पुस्तक के विषय में
साद जीवन और उच्च विचार के प्रतीक भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ . राजेंद्र प्रसाद ने अपने छात्र जीवन में जिस प्रतिभा और विद्वता से अपने शिक्षकों को चकित किया था कि एक परीक्षक को लिखना पड़ा था कि परीक्षार्थी परीक्षक से ज्यादा अच्छा है । गांव की पाठशाला से लेकर कोलकाता विश्वविद्यालय तक की अपनी शैक्षिक यात्रा में उन्होंने कई कीर्तिमान स्थापित किए। उन्होंने कॉलेजों में अंग्रेजी साहित्य और कानून के प्राध्यापक के रूप में काम किया । कोलकाता और पटना के उच्च न्यायालयों में उन्होंने वकालत की । उन्होंने देश की आजादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए वकालत छोड़ दी । उन्होंने गांधी जी द्वारा संचालित चम्पारण सत्याग्रह से अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की । उस समय से लेकर अपने जीवन की अंतिम सांस तक एक सच्चे गांधीवादी के रूप में गांधी जी के बनाए मार्ग पर चलने का प्रयास किया।
डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने संविधान निर्माण सभा के अध्यक्ष के रूप में जिस संयम, अनुशासन और ज्ञान से संविधान के निर्माण को सहज बनाया-क्ड़ अपने आप में बेमिसाल है । अंतरिम सरकार में (जिस समय देश संकट के दौर सै गुजर रहा था) केंद्रीय मंत्रिमंडल में उन्होंने स्वास्थ्य और कृषि मंत्री के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया ।
डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपने जीवन में कुछ महत्वपूर्ण किताबें लिखीं, विविध विषयों पर हजारों भाषण दिए और समय-समय पर बहुत सारे लेख लिखे जिसकी प्रासंगिकता आज भी है और भविष्य में भी रहेगी । उनकी 'आत्मकथा' और 'खंडित भारत' उनकी अनमोल कृतियां हैं । प्रस्तुत पुस्तक में डॉ. राजेंद्र प्रसाद की संक्षिप्त जीवनी के साथ उनके बहुमूल्य विचारों को जो उनकी किताबों, उनके भाषणों और लेखों में विखरे लड़े हैं-उसमें से कुछ बेशकीमती मोती और हीरों को चुनकर देने का प्रयास किया गया है ।
डॉ.व्रजकुमार पांडेय, शिक्षा-एमए., पी-एचडॉ , बिहार, बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय के राजनारायण कॉलेज के स्नातकोत्तर राजनीति विझान विभाग में 35 वर्षों तक अध्यापना । 1998 में यूनिवार्सिटी प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त । राजनीति, समाव विज्ञान और साहित्य के विविध विषयों पर अंग्रेजी और हिंदी में तीन दर्जन पुस्तकें प्रकाशित । एन.बी.टी. द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'इंदिरा गांधी' का हिंदी अनुवाद । मैत्री शांति और सैद्धांतिकी पत्रिका का संपादन ।
जीवनवृत्त
पूर्वज, बचपन और शिक्षा
स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता और भारतीय गणतंत्र के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डॉ . राजेंद्र प्रसाद का जन्म बिहार राज्य के जिला सीवान (पहले सारण) के ग्राम जीरादेई में विक्रमी संवत् 1941 के मार्ग शीर्ष मास की पूर्णिमा अर्थात् 3 दिसंबर 1884 के दिन हुआ था । अपने माता-पिता की पांच संतानों में वे सबसे छोटे थे । इनके पूर्वज उत्तराखंड (पहले युक्त प्रान्त बाद मैं उत्तर प्रदेश) के अल्मोड़ा के