भारतीय शिक्षा क जड़ें अतीत की गहराईयों से शक्ति पाती रही है आज की शिक्षा ने उस ओर से मुंह फेर लिया है। अतीत उज्ज्वल था, मध्य दुःखान्त और वर्तमान अत्यन्त दुर्दात। जब से हमने भारत के लिए शिक्षा-पद्धति का निर्माण करते समय भारतीय अजीत की ओर न देखकर विदेशों की ओर देखना शुरू किया। भारत के लिए शिक्षा-व्यवस्था का निर्माण करते समय भारतीय संस्कृति की ओर न देखकर उस विदेशी नंगी संस्कृति की ओर देखा, जिनका हमारे आदर्शों से कोई रहीं। हम जब प्राचीन भारतीय शिक्षा के आदर्शों की ओर देखते हैं, आचाया पविता और समर्पण, छात्रों के प्रति ममत्व तो मन यही कहता है काश हमारे वे गुरूकुल फिर लौट आते, काश हमारा नालन्दा, तक्षशिला, विक्रमशिला फिर जी उठते तो उनके खण्डहरों पर दो पल रो तो लेता हृदय पर जलती शिक्षा की होली को बुझानेके लिए। बडा मोह लगता है उन आदर्शों का, पर शायद व अब कभी न लौट पायेंगे।
स्वतंत्र भार में अब थोड़ा सा समय आया उन सोये आदर्शों को जगाने का तो भौतिकवादी दर्शन हाबी हो गया शिक्षा पर कुछ सृजन, कुछ निर्माण के कौशल न सीखकर छात्र डिग्रियाँ बटोरने लगे-मूल्यों और आदर्शों से वंचित इन नागरिकों की उपाधियों का कोई महत्व नहीं रह गया है। समाज में जिनके ऊपर शिक्षा में सुधार की जिम्मेदारियों है जिन्हें शिक्षा की नीतियों निर्मित करने का अधिकार है वे स्वार्थान्ध होकर राजनीति का खेल खेल रहे है, अपनी कुर्सी को बचाये रखने, गाड़ी की लाल नीली हरी बत्ती को जलाये रखने के लिए। कुर्सी की रक्षा में लगे लोगों को देश, समाज और शिक्षा की रक्षा के लिए समय कहाँ है ?
वर्तमान की कोख में एक नया दर्शन पल रहा है। अभ उसे दिशा नहीं मिल रही है ? भविष्य में उसका क्या स्वरूप होगा, यह तो भविष्य ही बात सकेगा।
उक्त सभी विचार हमारी शिक्षा के इतिहास, विकास और समस्याओं से सम्बन्धित हैं। हमारी शिक्षा वर्तमान के अनुपयोगी जाल में इस तरह उलझी हुई है जिसे छुटकारा दिलाना संभवतः कठिन होगा। शिक्षा की जिम्मेदारी जिन पर है वे सिर्फ समस्या पैदा करना जानते हैं, समस्याओं से छुटकारा दिलाना नहीं। समस्याओं का समाधान उनके पास है जो शिक्षाविद् हैं, विद्वान हैं- राजनीतिज्ञों से यह काम न हो पायेगा।
भारतीय शिक्षा के इतिहास विकास और समस्याएँ में इन्हीं तीन बातों की विवेचना की है। आशा है शिक्षा के अध्येता इससे अधिकाधिक लाभान्वित होंगें कोशिश रही है कि अभिव्यक्ति की भाषा और शैली सरल तथा बोधगम्य हो।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शिक्षा प्रणाली का विकास समय की आवश्यकताओं के अनुरूप जिस ढंग से होना चाहिए उस ढंग से नहीं हुआ। शिक्षा के क्षेत्र में विचार और कार्य में अन्तर दिखलायी देता है।
परम्परागत शिक्षा प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन के द्वारा शासन और जीवन के ढंग के रूप में धर्म निरपेक्ष लोकतंत्र की स्थापना, जनता की निर्धनता का अन्त, कृषि का आधुनिकीकरण, उद्योगों का तीव्र विकास आदि राष्ट्रीय विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करना।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सभी स्तरों पर शिक्षा का आश्चर्यजनक विस्तार हुआ है। लेकिन इस विस्तार के बावजूद शिक्षा के अनेक अंग विभिन्न समस्याओं से ग्रस्त हैं। शिक्षा की संख्यात्मक वृद्धि तो हुई है पर गुणात्मक नहीं।
इसके अतिरिक्त शिक्षा की गुणात्मक उन्नति के लिए राष्ट्रीय नीतियों और कार्यक्रमों को लागू नहीं किया जा सका है।
सरकार का यह विश्वास है कि शिक्षा राष्ट्रीय समृद्धि और कल्याण का आधार है। अतः सरकार ने शिक्षा का प्रतिस्थापन करना निश्चित किया है।
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