प्रकाशकीय
'संस्कृति' मनुष्य की सहज प्रवृत्तियों, नैसर्गिक शक्तियों तथा उसके परिष्कार की द्योतक है । जीवन का चरमोत्कर्ष प्राप्त करना इस विकास का लक्ष्य है । संस्कृति के प्रभाव से ही व्यक्ति या समाज ऐसे कार्यों में प्रवृत्त होता है जिनसे सामाजिक, साहित्यिक, कलात्मक, राजनीतिक तथा वैज्ञानिक क्षेत्रों में उन्नति होती है । प्रत्येक संस्कृति का विकास एक भौगोलिक तथा अनुवांशिक वातावरण में होता है । इसलिए प्रत्येक संस्कृति का स्वरूप भिन्न-भिन्न दृष्टिगोचर होता है। संस्कृतियों का संघर्ष, मिलन तथा आदान-प्रदान निरन्तर होता रहता है । इन प्रक्रियाओं में कभी-कभी संस्कृतियाँ एक दूसरे में विलीन भी हो जाती हैं।
भारतवर्ष एक विशाल देश है, उसकी संस्कृति, सभ्यता, भौगोलिक परिस्थितियों, ऐतिहासिक अनुभवों, धार्मिक विचारों तथा उसके आदर्शों ने उसे एकता एवं अखण्डता प्रदान की है । इन्हीं गुणों ने काल के घातक प्रहारों से भारतीय संस्कृति की रक्षा ही नहीं की है अपितु मानवता के कल्याण तथा शान्ति में भी अपना योगदान दिया है ।
'भारत का सांस्कृतिक इतिहास' पुस्तक में विद्वान लेखक डॉ.राजेन्द्र पाण्डेय ने भारत में विकसित, पल्लवित-पुष्पित विभिन्न संस्कृतियों का क्रमबद्ध विवेचन किया है । बारह अध्यायों में विभक्त इस कथ में हड़प्पा संस्कृति, वैदिक संस्कृति, मौर्यकालीन संस्कृति, शुंग सातवाहनकालीन संस्कृति, कुषाणकालीन संस्कृति, गुप्तकालीन संस्कृति तथा अन्य संस्कृतियों का परिचयात्मक विवरण भी प्रस्तुत किया गया है । साथ ही आधुनिक भारत में नवजागरण, आधुनिक भारत और पाश्चात्य सभ्यता, जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म की भी चर्चा प्रस्तुत पुस्तक में की गयी है । परिशिष्ट के अन्तर्गत उत्तर और दक्षिण भारतीय संस्कृति का सम्पर्क और भारतीय संस्कृति को दक्षिण भारत की देन, प्राचीन भारतीय शिक्षण पद्धति, सांची के महास्तूप का उद्भव और विकास के साथ-साथ हिन्दी भाषा एवं साहित्य के विभिन्न पक्षों पर भी विद्वान लेखक द्वारा प्रकाश डाला गया है । पुस्तक का तृतीय संस्करण प्रकाशित करते हुए हमें आपार हर्ष हो रहा है । आशा है कि यह संस्करण छात्रों के साथ-साथ इतिहास के शोधार्थियों व जिज्ञासु पाठकों को पूर्व की भाँति लाभान्वित करेगा ।
दो शब्द
भारत में अनेक प्रकार के भूखंड, जलवायु, जीव-जन्तु एवं वनस्पतियाँ हैं । किन्तु भौगोलिक अनेकरूपता में भी एक ऐसी प्रच्छन्न मौलिक एकता है जिसने हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक भारतीय जीवन को एक सूत्र में बाँध रखा है ।
भारतीय संस्कृति विविध सम्प्रदायों तथा जातियों के आचार-विचार विश्वास और आध्यात्मिक साधना का समन्वय है । यह संस्कृति वैदिक, बौद्ध, जैन, हिन्दू मुस्लिम और अनेकानेक संस्कृतियों के सम्मिश्रण से बनी है । धार्मिक उदारता, साम्प्रदायिक सहिष्णुता और दार्शनिक दृष्टि से भारत की अखंड संस्कृति सदा से सराही गयी है । एकेश्वरवाद, आत्मा का अमरत्व, कर्म, पुनर्जन्म, मोक्ष, निर्वाण, भक्ति, योग, बोधिसत्व का मध्यम मार्ग तथा तीर्थंकर का अहिंसा भाव आदि प्राय: सभी धर्मों की निधि हैं ।
