प्रकाशकीय
गौरव ग्रन्थों की पंक्ति में है स्कन्दपुराण का सांस्कृतिक अध्ययन
बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित गौरव गन्थों में स्कन्दपुराण का सास्कृतिक अध्ययन का प्रकाशन महत्वपूर्ण माना जाएगा जब बाहर का सारा जीवन दीनता, पराजय, कुण्ठा, विकृति और पाशविकता का शिकार हो जाय और जो कुछ भी मानवीय हे, वह कुण्ठित और खण्डित होने को विवश हो जाये तो उस स्थिति में अपनी संस्कृति, अपने इतिहास और अपने साहित्य को और अधिक गहराई से पढ़ने ओर समझने की आवश्यकता होती है ताकि वह दृष्टि मिल सके जो मानव विरो थी भ्रष्ट व्यवरथाओं को चुनौती देती है और मनुयष्यता की आती पर विश्वास को और अधिक गहरे रूप में जमाने की प्रेरणा जीका के गहन अधकारमय क्षणों में यह सांस्कृतिक अध्ययन, कितना उजाला और कितनी शक्ति अपने पाठकों को देगा, इराका पता इस खव्य के अध्ययन के बाद ही उन्हें चलेगा, किन्तु, इसमें दो मत नहीं कि हमारी आन्तरिक संकल्प शक्ति को जगाने, हमारे खण्डित होते व्यक्तित्व और पिसती हुइ तथा क्षय होती हुई मानसिकता को नयी शक्ति देने में यह सास्कृतिक अध्ययन पूर्णत समर्थ है । सांस्कृतिक स्तर पर यह अध्ययन वैभव सपत्र करनेवाला है।
मैं लेखिका के इस कथन से पूरी तरह सहमत हूँ कि इसमें भारत की भौगोलिक स्थिति का जैसा आकलन प्राप्त होता हे, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है तीर्थों के वर्णन क्रम में सम्पूर्ण वृहत्तर भारत का सूक्ष्मतम विवेचन करने में यह पुराण अग्रणी है लेखिका की यह महत्त्वपूर्ण स्थापना है कि आज आवश्यकता है कि इस पुराण में वर्णित स्थानों को खोजा जाय, जिससे प्राचीन भारत की ऐतिहासिक एव भौगोलिक स्थिति पर पड़े हुए अनेक पर्दे दूर हो जाएँ और हमारा प्राचीन भारत हमारे सामने प्रतिबिम्बित हो सके मैं इस संबंध में यह कहना चाहूँगा कि न केवल पौराणिक साहित्य के अध्ययन की दृष्टि से, बल्कि सांस्कृतिक भूगोल के अध्ययन की दृष्टि से भी इस खव्य का अध्ययन अध्ययन उपयोगी और महत्त्वपूर्ण साबित होगा ।
संस्कृति शब्द का अर्थ साफ या परिष्कृत करना भी है हिन्दी में यह अंग्रेजी शब्द कल्चर का पर्याय माना जाता है सस्कृति शब्द मोटे रूप में दो अर्थो में प्रयुक्त है एक उसका व्यापक अर्थ है जहाँ वह नर विज्ञान से संबंधित है वहाँ संस्कृति उन समस्त सीखे हुए व्यवहार का नाम है जो सामाजिक परम्परा से प्राप्त है इस अर्थ में संस्कृति सामाजिक प्रथा (कस्टम) का पर्याय मानी जा सकती है, किन्तु, एक दूसरे अर्थ में जो इतना व्यापक नहीं है संस्कृति एक वांछनीय वस्तु है और सुसंस्कृत व्यक्ति एक श्लाघ्य व्यक्ति है । इस अर्थ में संस्कृति उन गुणों का रामन्वय है, जो व्यक्तित्व को परिष्कृत एवं समृद्ध बनाते हैं ।
डॉ० (श्रीमती) भगवती प्रसाद द्वारा प्रस्तुत यह सांस्कृतिक अध्ययन भी पाठकों के व्यक्तित्व को परिष्कृत एवं समद्ध करने में समर्थ है । इसमें संस्कृति का अर्थ चिंतन तथा कलात्मक सर्जन की वे क्रियाएँ शामिल हैं, जो सहज रूप में मानव व्यक्तित्व और जीवन को समृद्ध बनाती हैं । इस ग्रन्थ में देश के एक काल विशेष की संस्कृति से मानव जीवन तथा व्यक्तित्व के उन रूपों को समझाने की कोशिश है, जिन्हें अपने देश में महत्त्वपूर्ण, अर्थात् मूल्यों का अधिष्ठान समझा जाता रहा है ।
