्र लिखा है, वही लेखनी महाभारत के परीक्षित की कथा लिख पाई है । दोनों चरित्रों के चित्रण में बहुत अंतर मालूम होता है । श्रीमद्भागवत का परीक्षित जहां बहुत मनस्वी, दृढ़ प्रतिज्ञ और निर्भीक है, वहां महाभारत का अजितेन्द्रिय, भयभीत और ओछे मनवाला दिखाई देता है । अत: इस पुस्तक में श्रीमद्भागवतवाला चरित्र ही अपनाया गया है ।
वृत्रासुर की कथा भी दोनों ही ग्रंथों में वर्णित है । उसके वध की समस्या के समाधान के लिए दधीचि की अस्थियों से वज के निर्माण का भी वर्णन है । किंतु श्रीमद्भागवत में वृत्रासुर को देवताओं के लिए जहां भयंकर और प्रबल शत्रु चित्रण किया गया है वहीं उसे परम भागवत भी बताया गया है । अंतिम समय निकट जान उसने भगवान की जो स्तुति मुक्त कण्ठ से की है, वह आज भी भगवद्भक्तों के द्वारा प्रतिदिन परम आदर से गाई जाती है । वृत्रासुर ने युद्ध के समय असुरों के प्रति और इन्द्र के प्रति जो नीति वचन कहे हैं, वे भी अविस्मरणीय हैं । देवराज इन्द्र ने भी उन वचनों का आदर करते हुए वृत्रासुर की प्रशंसा की है । किंतु महाभारत में ऐसा कुछ भी नहीं है । वृत्रासुर को भयंकर असुर बताते हुए इंद्र के वज से उसका वध मात्र दिखाया गया है ।
इसके अतिरिक्त महाराज पृथु, राजा रन्तिदेव और दुष्यंत-शकुन्तला आदि बहुत से चरित्रों के चित्रण में अंतर प्रतीत होता है, जिससे यही सिद्ध होता है कि भिन्न-भिन्न लेखकों के द्वारा चरित्र लिखे गये हैं ।
इसी सन्दर्भ में महान् विचारक लोकमान्य श्री बाल गंगाधर तिलक ने भी अपने 'गीता-रहस्य' की भूमिका में लिखा है-
''कर्ण पर्व में कर्ण-अर्जुन के युद्ध का कानि पढ़ने से दीख पड़ता है कि उसकी भाषा रचना अन्य प्रकरणों की भाषा रचना से भिन्न है ।'' 1
इससे भी उपयुक्त मत की पुष्टि होती है । वस्तु: महर्षि वेदव्यास ने महाभारत में इतना लिख दिया है कि अन्य ग्रंथों में भी बहुत-सी बातें दोहरानी पड़ी हैं । बहुत से (रेसे प्रकरण हैं, जिनका पुराणों में ही नहीं, श्रीमद्भागवत में भी सन्निवेश आवश्यक माना गया है । इसलिए विद्वानों की मान्यता है-
धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ ।।
यदिहास्तिदन्यत्र यन्नेहास्ति न तल्क्वचित् ।।
'जो इसमें है वह दूसरी जगह भी मिल सकता है, जो इसमें नहीं है, वह कहीं भी नहीं है ।' इसी प्रकार लोकोक्ति है । 'यन्न भारते तन्न भारते ।' जो महाभारत ग्रंथ में नहीं है, वह भारत में कहीं नहीं है । अत: महाभारत के कइ प्रकरण भागवत-कथा में आ जाने के कारण इस पुस्तक में नहीं लिखे गये हैं ।
महाभारत के निर्माण-काल के विषय में विद्वानों में बहुमत मतभेद है । किन्तु उच्चतम विद्वानों ने बहुतत से प्रमाणों के आधार पर ईसा से पंद्रह शताब्दी पूर्व इनका काल निश्चय किया है, जिसका चर्चा हमने 'गीता-ज्ञान', की भूमिका में विशेष रूप से किया है । साधारणतया तौ भगवान श्रीकृष्ण का समय 'और महाभारत युद्ध का समय ईसा के ५००० वर्ष पहले माना जाता है ।
