भगवान् श्रीकृष्ण के असंख्य गुणों में से एक अतिश्रेष्ठ गुण है करुणा। वे जीवों पर अतिशय करुणाभाव रखते हैं। चूँकि जीवात्मा उनका ही एक अंश है अतः स्वाभाविक ही करुणा का यह गुण उसमें भी विद्यमान है। और इस करुणा नामक गुण के कारण ही कई मनुष्य प्रचुर दान आदि कार्य करते हैं ताकि अन्य जीवों का भला हो। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या दान द्वारा करुणा करना सही एवं शास्त्रसंगत है?, दान किन वस्तुओं का दिया जाना चाहिए?, दान कब दिया जाना चाहिए और सबसे महत्त्वपूर्ण दान किसे दिया जाना चाहिए?
इस लघु पुस्तिका के अध्ययन से उपरोक्त समस्त प्रश्नों के उत्तर आपको मिल जाएँगे। आप यह भी जान पाएँगे कि आपके द्वारा दिया गया दान ग्रहण करने वाले का कल्याण कर भी रहा है अथवा नहीं? करुणा करने की शास्त्रसंगत विधि क्या है? कहीं दान देकर भी आप पाप के भागी तो नहीं बन रहे ? दान देकर आपका परम कल्याण हो रहा है अथवा आपको केवल तुच्छ लाभ ही प्राप्त हो रहे हैं?
वास्तविकता में दान एक अतिगूढ़ विषय है जिसको बिना शास्त्रों के ज्ञान के नहीं किया जाना चाहिए। हम आशा करते हैं कि इस लघु पुस्तिका के अध्ययन के पश्चात आप दान का विज्ञान सीख पाएँगे और अपने दान द्वारा स्वयं का एवं दान ग्रहण करने वाले का परम कल्याण सुनिश्चित कर पाएँगे।
इस पुस्तिका के लेखक जो श्रील प्रभुपाद के परम प्रिय शिष्य हैं, श्रीमान् क्रतु दास जी का जन्म 5 जुलाई 1944 को लाछरस गाँव, गुजरात, भारत में हुआ। अपने मातृक गाँव में जन्म लेने वाले लेखक का परिवार वैष्णव था। लेखक की माताजी श्रीमती शांताबेन और पिताजी श्रीमान् भवानभाई, ने जन्म से ही उन्हें कृष्णभावनाभावित होने का सुअवसर प्रदान किया और उन्हें कृष्ण भक्ति के मार्ग पर अग्रसर किया। उनकी माताजी ने उन्हें बचपन से ही सभी वैदिक ग्रंथों, यथा महाभारत, श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीमद्भागवत का गहन अध्ययन करवाया। उनके पिताजी उन्हें कृष्ण कथा और भजनों का आस्वादन करवाते थे और उनके दादाजी प्रतिदिन उन्हें भगवान् श्रीराम के विग्रह के दर्शन के लिए मंदिर लेकर जाते थे। लेखक में बचपन से ही नेतृत्व के गुण थे। वह वाकल हाई स्कूल, मोभा रोड, वडोदरा, गुजरात छात्र संघ के अध्यक्ष थे। वडोदरा से सिविल इंजीनियरिंग पूर्ण करने के बाद उन्होंने सन् 1972 में अमेरिका की सेंट लुइस यूनिवर्सिटी से मास्टर्स ऑफ साइंस की डिग्री प्राप्त की।
सन् 1968 में उन्होंने श्रीमती अमृतकेलि देवी दासी से विवाह किया, जो स्वयं एक धार्मिक महिला हैं एवं भगवान् श्रीकृष्ण की समर्पित भक्त हैं। ये दोनों सन् 1970 में इस्कॉन के संपर्क में आये एवं सन् 1974 से टोरंटो इस्कॉन मंदिर में पूर्णकालीन सेवक बने। सन् 1976 में उन्हें श्रील प्रभुपाद के प्रथम दर्शन हुए एवं उन्होंने लेखक एवं माताजी को अपने शिष्यों के रूप में स्वीकार करते हुए आशीर्वाद दिया। अगले ही वर्ष उन्होंने श्रील प्रभुपाद से दीक्षा प्राप्त की।
अमेरिका एवं कनाडा में एक सफल सिविल इंजीनियर के पद पर कार्यरत होते हुए भी वे कभी पश्चिमी सभ्यता से आकर्षित नहीं हुए। श्रील प्रभुपाद से प्रेरित होकर लेखक ने अपने इंजीनियर पद का त्याग कर दिया और इस्कॉन के पूर्ण उपासक बन गए। वे सुबह-शाम प्रचार कार्यों एवं अन्य सेवाओं में व्यस्त रहने लगे। वे टोरंटो, शिकागो एवं वैंकूवर मंदिर के सामूहिक प्रचार कार्यों के संचालक थे। सन् 1987 में वे इस्कॉन बैंकूवर मंदिर के अध्यक्ष बने। उन्होंने बैंकूवर एवं वेस्ट वर्जिनिया में न्यू वृंदावन मंदिर के निर्माण में भी सिविल इंजिनियर की भूमिका निभाई।
पश्चिमी देशों में लम्बे समय तक प्रचार करने के उपरान्त, श्रीमान् क्रतु दास जी सन् 1993 में भारत लौट आये एवं गुजरात में प्रचार करने लगे।
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