भारत में प्रचलित विभिन्न धार्मिक संस्कार और कर्मकाण्ड में भी अनेक समानताएँ हैं । यम, नियम, शील, तप और सदाचार पर सभी का आग्रह है । ऋषि-मुनि, यति, संत-महात्मा और महापुरुषों का सम्मान तथा अनुगमन बिना किसी क्षेत्रीय भेदभाव के सर्वत्र होता है । तीर्थस्थान, पवित्र नदियाँ तथा पर्वत सम्पूर्ण भारत में फैले हैं जो ये भारत की सांस्कृतिक एकता और अखण्डता के सशक्त प्रमाण हैं ।
किसी भी राष्ट्र की मूलभूत एकता में एक भाषा, एक धर्म, एक निश्चित भौगोलिक सीमा, एक संस्कृति तथा एक धार्मिक प्रणाली आदि का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है । इतिहास यायावर जातियों की सभ्यता के विकास का कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं करता । भारत में विभिन्न संस्कृतियाँ पुष्पित-पल्लवित हुई हे, उनके इतिहास का वर्णन विद्वान लेखक डॉ. राजेन्द्र पाण्डेय ने 'भारत का सांस्कृतिक इतिहास' ग्रन्थ में किया है यह ग्रन्थ विद्यार्थियों को भारत के सांस्कृतिक इतिहास से परिचित कराने के उद्देश्य से लिखा गया है ।
डॉ. पाण्डेय की लेखन शैली और शब्द संरचना ने पुस्तक को रोचक बनाया है, जिससे पुस्तक के प्रति जिज्ञासुओं का आकर्षण भी निश्चित रूप से बढ़ा है । आशा है इस ग्रंथ के तृतीय संस्करण का भी पूर्व की भाँति स्वागत होगा ।
प्राक्कथन
संस्कृति सर्वोत्तम का प्रकाशन है । परन्तु सर्वोत्तम मिट्टी, ईट या पाषाण-खण्ड के रूप में रहकर परिमार्जित, परिष्कृत एवं संस्कृत होता है, तभी वह मूर्ति शिल्प के रूप में परिवर्तित होता है । संस्कृति सरिता का प्रवाह-मार्ग है, जो समय पर बदलता रहता है । इसीलिए संस्क्रुति को सामाजिक व्यवस्था के साथ मिला कर देखा जाता है । सस्कृति की स्रोतस्विनी अपने परम्परित मार्ग को-सामाजिक संस्थाओं को (जो कालान्तर में प्राणहीन हो जाती है) छोड़ कर बढ़ती है और नये क्षेत्रों को अभिषिक्त करती है, उसके प्रश्रय से नयी संस्थाएं विकसित और समृद्ध होती है । संस्कृति जीवन के उन समतोलों का नाम है, जो मनुष्य के अन्दर व्यवहार, ज्ञान एवं विवेक उत्पन्न करते हैं । संस्कृति मनुष्य के सामाजिक व्यव- हारों को निश्चित करती है और मानवीय संस्थाओं को गति प्रदान करती है । संस्कृति साहित्य एवं भाषा को सँवारती है और मानव जीवन के आदर्श एवं सिद्धांतों को प्रकाशमान करती है । संस्कृति समाज के भावनात्मक एवं आदर्श विचारों में निहित है । समतोलों को स्वीकार कर समाज सहस्रों वर्ष तक चलता है, तब संस्कृति महान् रूप धारण करती है । जीवन के सर्वतोन्मुखी विकास हेतु एक अपरिहार्य साधन है, संस्कृति । इन्ही तथ्यों पर आधारित है ''भारत का सांस्कृतिक इतिहास'' का प्रस्तुत प्रयास ।
