रूमी लस्कर बोरा को युवा साहित्यकार की आख्या देने पर भी मेरी दृष्टि में अब वे नई लेखिका नहीं हैं। इस समय वे असमिया साहित्य में एक जाना-पहचाना नाम हैं। कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध आदि सभी विधाओं में वे पारंगत हैं। उनकी कविताएँ और कहानियाँ काफी आकर्षक हैं। किंतु उपन्यास के क्षेत्र में उनकी गहरी पैठ है। हमारे नए-पुराने बहुत से उपन्यासकारों तथा कहानीकारों की भाँति वे केवल कहानी कहने के लिए कहानी या उपन्यास की रचना नहीं करतीं। केवल कहानी के घनीभूत मायाजाल में पाठक को उलझाना उनका उद्देश्य नहीं है। वे तो समाज की किसी दिशा, किसी कालखंड अथवा किसी परिस्थिति का चित्रण कर उस विषय में पाठक को कुछ कहने की पहल करती हैं, अज्ञात जानकारी देना चाहती हैं। अपनी भाषा और अभिव्यक्ति में वे अपना हृदय खोल कर रख देती हैं।
रूमी का नवीनतम उपन्यास डम्फु पढ़कर मुझे न केवल इसके पठन का आनंद मिला है, अपितु चिंतन की खुराक भी मिली है। मानव इतिहास का अध्ययन करने पर हमेशा यह पता चलता है कि मनुष्य दरअसल एक परिश्रमी जीव है। कोई भी मानव संप्रदाय, कोई भी जनजाति कहीं की भी चिरस्थायी बाशिंदा नहीं होती। इसी कारण बाइबिल में 'Exodus' की कथा है। मौजूदा समाज के अध्ययन में 'Diaspora' का महत्त्व है। भूमिपुत्र कहाँ हैं? Sons of the Soil कौन हैं? रूमी के इस उपन्यास ने मेरे मन में व्याप्त इस विचार को और भी दृढ़ कर दिया है।
द्वितीय महायुद्धकालीन नेपाल देश के डामन के हरे-भरे पहाड़ का नेपाली युवक आज के असम प्रांत के किलिङ अंचल के हरे-भरे तट का जंग बहादुर है। जन्मभूमि नेपाल में अपने यौवन काल की प्रेमिका राधा को छोड़कर वह ब्रिटिश सैनिक होकर ब्रह्मदेश में जाकर युद्ध करता है। लौटकर असम आता है। गुवाहाटी होकर नेल्ली इलाके में पहुँचता है। वहाँ वह अपना नया संसार बसाता है। किलिङ का तट उसकी अपनी प्यारी भूमि बन जाता है। असम की शांति अशांति, सुख- दुख का इतिहास उसके भी जीवन का इतिहास बन जाता है।
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