1.1 प्रस्तुत अनुसंधान समस्या का प्रादुर्भाव
आज के इस युग में किसी व्यक्ति को कोई समस्या होती है तो अधिकतर व्यक्ति उसे योग करने की सलाह देने लगते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी स्मृति तथा एकाग्रता को बढ़ाना चाहता है। इसके लिए योग के जानकार व्यक्ति उसे कुछ आसन व प्राणायाम बतला देते है। स्मृति तथा एकाग्रता को बढ़ाने के लिए योग में कुछ आसन, त्राटक तथा प्राणायाम का अधिक उपयोग किया जाता है। इनका अभ्यास करने वाले लोग बतलाते है कि इन अभ्यासों से वह अपने दैनिक कार्यों को अच्छी तरह से करते है। इन अभ्यासों को सामान्य लाभ के लिए 5-10 बार एवं विशेष लाभके लिए घण्टों तक इनका अभ्यास किया जाता है। इस पुस्तक का उद्देश्य ऐसे अभ्यासों की फलदायी क्षमता में न फंसकर, इस बात का पता लगाना है कि प्राणायाम का प्रतिदिन अभ्यास करने वाले बालकों की स्मृति और एकाग्रता पर कोई असर पड़ता है या नहीं, साथ ही यह भी पता लगाया जायेगा कि विभिन्न आयु समूहों एवं विभिन्न लिंग के बालकों में उपरोक्त अभ्यासों का उनकी स्मृति एवं एकाग्रता पर क्या अलग-अलग अंतर पड़ता है? साटो केमिहारू (1983) के अनुसंधान से यह संकेत मिलता है कि छोटे बच्चों की अपेक्षा उन से अधिक उम्र के बच्चे ज्यादा अच्छी तरह से एकाग्र हो जाते हैं। इसी तरह से लैंगिक विभेद भी पाये जाते हैं। प्राणायाम के अभ्यास से हमारे फेफड़ों की ऑक्सीजन ग्राह्यता में भी वृद्धि होती है।
एकाग्रता और स्मृति के सभी आधुनिक सिद्धान्त प्रयोगशाला की नियंत्रित परिस्थितियों में किये गये विशेष प्रयोगों के परिणामों पर आधारित है परन्तु एकाग्रता एवं स्मृति के दिन प्रतिदिन के जीवन में उपयोग के बारे में हमारा अनुभव तथा ज्ञान इतना कम है कि हम निश्चित नहीं कह सकते कि प्रयोगशाला के परिणामों पर आधारित एकाग्रता और स्मृति के सिद्धान्त प्रयोगशाला के बाहर दैनिक मानवीय जीवन में भी उसी प्रकार लागू होंगे। डॉ के.एन. उड्डुपा (1978) तथा डॉ ओ.पी. जग्गी (1973) के कथन से इस तरफ इशारा मिलता है कि प्राणायाम के अभ्यास से स्मृति एवं एकाग्रता में वृद्धि होती है।
उपरोक्त संदभों को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत पुस्तक का विषय "स्मृति एवं एकाग्रता पर प्राणायाम का प्रभाव" लिया गया।
शक्तिवादी मनोवैज्ञानिक तथा योग के विद्वान, स्मृति एवं एकाग्रता को मानसिक शक्ति मानते थे। उनका मानना था कि प्राणायाम के अभ्यास के द्वारा स्मृति एवं एकाग्रता में वृद्धि की जा सकती है। चेतनावादी वैज्ञानिक मानसिक अनुभवों को तीन पक्षों में विभक्त करते हैं (1) ज्ञानात्मक (2) क्रियात्मक (3) रागात्मक व्यक्ति की ज्ञानात्मक क्रियाओं के फलस्वरूप ही उसका बौद्धिक विकास होता है। अवधान व्यक्ति की पहली ज्ञानात्मक क्रिया है इस क्रिया का संबंध सदैव चेतना से रहता है, जाग्रत या चैतन्य अवस्था में हमारी सभी ज्ञानेन्द्रियां बाहरी वातावरण की उत्तेजना की ओर आकर्षित हो जाती है तथा कुछ उत्तेजनाओं की अवहेलना कर देती है। इस तरह हम वातावरण का क्षेत्र चुनकर उस पर ही अपना ध्यान एकाग्र करते है। एकाग्रता की क्रिया का पहला परिणाम स्पष्टता है।
अवधान की क्रिया से हम किसी वस्तु को पूर्णतः समझने में समर्थ होते है क्योंकि हमारी चेतना उस पर केन्द्रित हो जाती है। टिचनर का कहना है कि "ध्यान की समस्या किसी वस्तु को स्पष्ट रूप से समझने से है"। डरविन कहते है कि "एकाग्रता का तात्पर्य एक वस्तु को छोड़कर दूसरी पर चेतना केन्द्रित करने से है"। अतः एकाग्रता के लिए प्रयोजन का अभास निहित होता है जितनी तीव्रता के साथ हम किसी वस्तु को देखना-सुनना समझना चाहते है। उतनी ही तीव्रता से इच्छाओं के वशीभूत होकर किसी वस्तु विशेष पर एकाग्र होते है।
हमारे मस्तिष्क के दोनों गोलार्दों के अलग-अलग कार्य होते है। इन गोलार्डों का कार्य व्यवहार इड़ा और पिंगला नाड़ियों के प्रवाह पर निर्भर करत ३। प्राणायाम के अभ्यास के द्वारा इड़ा और पिंगला के प्रवाह को संतुलित करके मस्तिष्क के दोनों गोलार्दों में सामंजस्य स्थापित किया जाता है जिससे मस्तिष्क के कार्यों में अवर्णनीय वृद्धि हो जाती है।
प्रशिक्षण एवं आयु का हमारी स्मृति एवं एकाग्रता पर क्या प्रभाव पड़ता है? इसका उत्तर जानने के लिए विभिन्न योगशास्त्री, शिक्षाशास्त्री और मनोवैज्ञानिक लगातार प्रयत्न करते आ रहे है कि स्मृति को कैसे बढ़ाया जाये ? ध्यान को कैसे एकाग्र किया जाये ? प्राणायाम एक ऐसी ही क्रियात्मक विधि है। इस अभ्यास का बालक एवं बालिकाओं की आयु से क्या संबंध है? इस बारे में प्रयोगात्मक परिणामों के आधार पर जानकारी प्राप्त करने का प्रयत्न इस पुस्तक में किया जायेगा।
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