रहनेवाले थे । इनका परिवार रोजी रोजगार की खोज में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में आकर बस गया था । पुन: इनके जन्म के सात-आठ पीढ़ी पहले इनके पूर्वज रोजी की ही तलाश में बलिया से जीरादेई चले आये थे । इनके दादा का नाम मिश्री लाल था । मिश्री लाल का देहांत कम ही उम्र में हो गया । अत: राजेंद्र प्रसाद के पिता महादेव सहाय का लालन-पालन मिश्री लाल के बड़े भाई चौधुर लाल ने किया । चौधुर लालजी हथुआ राज के योग्य, कर्मठ और ईमानदार दीवान थे । लगभग पचीस साल तक इस पद पर रहकर अपनी कार्यकुशलता और सूझ-बूझ से उन्होंने न केवल राज की श्रीवृद्धि की बल्कि अपने परिवार की प्रतिष्ठा को भी ऊंचाई तक पहुंचाया । उम्र से बड़े होने के कारण इनके चाचा मुंशी जगदेव सहाय जमींदारी की देखभाल किया करते तथा पिता मुंशी महादेव सहाय अधिकांश समय वागवानी में दिया करते थे । इसके अतिरिक्त इनके पिता अपने स्वाध्याय से आयुर्वेद तथा यूनानी दवाइयों के अच्छे जानकार हो गए और गरीबों का मुसा इलाज करते थे । परोपकारी स्वभाव होने के कारण ये लोगों के प्रेम एवं विश्वास के पात्र हो गए थे । फारसी की अच्छी जानकारी हासिल कर ली थी तथा कुछ संस्कृत का ज्ञान हो गया था । वे अपने स्वाध्याय के साथ-साथ नियमित रूप से अखाड़े में जाते, मुगदर भांजते, दंड-कसरत करते तथा घुड़सवारी भी करते थे । इन सब का प्रभाव राजेंद्र प्रसाद और इनके बड़े भाई महेंद्र प्रसाद पर भी पड़ा। ये दोनों भाई भी घोड़सवारी करते और दंड-कसरत एवं मुगदर भांजते थे । धार्मिक स्वभाव की मां कौलेश्वरी देवी राजेंद्र प्रसाद को 'रामायण' और 'महाभारत' की कहानियां सुनातीं, जिनका प्रभाव उनके मन पर बहुत पड़ता । परिवार के ये सभी गुण-दादा की कर्तव्यनिष्ठा, पिता का सेवाभाव, मां की धार्मिक प्रवृत्ति बालक राजेंद्र को विरासत मैं मिले । बड़े भाई महेंद्र प्रसाद ने बालपन सै ही उनमें स्वदेश प्रेम की भावना जगाई ।
पांच वय की उम्र में उनकी पढ़ाई आरंभ हुई । एक मौलवी साहब उन्हें पढ़ाते थे । राजेंद्र प्रात: शीघ्र उठकर मदरसे पहुंच जाते थे । ये पढ़ने में बहुत तेज थे । मौलवी साहब उन्हैं जौ भी पाठ घर से याद करने को देते, राजेंद्र सुबह मदरसे जाते ही उन्हें सुना देते, फिर जबतक दूसरे विद्यार्थी आते, तब तक उनका अगला पाठ शुरू हो चुका होता था । अपनी कक्षा में वै सबसे अव्वल थे । उनकी इसी प्रतिभा के कारण कई बार उन्हें दोगुनी प्रोन्नति दी गई । उसके बाद वे अपनी प्रारंभिक शिक्षा के लिए छपरा के जिला स्कूल गए । सिर्फ बारह वर्ष की उम्र में ही उनका विवाह राजवंशी देवी से हो गया । उन दिनों इनके बड़े भाई महेंद्र प्रसाद छपरा जिला स्कूल की एंट्रेंस कक्षा मैं पढ़ रहे थे । अत: इनका नाम उसी स्कूल मैं लिखा दिया गया और बड़े भाई की देख रेख में ही पढ़ने लगे । एंट्रेंस की परीक्षा पासकर महेंद्र प्रसाद पटना कॉलेज में दाखिल हो गए । भाई कै संरक्षण मैं इनका नाम पटना के टी. के. घोष एकेडमी मैं लिखाया गया । उन दिना यह एक अच्छा स्कूल समझा जाता था । दो वर्षों तक पटने में पढ़ने के बाद राजेंद्र प्रसाद हथुआ स्कूल में दाखिल हो गरा । हथुआ स्कूल में नाम लिखाने के बाद उन्हें अध्ययन से कुछ अरुचि हो गई । यहां पाठ को बिना समझे-बुझे