प्रसिद्ध ज्योतिषी तथा विद्वान पण्डित इन्द्रनारायण द्विवेदी ने अपने विस्तृत लेख में ज्योतिष के अकाट्य प्रमाणों द्वारा महाभारत युद्ध को ईसा से 3102 वर्ष पूर्व सिद्ध किया है तथा महाभारत ग्रंथ का निर्माण ३० वर्ष बाद माना है । प्रसिद्ध भारतीय विद्याविद् डॉक्टर पी. वी. वतक महाभारत में वणित ग्रहों की स्थिति को सही मानते हैं । उनकी यह भी मान्यता है कि महाभारत के रचयिता महर्षि व्यास को यूरेनस, नेपच्यून और प्लैटो के बारे में संपूर्ण जानकारी थी । उनकी यह भी मान्यता है कि महर्षि व्यास को पुष्य, रेवती, अश्विनी नक्षत्रों की स्थिति तथा 'सायन' पद्धति का पूर्ण लान था । उन्होंने गणना करके बताया कि महाभारत में वर्णित स्थिति 5561 ई. पू की है । अत: उनके अनुसार महाभारत का युद्ध 17 अम्बर 5561 ई. पू आरंभ हुआ । किंतु हम इस विवाद में नहीं पड़ना चाहते । कब लिखा है, किसने लिखा है, एक ने लिखा है या बहुतों ने लिखा है, कौरव-पांडव ऐतिहासिक व्यक्ति हैं या काल्पनिक. इत्यादि प्रपंच का विवेचन हमारा विषय नहीं है । हम तो इस ग्रंथ की नीति और शिक्षा के महत्त्व पर ही विशेष रूप से ध्यान देते हैं, जो सर्वथा विवादरहित है । महाभारत में महाकाव्य की मधुरता, इतिहास की सार्थकता, नीति-शास्त्र की गंभीरता, राजनीति की गहनता, धर्मशास्त्र की मार्मिकता ही नहीं, अपितु अध्यात्म दर्शन का परम तत्त्व-ज्ञान भी देखने को मिलता है । ड्सीलिए इसे पहले .पंचम वेद' भी कहा जाता था ।
इसकी परम उपयोगिता को ध्यान में रखकर ही इसका संक्षिप्त रूप प्रस्तुत कर पाठकों की सेवा में उपस्थित किया जाता है ।
अनुक्रम
आदि
1
जनमेजय द्वारा सर्पयज्ञ
15
2
कौरव पांडवो का जन्म
20
3
कौरवों और पांडवों की बाल्यावस्था
27
4
लाशागृह तथा बकासुर वध
33
5
द्रौपदी-स्वयंवर
38
6
युधिष्ठिर का राज्याभिषेक
42
7
अर्जुन का' वनवास तथा सुभद्रा-हरण
45
8
खांडव-वन-दहन
46
9
राजसूय-यज्ञ
48
10
पांडवों का वनवास
55
11
राजा नल का चरित्र
67
12
राजा सगर
78
13
भीमसेन को हनुमानजी का दर्शन
82
14
जटासुर
83
धर्म व्याध
86
16
कौरवों का बन्दी होना
88
17
दुर्वासा
89
18
सावित्री-सत्यवान
90
19
यश के प्रश्न
94
अज्ञात-वास
101
21
युद्ध
120
22
संजय का पांडवों के पास जाना
125
23
भगवान श्रीकृष्ण का संधि-प्रस्ताव
138
24
श्रीकृष्ण-कर्ण संवाद और सेनापतियों का चुनाव
148
25
गीता ज्ञान
155
26
भीष्म
167
द्रोण
183
28
जयद्रथ-वध
192
29
द्रोणाचार्य
203
30
कर्ण
211
31
शल्य
231
32
दुर्योधन की मृत्यु
232
राजा धृतराष्ट्र और माता गांधारी को सांत्वना
239
34
शान्ति
35
248
36
युधिष्ठिर का शोक
253
37
मुनियों द्वारा युधिष्ठिर को उपदेश
265
युधिष्ठिर का राज्याभिषेक और भीष्म के पास जाना
273
39
भीष्म पितामह का युधिष्ठिर को उपदेश
279
40
भिन्न-भिन्न कारणों से शत्रु मित्र और मित्र शत्रु बन जाता है
291
41
पाप का अधिष्ठान क्या है? धर्म, अर्थ और काम में श्रेष्ठ कौन है?
295
परम तत्व
300
43
जाजली और तुलाधार
307
44
लक्ष्मी के निवास-स्थान
312
गौतम
314
नर-नारायण
316
47
ब्राह्मण और नागराज
320
गौतमी, ब्राह्मणी, व्याध, सर्प, मृत्यु, काल
324
49
दान, श्राद्ध, गंगा, देवी और आसुरी संपदा
329
50
भीष्म पितामह की स्वर्ग-यात्रा
335
51
अश्वमेध-यज्ञ
337
52
श्रद्धापूर्वक दान सबसे उत्तम
346
53
पांडवों का महाप्रस्थान
350
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