डॉ. कीर्ति गर्ग भाटिया हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के संगीत विभाग में अतिथि सहायक आचार्य के पद पर कार्यरत हैं। इन्होंने अपनी स्कूल. कॉलेज और विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा ज़िला शिमला से की है। इन्होंने एम.ए., एम. फिल तथा पीएच. डी की शिक्षा गायन विषय में हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से प्राप्त की। इन्होंने यू.जी.सी. नैट-जे.आर.एफ की परीक्षा भी उतीर्ण की है। ये ऐसे संगीत परिवार से सम्बन्ध रखती हैं जिनका पीढ़ियों से संगीत से ही सम्बन्ध रहा है। इन्होंने संगीत की शिक्षा अपने पिता और गुरू प्रो. नन्द लाल गर्ग से प्राप्त की, जो कि हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के संगीत विभाग से वरिष्ठ प्राध्यापक के पद से सेवा निवृत हुए हैं और सितार वादन, गायन, तबला और लोक संगीत के प्रतिष्ठित कलाकार हैं और हिमाचल के धामी घराने का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। डॉ. कीर्ति गर्ग भाटिया भी इसी घराने से सम्बन्धित हैं। इन्होंने भी रेडियो, टी.वी. तथा अनेक मंचों से संगीत के कार्यक्रम प्रस्तुत किए हैं। इन्हें 2008-2009 में संगीत नाटक अकादमी, नई दिल्ली द्वारा हिमाचल के लोक संगीत पर एक शोध कार्य करने के लिए अनुदान प्रदान किया गया जिसका शीर्षक "हिमाचल के संस्कार गीत" था। इनके बहुत से रीसर्च पेपर व आर्टिकल भी प्रकाशित हुए हैं। कई सेमीनार और वर्कशाप में भी भाग लिया है और कई सेमीनार में रिसोर्स परसन भी रही है। इनका शिक्षण कार्य का अनुभव: 23 साल के लगभग है। इन्होंने स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय तीनों ही स्तरों पर अध्यापन का कार्य किया है। ये 'हिम कलाकार संगम' संस्था की सचिव भी हैं। इन्हें लोक संगीत में अत्यन्त रूचि है और समय-समय पर लोक संगीत के लिए कार्य करने को तत्पर रहती हैं। यही कारण है कि ये हिमाचल की कला संस्कृति के अध्ययन और संरक्षण के लिए कार्यरत हैं।
शास्त्रों में वर्णित उत्तराखण्ड जहाँ का शैल-शिखर कैलाश पर्वत स्वर्ण, चाँदी एवं विभिन्न प्रकार के अमूल्य पदार्थों का अदभुत एवं विशाल भण्डार अपने विशाल हृदय में संजोय हुए है, जहाँ पर शीतल-निर्मल जल की नदियाँ कल-कल बहती हैं, जहाँ पर विभिन्न प्रकार की जड़ी-बूटियाँ अर्थात् औषधियाँ जो कि हर जीव को स्वस्थ एवं निरोग्य जीवन प्रदान करती है एवं संजीवनी जैसी बूटियाँ जो कि मृत्यु के मुख से भी जीव-आत्मा को फिर से शरीर में प्रवेश करवा कर जीवित करती है, जहाँ पर शीतल तथा उष्ण जल के विभिन्न छोटे-बड़े जलाशय व झरने बहते हैं, जहाँ पर तरह-तरह के वृक्ष अपनी सुगन्ध से वातावरण को शुद्ध करते हैं, जहाँ पर ऋषि-मुनियों ने शंकर भगवान की कठिन तपस्या करके मनचाहा वर अथवा शाप देने की क्षमता पाई, जहाँ पर पांडवों ने अज्ञात वास में भ्रमण किया, जो महर्षि व्यास, जमदगिनि, विशिष्ट तथा परशुराम जैसे मुनियों द्वारा तपस्या करने के लिए रमणीक स्थल रहा, जहाँ देवी-देवताओं की पूजा-उपासना घर-घर में की जाती है, जहाँ देवी-देवताओं के तरह-तरह के उत्सव मनाए जाते हैं, जहाँ नदियाँ, झरने कल-कल ध्वनि में बहते हैं, जहाँ पर भिन्न-भिन्न प्रकार के वृक्ष झूमते हुए संगीत की ध्वनि सुनाते है, जहाँ पर विभिन्न प्रकार के पक्षी अलग-अलग मधुर स्वरों की ध्वनि में चहचहाते हैं, जहाँ पर प्रत्येक मानव के शरीर में नृत्य की थिरकन है और कंठ में संगीत है, जहाँ पर दुन्दभी, ढोल, तुरही, करनाल, शहनाई अपने मधुर स्वरों की ध्वनि से पहाड़ों को गुन्जित करते हैं - यही है हमारा सुन्दर 'हिमाचल'।
सृष्टिकर्ता ने बहुत विचित्रता से सृष्टि की रचना की है जिसका पार कोई नहीं पा सका है। ऊँचे-नीचे पर्वत, समतल भूमि, बहते हुए सागर, पेड़-पौधे ये सब अपना एक प्राकृतिक एवं अदभुत सौन्दर्य लिए हुए हैं। प्रकृति ने विभिन्न प्रकार के फूल-पौधों, पशु-पक्षियों को अनेक प्रकार के सौन्दर्य तथा विभिन्न रंग प्रदान किए हैं। इसी प्रकार विभिन्न प्रकार से चहचहाते हुए पक्षी इधर-उधर झूमते रहते हैं, प्रकृति ने इन स्वर ध्वनियों का कैसे हर जीव में प्रवेश करवाया होगा यह बात कथन से परे की है किन्तु जब मनुष्य ने इस सुन्दर धरती पर जन्म लिया तो उसके अन्दर भी प्राकृतिक स्वर ध्वनियाँ जन्म के साथ विद्यमान थीं जैसे कि रोना, हंसना इत्यादि। धीरे- धीरे शिशु ने इन प्राकृतिक ध्वनियों को मधुर ध्वनि में परिवर्तित किया। प्रत्येक शिशु में जन्म से ही स्वर तथा लय का संचार होता है और फिर धीरे-धीरे वह भाषा का ज्ञान करता है। सर्वप्रथम् मनुष्य ने रोना, हंसना तथा गाना ही प्राकृतिक रूप से प्राप्त किया है।
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