यह पुस्तक ऋषि वैली स्कूल और राजघाट बेसेंट स्कूल में जे. कृष्णमूर्ति द्वारा प्रदत्त वार्ताओं और वहां के छात्रों व शिक्षकों के साथ हुई उनकी बातचीत का विवरण पेश करती है। कृष्णमूर्ति की दृष्टि में मानव मन के रूपान्तरण में तथा एक नयी संस्कृति के निर्माण की चुनौती को संप्रेषित करने में शिक्षा की प्रमुख भूमिका है। जैसा कि इन ऊर्जा से भरपूर वार्ताओं और चर्चाओं के विषय जाहिर तौर पर व्यक्त करते हैं, कृष्णजी स्थापित संस्कृति की नींव तक हिला देने वाले सवाल उठाते हैं ताकि शिक्षा पर एक व्यापक दृष्टिकोण उभर कर आ सके।
कृष्णमूर्ति की चुनौती न केवल शिक्षा के तौर-तरीकों को लेकर है बल्कि मनुष्य के मन और जीवन की प्रकृति और गुणवत्ता को भी सवालों के घेरे में ले आती है। असफल शिक्षा प्रणाली में सुधार लाने या बेहतर विकल्प सुझाने के अन्य सभी प्रयासों से एकदम हटकर, उनका दृष्टिकोण किसी भी संस्कृति के दायरों को ध्वस्त कर नये मूल्यों का सृजन करता है। कृष्णमूर्ति की नज़र में एक नया मन तभी संभव है जब धार्मिक मनः स्थिति और वैज्ञानिक दृष्टिकोण दोनों ही समन्वित हों। वह बुद्धि के विकास पर जोर देने के साथ-साथ आंतरिक और बाहरी दुनिया के प्रति बेशुमार, परम सजगता की मांग करते हैं।
जे. कृष्णमूर्ति (1895-1986) विश्व के सर्वाधिक स्वतंत्रचेता, गहनतम दार्शनिकों तथा धार्मिक शिक्षकों में से एक हैं। साठ वर्षों से अधिक समय तक वह पूरे विश्व में विभिन्न स्थानों पर अपना संदेश वार्ताओं एवं संवादों के माध्यम से साझा करते रहे, गुरु के रूप में नहीं, अपितु एक मित्र, एक कल्याणमित्र के रूप में। उनकी शिक्षाओं का आधार ग्रंथ-ज्ञान अथवा सैद्धांतिक स्थापनाएं नहीं है, अतएव वे किसी भी ऐसे व्यक्ति को सीधे-सीधे संप्रेषित हो पाती हैं जो वर्तमान विश्व संकट के, तथा मानव-अस्तित्व की सार्वकालिक समस्याओं के सटीक उत्तर खोज रहा है।
यह पुस्तक आंध्रप्रदेश के ऋषि वैली स्कूल तथा वाराणसी के राजघाट स्कूल में शिक्षार्थियों तथा शिक्षकों के बीच श्री जे. कृष्णमूर्ति की वार्ताओं तथा संवादों का संकलन है। ये केन्द्र कृष्णमूर्ति फाउंडेशन इंडिया द्वारा संचालित हैं, जिन्हे एक ऐसे परिवेश को तैयार करने के लिए स्थापित किया गया था जिसमें जे. कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं को बच्चों तक पहुँचाया जा सके। मानव मन के मूलभूत रूपांतरण तथा एक नूतन संस्कृति के सृजन हेतु जो केन्द्रीय तत्त्व है उसके सम्प्रेषण के लिए शिक्षा को कृष्णमूर्ति प्राथमिक महत्त्व का मानते हैं।
ऐसा आधारभूत रूपांतरण तभी हो पाता है जब विविध दक्षताओं एवं विषयों में प्रशिक्षित होने के साथ ही बच्चे को अपने विचार, भाव और कर्म की प्रक्रियाओं के प्रति जाग्रत रहने का सामर्थ्य भी प्राप्त हो। यह जागरूकता उसे आत्म समीक्षक एवं अवलोकनशील बनाती है और इस प्रकार उसमें बोध, विवेक तथा कर्म की अखंडता स्थापित करती है और उसके भीतर वह परिपक्वता लाती है जो मानव, प्रकृति और मानव-निर्मित उपकरणों से उसके सही संबंध की खातिर अनिवार्य है।
आजकल शैक्षिक संरचना की बुनियादी अवधारणाओं तथा भारत में और शेष विश्व में उसकी विविध प्रणालियों पर प्रश्न चिह्न लगाए जा रहे हैं। सभी स्तरों पर उत्तरोत्तर यह महसूस किया जा रहा है कि ये प्रचलित प्रारूप असफल हो गये हैं और मनुष्य एवं समसामयिक जटिल समाज के बीच कैसी भी सुसंगति का नितांत अभाव दीख पड़ता है। पारिस्थितिकी के संकट तथा निरंतर बढ़ती गरीबी, भूख और हिंसा मनुष्य को बाध्य कर रही है कि वह मनुष्य-जीवन की इस दशा की वास्तविकताओं का सामना करे।
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