कंठस्थ करने की प्रक्रिया प्रचलित थी । लेकिन इस तरह सबक रट जाना उन्हें कतई पसंद नहीं था । इस बीच वे बीमार पड़ गए और वार्षिक परीक्षा नहीं दे सके । अत: फिर उन्हें छपरा जिला स्कूल मैं ही दाखिल हाना पड़ा जहां उन्होंने लगन, रुचि और परिश्रम से पढ़कर 1902 में कलकत्ता (अब कोलकाता) विश्वविद्यालय (जिसके अंतर्गत बंगाल, बिहार, असम, उड़ीसा और वर्मा (म्यांमार) का विस्तृत क्षेत्र था) की एंट्रेंस परीक्षा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया, जिसके फलस्वरूप उन्हें कई स्कॉलरशिप और पदक मिले । एंट्रेंस परीक्षा पास करने के बाद राजेंद्र प्रसाद नं कलकत्ता के प्रेसिडेंसी कॉलेज में नाम लिखाया और यहां भी उनकी असाधारण उपलब्धियों का सिलसिला जारी रहा । एम. ए. और बी. ए. में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त करने के फलस्वरूप उन्हैं अनेक पदक और छात्रवृत्तियां मिलीं । इसका यह मतलब नहीं था कि राजेंद्र प्रसाद का सारा समय पुस्तकावलोकन में लगा रहता था । सार्वजनिक कामा में उनका बहुत मन लगता था और विभिन्न छात्र-समितियों की स्थापना और संचालन में उनका प्रमुख हाथ रहता था । कांग्रेस के नाम से भी वे परिचित थे और उसके सालाना महाधिवेशनीं में दिए गए भाषणों को ध्यानपूर्वक पढ़ते थे । लॉर्ड कर्जन द्वारा बंगाल विभाजन का परिणाम था कि उसके विरोध में सारे देश में विशेषत: वंगाल में राष्ट्रीय भावना की लहर चलने लगी थी । बंगभंग आदोलन में बहुतेरे विद्यार्थी भाग ले रहे थे । देश प्रेम और समाज सेवा का वास्तविक रूप अभी इन्हें स्पष्ट नहीं हो रहा था । परंतु अब केवल कॉलेज की पढ़ाई से संतोष नहीं मिलता था ।
एक बार 'डॉन सोसाइटी' के सदस्य की हैसियत से उन्होंने एक बड़ा भावपूर्ण भाषण दिया । उसकी टिप्पणी करते हुए तत्कालीन 'मॉडर्न रिव्यू' ने लिखा था 'इसके वक्ता (राजेंद्र प्रसाद) के लिए भविष्य के गर्भ में सब कुछ रखा है, इसमें हमें जरा भी आश्चर्य नहीं ।''
सन् 1907 में राजेंद्र प्रसाद के पिता की मृत्यु हो गई । वे उदासीन रहने लगे । पढ़ाई से ज्यादा वे सार्वजनिक कार्यो में रुचि लेने लगे । अत: एमए. की परीक्षा में वे सर्वोच्च स्थान प्राप्त नहीं कर सके । एम. ए. में उनके अध्ययन का विषय अंग्रेजी थी । एमए. पास करते ही उनसे कॉलेज मैं प्राध्यापक पद पर काम करने का आग्रह किया जाने लगा । सरकारी नौकरी न करने की तो उन्होंने पहले ही ठान ली थी । सन् 1998 में वे मुजफ्फुरपुर कॉलेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक नियुक्त हुए और लगभग एक साल तक उन्होंने बड़े लगन से वहां पढ़ाया । फिर वकालत की तैयारी करने के लिए कलकत्ता चले गए । उन्हीं दिनों उनका 'सर्वेट ऑफ इंडिया सोसाइटी' के संस्थापक गोपाल कृष्ण गोखले से संपर्क हुआ । गोखले ने उनसे सोसाइटी में शामिल हो जाने का आग्रह किया । राजेंद्र प्रसाद पर गोखले की बातों का गहरा प्रभाव पड़ा । लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण वे चाह कर भी गोखले के आग्रह का पालन नहीं कर सके । कम उम्र में शादी होने के कारण सन् 1906 और 1909 में क्रमश: दो पुत्रों के पिता भी बन गए थे । इस प्रकार मन की इच्छा मन में ही रखकर वकालत पास कर उन्होंने कलकत्ता उच्च न्यायालय में वकालत करनी शुरू की । कुछ ही समय में उनकी वकालत चल निकली और बहुत अच्छे वकीलों में उनकी गिनती होने लगी । उनके काम से प्रभावित होकर न्यायमूर्ति श्री आशुतोष मुखर्जी ने उन्हें ली कॉलेज में पढ़ाने का निमंत्रण दिया और इस प्रकार राजेंद्र प्रसाद कलकत्ता ली कॉलेज के प्राध्यापक बन गए । साथ ही वकालत का अध्ययन जारी रख कर सन् 1915 में उन्होंने एम.