भारतीय शास्त्रीय संगीत का इतिहास लंबा होने के साथ-साथ मियकों, दंत कथाओं तथा अनेक भ्रान्तियों से भरा हुआ है। किसी भी विराट विचार, पद्धति अथवा परंपरा के साथ ऐसा होना स्वाभाविक ही है। अठारहवीं शताब्दी से जब इसके इतिहास लेखन के प्रयास आरंभ हुए, संगीत साधकों ने व्यक्तिगत अनुभव तया मंतव्य ही लेखकों के सम्मुख प्रस्तुत किए। मुगल काल से आरंभ असंख्य विशिष्टता-कुलों अथवा 'घरानों' ने अपने संगीत को श्रेष्ठ निरूपित करने का प्रयास किया। पूर्व प्रचलित 'अनाम कलाकार' की भारतीय अवधारणा धीरे-धीरे इस व्यक्तिवादी तथा पंथ प्रधान प्रथा के सम्मुख विलीन हो गई। संगीत साधकों के ईश्वर-प्राप्ति, स्वतः रंजन के ध्येय के साथ-साथ सम्मान तथा वैभव अर्जन भी साध्य हो गया। कभी-कभी प्रमुखता प्राप्त कर साधकों को साधना सुख से भी विचलित करने लगा। ऐसे में संगीत ज्ञान पिपासु कुल गुरु के संगीत ज्ञान के साथ उसके दुर्गुणों-दंभ, अल्पज्ञता, संकीर्ण दृष्टिकोण, अनुसरण दोष को भी परंपरा की विशेषता समझ अपनाते चले गए। अपनी शिक्षा पर गुरु के पूर्ण नियंत्रण के फलस्वरूप उसकी दीर्घ-कालिकता, असंबद्धता, अनुपयोगिता तथा इन सब से विद्ध-अलक्ष्य-आर्थिक, भौतिक, मानसिक तथा संवेदना के स्तर पर किए जाने वाले शोषण उसकी संगीत शिक्षा के अभिन्न अंग थे। पहले वर्ण-व्यवस्था और फिर सामंतवादी समाज की मानसिकता में पलने वाले गुरु और शिष्य दोनों के लिए इसमें अस्वाभाविक तया परिवर्तन योग्य कुछ भी नहीं था।
बीसवीं शताब्दी के मध्य तक (सच पूछें तो आज भी देश के कई हिस्सों में) संगीत शिक्षण की यही दशा रही-बावजूद भातखंडे तया पत्लुस्कर के भगीरथ प्रयासों के। किंतु इन महान विभूतियों के श्रम-सिंचित पौधे ने जमीन पकड़ ही ली। तीसरे दशक के समाप्त होते-होते भारतीय विद्वत समाज ने संगीत को अन्य विषयों के समान ज्ञान-कोष होना स्वीकार लिया। इस स्वीकरण में ब्रिटिश शासन तया पाश्चात्य शिक्षण विचार-विंव की भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता। चौथे से छठवें-सातवें दशक के मध्य पंडित ओंकारनाथ ठाकुर, पंडित रतन जनकर, प्रो. बी.आर. देवघर, पंडित नारायण राव व्यास, पंडित विनायक राव पटवर्धन, आचार्य बृहस्पति, डॉ. लालमणि मिश्र, ठाकुर जयदेव सिंह जैसे विद्वानों ने देश-विदेश में व्याख्यान, प्रदर्शन, शिक्षण, लेखन तथा प्रसारण द्वारा भारतीय शास्त्रीय संगीत के सभी पक्षों को वैज्ञानिक दृष्टि से प्रकाशित किया। भारतीय संगीत के रेनेसौं-काल में एक ओर जहाँ प्राच्य अवधारणाओं की नव-स्थापना का सुख था वहीं दूसरी ओर सिमटती दुनिया के उत्सुक पिपासुओं को नए और (पश्चिम के अनुकरण में, उनके द्वारा मान्य) वैज्ञानिक ढंग से इस विषद विघा से परिचित कराने का दायित्व भी इन्हें वहन करना था।
दूरस्थ संगीत शिक्षा आज के सूचना प्रौद्योगिकी युग में अत्यन्त महत्त्व का विषय माना गया है। वैसे तो यह विषय मुख्य रूप से ओपन यूनिवर्सिटी का है किन्तु आज के समय को देखते हुए संगीत के क्षेत्र में दूरवर्ती शिक्षा प्रणाली का महत्त्व अत्यन्त बढ़ गया है। मूल रूप से एक संगीतकार के लिए गुरु-शिष्य परम्परा से शिक्षा ग्रहण करना सर्वश्रेष्ठ माना जाता है और विना गुरु के कोई भी अच्छा संगीतकार या मंचीय कलाकार नहीं बन सकता किन्तु सभी तो संगीतकार नहीं बन सकते इसलिए संगीत शिक्षा का दायरा भी बढ़ा है और इसलिए संगीत में दूरवर्ती शिक्षा प्रणाली अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो गयी है। अन्य शिक्षा के अलावा संगीत शिक्षा भी आज के युग में सभी के लिए एक अनिवार्य अंग-सी बन गयी है।
दूरस्य संगीत शिक्षा भविष्य की आवश्यकता है जिसे नकारा नहीं जा सकता। प्रसिद्ध संगीत शास्त्री, बड़ोदा के प्रोफेसर आर.सी. मेहता ने कई बार मुझसे कहा कि दूरस्य संगीत शिक्षा की सम्भावनाओं पर वृहद् विचार विमर्श कर एक पुस्तक लिखी जानी चाहिए। इस पर मैंने अत्यन्त गहन विचार किया और इसके लिए अपने स्तर पर प्रयत्न करना शुरू कर दिया। इस प्रयत्न में प्रोफेसर संजय बंदोपाध्याय का मुझे बहुत सहयोग प्राप्त हुआ। उनके सहयोग से देश के अनेक संगीत विद्वानों से इस महत्त्वपूर्ण विषय पर आलेख लिखने के लिए आग्रह किया। प्रमुख रूप से प्रोफेसर आर.सी. मेहता, डॉ. एम.वी. सहस्रबुद्धे, डॉ. एस.ए.के. दुर्गा, प्रोफेसर विद्याधर व्यास और डॉ. रागिनी त्रिवेदी ने हमारे आग्रह को स्वीकार कर इस विषय में रुचि लेकर अपने महत्त्वपूर्ण आलेख हमें भेज दिये। हालाँकि इसमें एक वर्ष का समय लग गया। प्रोफेसर संजय बंदोपाध्याय ने अपने प्रयास से फिनलैण्ड के श्री मत्तीजुहानी रयूपो, साउथ अफ्रीका के भी श्री छत्रधारी देवरूप और श्री मार्क दूबी से आलेख प्राप्त कर हमें भेज दिये।
For privacy concerns, please view our Privacy Policy
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist