25 दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड। घने कोहरे में लिपटी रात। युवाओं की एक टोली चुपचाप बमरौली (पीलीभीत का एक गाँव) की तरफ जा रही थी। उनके हाथों में पिस्तौल, डंडे और चाकू छुरे सब थे। वे गन्ना व्यापारी बलदेव सिंह के घर की तरफ जा रहे थे। मजबूत कद- काठीवाले चंद्रशेखर आजाद इनके अगुआ थे। उनके साथ कदमताल करते हुए चल रहे थे ठाकुर रोशन सिंह और पंजाब का एक पगड़ीधारी युवा भगत सिंह। इनकी आँखों में हिंसक क्रूरता की ज्वाला नहीं, बल्कि कुछ कर-गुजरने का जज्बा हिलोरें ले रहा था। ये लोग अमीरों से दौलत लूटकर आजादी की लड़ाई में इस्तेमाल करना चाहते थे। इनकी न तो यह पहली डकैती थी और न ही आखिरी।
बलदेव प्रसाद सूदखोर था। ऊँची दरों पर ब्याज वसूलकर कर्ज दिया करता। लेकिन इन जवानों के सामने उसने कुछ ज्यादा ना-नुकर नहीं की। घर की औरतों ने जरूर डर के मारे जान की भीख माँगनी शुरू कर दी। अब तक इनकी योजना में किसी की जान लेने का कोई इरादा शामिल था ही नहीं। सो, वहाँ से तकरीबन 8 हजार रुपए और सोने चाँदी के गहने लूटकर जैसे ही चलने को हुए, बलदेव प्रसाद का लठैत पहलवान मोहन लाल उन्हें ललकार बैठा। इससे पहले कि वह इन्हें कोई नुकसान पहुँचाता या अपने साथियों को इकट्ठा कर पाता, युवाओं में से एक ठाकुर रोशन सिंह ने गोली चला दी। अब पहलवान शांत होकर जमीन पर पड़ा था। अब वे लौट रहे थे घनी अँधेरी रात के सन्नाटे को अपने कदमों की आवाज से भेदते हुए।
जब ये लोग अपने छिपे हुए ठिकाने पर पहुँचे तो उनके दिलों में लूट में मिली दौलत की खुशी इसलिए थी कि वे इससे लड़ाई को आगे जारी रख सकेंगे। लेकिन एक अजीब सी खामोशी उनके बीच पसरी हुई थी जिस पर खून के छींटे साफ दिखते थे। तभी इनमें से एक यानी भगत सिंह ने कहा, "आइंदा मुझे किसी डकैती में साथ लेकर न जाना। मैं ऐसी हिंसा को बर्दाश्त नहीं कर सकता, जिसमें हमें किसी इनसान की जान लेने पर मजबूर होना पड़े।"
य ह पुस्तक .32 यू.एस. कोल्ट पिस्तौल के खोने और पाने की दिलचस्प कहानी ही नहीं है, बल्कि इसे लिखे गए से अधिक समझे जाने की जरूरत है। क्योंकि अपने सफर में यह कई तरह से राय कायम करते हुए अलग-अलग समयों के संवाद को अपने आप में समेटे हुए है।
शुरुआत होती है उस दौर से, जहाँ इनकलाब जिंदाबाद आंदोलन की मुहिम युवा बागियों में उत्साह और जान फूंक रही थी। आजादी की लड़ाई के ये दीवाने अपनी बात, विचार और नई बनाई गई संस्था 'हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन' के जरिए काम को आगे बढ़ा रहे थे। संस्था का उदय 1928 में दिल्ली से होकर चरम लाहौर में 1931 में होता है।
जिस वाकये को यह पुस्तक बयान करती है, उसकी शुरुआत 17 दिसंबर, 1928 को शाम चार बजे होती है, जब अंग्रेज पुलिस अफसर जे.पी. सांडर्स जिला पुलिस दफ्तर से निकलता है। दिन की रोशनी में सबके सामने भगत सिंह ने पिस्तौल की मैगजीन उस पर खाली कर दी थी। तब तक भगत सिंह की चर्चा बहुत ज्यादा नहीं हुई थी। लेकिन इस घटना के बाद जब हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ने हत्या को लेकर पोस्टर जगह-जगह लगाए तो उन्हें सब जान गए। इधर अंग्रेजी पुलिस इसे एक आतंकवादी घटना और बदले की काररवाई कहती रही।
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