लेखिका ने यह प्रतिपादित किया है कि पुराणों में ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन तीन देवताओं को वस्तुत एक सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है । पुराणों में किसी एक की प्रधानता तो दिखाई गई है, परन्तु साथ हीं साथ यह भी प्रतिपादित किया गया है कि किसी न किसी रूप में अन्य दो भी उससे संबद्ध हैं और तीनों में किसी प्रकार का भेद नहीं है । भारतीय संस्कृति की एक विशेषता है समन्वय भावना जिसका परिचय इस प्रतिपादन में मिलता है। डॉ० देवराज का यह मत है कि भारतवर्ष अनेक देवी देवताओं का देश है, जहाँ धार्मिक उपासना के अनेक मार्ग एवं रूप साथ साथ प्रचलित रहे हैं । हिन्दु धर्म के अन्तर्गत अनेक दार्शनिक सिद्धान्त, अनेक उपास्य देवता एवं मोक्ष या निर्वाण प्राप्ति के लिये अनेक मार्ग (जैसे ज्ञानमार्ग, योगमार्ग भक्तिमार्ग और कर्ममार्ग) स्वीकृत किये गये हैं । सामान्य भारतीय मस्त्तिष्क इन विविध सिद्धांतों तथा मार्गो के प्रति सहिष्णु रहा है । यह सहिष्णुता एवं समन्वय भावना भारतीय संस्कृति की एक प्रमुख विशेषता के रूप में उद्घोषित हैं । स्कन्दपुराण का सांस्कृतिक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए लेखिका ने इत्र तथ्य की उगेर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है । उल्लेख्य है कि हिन्दु तथा भारतीय संस्कृति का सबसे उदार रूप संस्कृत महाकाव्यों तथा बौद्ध धर्म की शिक्षाओं में प्रतिफलित है । स्कन्दपुराण की जहाँ चर्चा हो रही है, वहाँ स्कन्ध शब्द की भी चर्चा हो तो उसे अप्रासंगिक नहीं समझा जाना चाहिए । भारतवर्ष में वैभाषिकों ने धर्मों का वर्गीकरण स्कन्ध, धातु और आयतनों में किया है । स्कन्ध विभिन्न धर्मो की राशियाँ हैं । रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान ये पाँच स्कन्ध हैं । स्कन्ध । वस्तु, इन्द्रिय और विज्ञान इन तीनों के सन्निपात रूप प्रत्यय से उत्पत्र होते है। डॉ० करूणेश शुक्ल की मान्यता है कि वस्तु, इन्द्रिय और विज्ञान इन तीनों के सन्निपात रूप प्रत्यय से उत्पन्न स्कन्ध, क्षणिक और नित्य परिवर्तनशील होते हैं । वैभाषिक बौद्ध इन पाँच स्कन्धों से व्यतिरिक्त किसी आत्मा या पुद्गल का अस्तित्व नहीं मानते । उनके मत में स्कन्ध ही व्यक्ति के जीवन और उसके व्यक्तित्व की व्याख्या करते हैं । ये स्कन्ध क्षणिक, अनित्य और जड़ होते हैं । विज्ञान भी विषय प्रतिविज्ञप्ति ही है, चेतना नहीं है । इन जड़ सकन्ध का प्राणियों के रूप में और प्राणियों का इन जड़ स्कन्धों के रूप में किश प्रकार परिपाक होता है, प्रतीत्यसमुत्पाद भारतीय दर्शन में इसी का विश्लेषण करता है ।
रूप सभी प्रकार के बाह्य विषयों के अर्थ में प्रयुक्त होता है । सभी प्रकार की कायिक या वाचिक विज्ञप्तियाँ, जिससे अविज्ञप्ति समुत्थापित होती है, रूप है । मुख, दुःख और अदु खासुख यह त्रिविध अनुभव ही वेदना है । यह छ प्रकार की बतायी गयी है, जो चक्षु आदि पाँच इन्द्रियों और मन के साथ संस्पर्श होने से उत्पन्न होती है । नीलत्व, पीतत्व, दीर्घत्व आदि विविध स्वभावों का ग्रहण ही संज्ञा है । विषयों की प्रतिविज्ञप्ति, अर्थात् सभी विषयों का ज्ञान, प्रत्येक विषय की उपलब्धि ही विज्ञान है । छ विज्ञान निकाय ही विज्ञान स्कन्ध हैं । ये हैं चक्षु विज्ञान, श्रोत्रविज्ञान, ध्राण विज्ञान, रसना विज्ञान, स्पर्श विज्ञान, मनोविज्ञान ।
लेखिका ने पुराण शब्द की त्युत्पत्ति और व्याख्याओं के अनुशीलन के प्रसंग में यह लिखा है कि जिस शास्त्र में प्राचीनकालीन तथ्यों का उल्लेख हो, उसे पुराण कहते हैं । स्कन्ध चर्चा को भी भारतीय दर्शन के पौराणिक तत्त्व के अन्तर्गत परिगणित कर सकते हैं । पौराणिक प्रसंग में इत्। दृष्टि से यहाँ उसकी चर्चा की सार्थकता है ।