एल. की परीक्षा दी और इसमें उन्होंने बहुत उच्च अंकों के साथ प्रथम स्थान प्राप्त किया तथा स्वर्ण पदक भी प्राप्त किया । बाद में लॉ के क्षेत्र में ही उन्होंने डॉक्टरेट की उपाधि भी हासिल की । राजेंद्र प्रसाद कानून की अपनी पढ़ाई का अभ्यास भागलपुर (बिहार) में किया करते थे ।
सन् 1912 में ही बिहार प्रांत बंगाल से अलग हो गया था और 1916 में यहां हाईकोर्ट खुल जाने के बाद राजेंद्र प्रसाद पटना चले आए । यहां भी उनकी वकालत खूब चल निकली, किंतु धनोपार्जन कर सुख में लिप्त होने का तो सवाल ही नहीं था, वकालत करते हुए भी वे बहुविध सार्वजनिक एवं लोक सेवा कार्यो में व्यस्त रहते । उसी समय पटने में यूनिवर्सिटी लिए दिल्ली कौंसिल में एक बिल पेश जिसमें यह लिखा मील दूरी पर फुलवारी शरीफ के नजदीक यूनिवर्सिटी कायम की इमारती पर खर्च भी लगभग एक करोड़ रुपये आंकी गई थी।
राजेंद्र प्रसाद एवं साथियों ने उस बिल का जी-जान विरोध किया
से कारण गरीब छात्रों के लिए यूनिवर्सिटी शिक्षा असंभव नहीं, कठिन जरूर जाती वहां खर्च भी अधिक पड़ता क्योंकि रुपये होस्टल में रहना पड़ता तथा आजादी भी खत्म हो जाती । साथ ही सिनेट और सिंडिकेट जैसा बनने रहा था, उसमें जनता के सेवकों को स्थान नहीं मिल पाता ।
प्रकार समस्त कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए राजेंद्र प्रसाद
किया प्रयास. अखिल भारतीय कांग्रेस ने भी लखनऊ अवसर पर बिल का, किया और अब सार्वदेशिक आंदोलन गया । अंतत: परिवर्तित रूप में बिल स्वीकृत हुआ।
अनुक्रम
1
2
राजनीतिक विचार
(क) डॉ. राजेंद्र प्रसाद का 1934 के बंबई के कांग्रेस
अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण
47
(ख) संविधान सभा के अध्यक्ष वनने के बाद डॉ . राजेंद्र प्रसाद
का वक्तव्य
71
(ग) संविधान बनने के बाद संविधान सभा के सदस्यों के
समक्ष दिया गया भाषण
73
(घ) सत्ता हस्तांतरण अधिवेशन सभा में डॉ. राजेद्र प्रसाद का भाषण
88
3
पाकिस्तान वनाने के मुस्लिम नेताओं के तर्कों का खंडन
('खंडित भारत' पुस्तक के महत्वपूर्ण भाग)
(i) राष्ट्रीय और बहुराष्टीय राज
91
(ii) एक देश
97
(iii) एक इतिहास
101
(iv) उपसंहार
116
4
संस्कृति, शिक्षा और साहित्य संबंधी विचार
(i) भारतीय संस्कृति
121
(ii) विश्वविद्यालय और सामाजिक कल्याण
129
(iii) शिक्षा और आज की समस्याएं
139
(iv) शिक्षा और सामंजस्य
150
(v) राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली
161
(vii) साहित्य की राजनीतिक पृष्ठभूमि
167
(vii) हिंदी का व्यापक स्वरूप
190
5
आर्थिक चिंतन
खादी का अर्थशास्त्र
217
6
महत्व के तीन पत्र
(क) अग्रज श्री महेंद्र प्रसाद को लिखा पत्र
224
(ख) पत्नी श्रीमती राजवंशी देवी को लिखा पत्र
228
(ग) पं. जवाहर लाल नेहरू को लिखा पत्र
230
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