तब मैं बडोदरा, गुजरात में रह रहा था। एक रोज मैं उत्तर प्रदेश और बिहार के आधिकारिक दौरे से लौटा तो पडोस की एक महिला एक निमंत्रण-पत्र देने मेरे घर आई। उसके बेटे की दुकान के उद्घाटन का न्यौता था। वह 19 साल का लड़का था और 10वीं की परीक्षा में फेल हो गया था।
दोस्तों-रिश्तेदारों की मौजूदगी में जिस दिन दुकान औपचारिक तौर पर खुली, उस दिन अपने जीवन की तीन घटनाएं मेरे जेहन में बेसाख्ता कौंध गई।
मैंने पहली बार जब अपना व्यापार शुरु करने के लिये पढाई छोड़ देने का इरादा जताया था तो परिवार वालों ने मुझे नसीहत दी कि उच्च शिक्षा हासिल किये बिना मैं कारेबार में भी बहुत आगे नहीं जा पाऊंगा। तब मैं 16 का था।
पशु चिकित्सक का अपना कोर्स पूरा करने के बाद मैंने फिर अपना उद्यम शुरु करने की इच्छा जताई। तब मेरे परिजनों ने मुझे बताया कि मेरी डिग्री मुझे काफी कमाऊ नौकरी दिला सकती है और मैं ऐशो-आराम की जिन्दगी जी सकता हूं। मेरे परिवार ने सवाल भी किया, "जब तुम्हारे पास व्यापार का कोई अनुभव नहीं है, तो इन झंझटों में फंसो ही क्यों?"
काम करने के दस साल के अनुभव के साथ जब फिर मैंने अपना कारोबार शुरु करने का प्रस्ताव रखा, तो मुझे आगाह किया गया कि मेरे जन्म के समय ग्रह-नक्षत्रों की जो स्थितियां थी, वह इसके लिये अनुकूल नहीं है।
मेरे परिवार की ही तरह बहुत सारे भारतीय परिवार, व्यापारिक गतिविधियों के खिलाफ होते हैं, क्योंकि वे डरते हैं कि इससे पूंजी का नुकसान तो होगा ही, उनके प्रियजन के कंगाली में फंस जाने का जोखिम भी होगा।
लेकिन राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र में कुछ समुदायों में तो परिवार ही उद्यमिता की मानसिकता और बुनियाद तैयार करते हैं। यह इत्तफाक नहीं है कि भारत के कुछ सबसे बड़े व्यापारिक घराने इन्हीं राज्यों से हैं।
एक व्यापारिक संस्थान चलाना पर्वत-चोटियों पर झंडे गाड़ने से कम चुनौती भरा नहीं होता। बीसवीं सदी के जाने-माने और प्रभावशाली अमरीकी कवि थियोडोर हुब्नर रोएथ्के ने कहा भी था, "हर पहाड़ पर रास्ते भी होते हैं, भले घाटी से ये दिखाई न देते हों।"
दरअस्ल इन्हीं पंक्तियों ने मुझे 'करेंसी कॉलोनी' लिखने के लिये प्रेरित किया।
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