लेखिका का कथन है कि प्राय सभी पुराणों में कुछ हेरफेर के साथ पाँच लक्षण या विषय उल्लिखित हैं । सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर, वंशानुचरित । सर्ग का अर्थ है सृष्टि अर्थात् ससार की उत्पत्ति । प्रतिसर्ग का अर्थ है सम्पूर्ण चराचर संसार का प्रलय । वंश का अर्थ है विभिन्न देवर्षियों एवं मानवों की उत्पत्ति परम्परा । मन्वन्तर का उार्थ है सृष्टि आदि की काल व्यवस्थाऔर वंशानुचरित का अर्थ है विभिन्न वंशों में उत्पन्न राजर्षियों, महर्षियों एव मनुष्यों का वर्णन करना । कुछ पुराण ने प्रतिसर्ग का अर्थ प्रलय न करके उसे आदि सृष्टि के अनन्तर उत्पन्न होनेवाली दूसरी अवान्तर सृष्टि को माना है । लेखिका के शब्दों में, समासत यह कहा जा सकता है कि पुराणों में संसार की सृष्टि, उसके प्रलय अथवा उसकी अवान्तर सृष्टि , विभित्र वंशों का वर्णन, विभित्र वंशों में उत्पन्न व्यक्तियों दमा वर्णन और सृष्टि से लेकर प्रलय पर्यन्त काल गणना का वर्णन मुख्य रूप से होता है ।
स्कन्दपुराण का रगंस्कृतिक उाध्ययन उनलोगों के लिये उपयोगी जट थ होगा जो भारतीय संरकृति को समझता चाहते हैं । ऐसे अध्ययन की उपयोगिता यह है कि हजारों वर्षों से एक ही भू भाग में, एक ही तरह की जलवायु तथा एक ही सामाजिक ऊँचे और एक ही आर्थिक पद्धति के भीतर जीने वाले लोगों के बीच यह अध्ययन, भाव विचार और जीवन विषयक टष्टिकोण में एक अद् धुत एकता की खोज करता है, जिसे समझ जावे पर लोगों को अलग करने का काम मुश्किल हो जाता है और इससे हमारी राष्ट्रीय एकता मजबूत होती है ।
इस विद्वतापूर्ण ग्रन्थ के लेखन के लिये मैं विदुषी लेखिका डॉ० (श्रीमती) भगवती प्रसाद को बधाई देता हूँ और आशा करता हूँ कि उनकी कि उनकी ऐसी कृतियों से सरस्वती का भण्डार भरता रहेगा ।
इस पाण्डुलिपि को उपलब्ध कराने में अजन्ता प्रोडक्ट्स के स्वत्वाधिकारी श्री गणेश कुमार खेतड़ीवाल ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है । अत वे मेरे धन्यवाद के पात्र हैं ।
अकादमी के सहायक श्री अमरेन्द्र झा, सहायक भाषाविद् श्री प्रताप नारायण, प्रशासी अधिकारी दिनेश शब्द झा, लेखा पदाधिकारी यदुनंदन जमादार, टंकक विश्वनाथ प्रसाद, महबूब हवारी ने प्रकाशन कार्य में सहयोग किया है । उन सबों को मेरा हार्दिक धन्यवाद ।आशा है, पाठकों द्वारा इस ग्रन्थ का व्यापक स्वागत होगा ।
विषय सूची
प्रथम प्रकरण
संस्कृत का पुराण साहित्य
11
पुराणों की संख्या एवं उनका प्रतिपाद्य
17
विभिन्न पुराणों में स्कन्दपुराण की स्थिति
26
स्कन्दपुराण का परिचय
27
द्वितीय प्रकरण
भारतवर्ष की भौगोलिक स्थिति
तीर्थ
95
जनपद
102
नगर
111
वन
118
पर्वत
121
नदियाँ
126
वृक्ष एवं जीव जन्तु
129
पृथ्वी की उत्पत्ति
131
तृतीय प्रकरण
भारतवर्ष का सामाजिक जीवन
वर्ण और जाति व्यवस्था
137
संस्कार (आश्रम व्यवस्था)
140
विवाह
146
नारियों की स्थिति
150
भोजन, पान एव वस्त्राभूषण
56
मनोरंजन के साधन
158
उत्सव
159
पुरुषार्थ
160
चतुर्थ प्रकरण
भारतवर्ष की शासन व्यवस्था
राजनैतिक विचार
172
राष्ट्र
राजा
174
मंत्रिपरिषद् षाड्गुण्य एवं उपाय
176
सैन्य संचालन
180
पंचम प्रकरण
भारतवर्ष की आर्थिक स्थिति
189
अर्थ का महत्त्व व्यापार
193
बाजार
196
मुद्रा
राजकीय कर
197
षष्ठ प्रकरण
भारतवर्ष के धर्म और दर्शन
वैदिक धर्म एवं अन्य धर्म
206
चार्वाक
207
जैन
बौद्ध
208
सांख्य योग
210
न्याय वैशेषिक
216
मीमांसा वेदान्त
217
सप्तम प्रकरण
शैव दर्शन और वैष्णव दर्शन में भेद तथा दोनों का सामंजस्य
शिव तत्त्व शिव तथा विष्णु का स्वरूप
227
दर्शनद्वय में भेद व सामंजस्य
230
उपसंहार
232
सहायक एवं सन्दरर्भ ग्रन्थ सूची
248
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