प्रस्तुत पुस्तक कानपुर और आगरा विश्वविद्यालयों के बी० ए० पाठ्यक्रम के अनुसार लिखी गयी है । फलत: विषय के आलोचनात्मक निरूपण एवं सुबोध प्रस्तुति पर विशेष बल दिया गया है । उच्चस्तरीय अध्ययन के साथ-साथ मान- कीय मह्त्व दैने की दृष्टि से लेखक ने यथासम्भव मूल स्रोतों का सहारा लिया है । साथ ही छात्र-हित और उपयोगिता के विचार बिन्दुओं ने गौण साधनों, सहायक ग्रंथों की सामग्री के उपयोग का लोभ संवरण नही होने दिया है । नितान्त मौलिकता के अभाव में विद्वानों के साधुवाद से वंचित रह कर कोरे अनुकरण के परीवाद से सर्वथा दूर रहने की स्थिति मेरी निरन्तर बनी रहे, इस दृष्टि से मै सावधान रहा हूं । विस्तरणापेक्ष्य प्रसंगों में मौन रहते, अभीष्ट विस्तार में मुखर होने से बचते हुए, स्नातकीय छात्रों के लिए अभीप्सित सामग्री जुटाने का प्रयत्न सरल सुगम शैली में मैंने किया है । पादटिप्पणियों में मूलस्रोत इसलिए निर्दिष्ट हैं कि मेधावी एवं जागरूक छात्र उनका उपयोग कर सकें और ज्ञान कै नव-नव क्षितिज खुलते रहें तथा उन्हें सम्यक् दिशा बोध होता रहे । यहाँ उल्लोखनीय यह है कि विश्वविद्यालयीय पाठयक्रमों को केंद्रित रखने के कारण उनमें अन्तमुक्त विषय को पृथक्-पृथक् अध्यायों में विभक्त किया गया है । ऐसा करने से कही-कही विषय प्रतिपादन में पिष्टगेषण स्वाभाविक है । पाठ्यक्रम की आवश्यकता की पूर्ति सुचारु रूप से हो सके, इस विचार से ' 'सूफीवाद' ' के सम्बन्ध में किंचित् से लिखा गया है । इतने पर भी कुछ ऐसे विषयों को जो मूल पुस्तक में सविस्तार समाविष्ट होने से रह गये थे और जिन पर परीक्षाओं में प्रश्न पूछे जाते रहे है, परिशिष्ट मै स्थान दिया गया है ।
ग्रन्थ को सब प्रकार से छात्रोपयोगी और उपादेय बनाने का भरसक प्रयत्न लेखक ने किया है परन्तु विषय की विशदता, पुस्तक के सीमित आकार तथा स्नातकीय कक्षाओं के छात्रों को ध्यान में ररवने के कारण कुछ अभाव सम्भव है । इस पुस्तक को अधिक उपयोगी वनाने के लिए विद्वानों के जो सुझाव होंगे उनके आधार पर मैं आगामी संस्करण में संशोधन करने का प्रयत्न करूँगा ।
मैं डॉ० किरणकुमार थपल्याल, रीडर, प्राचीन भारतीय इतिहास तथा पुरातत्व विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ का ऋणी हूँ, जिन्होंने पुस्तक के पुनरीक्षक के रूप मे अनेक सुझाव दिये है । सल्तनत और मुगल- कालीन संस्कृति से संबद्ध अध्यायों हेतु जो उपक्षिप्तियाँ डॉ० सुधींद्र नाथ कानूनगो, रीडर, इतिहास विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ ने दी है, उनके लिए भी हृदय से आभारी हूँ। ग्रंथ की पाण्डुलिपि का प्रस्तुत रूप तैयार करने में जिन आत्मीयों ने आवृत्ति और व्यवस्था प्रभृत्ति में अपने ढंग से सहायता की है, वे है डॉ० शिवबालक शुक्ल, रीडर हिन्दी विभाग, श्री मोहम्मद अस्तर खान, प्राध्यापक राजनीति शास्त्र विभाग, केन-सोसायटीज़ नेहरू कालेज, हरदोई, डॉ० विनोदिनी पाण्डेय, प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, आर्य कन्या महाविद्यालय, हरदोई और श्री रवीन्द्र वाजपेयी, प्राध्यापक, अंग्रेजी विभाग, डी० बी० एस० कालेज, कानपुर ।
विषयक्रम
1
संस्कृति
2
हडप्पा संस्कृति
25
3
वैदिक संस्कृति
36
4
जैनधर्म तथ बौद्धधर्म
62
5
मौर्यकालीन संस्कृति
91
6
शुंग सात वाहनकालीन संस्कृति
116
7
कुषाणकालीन संस्कृति
133
8
गुप्तकालीन संस्कृति
143
9
सल्तनतकालीन (1206-1526) संस्कृति
196
10
मुगल कालीन संस्कृति
250
11
आधुनिक भारत में नवजागरण
299
12
आधुनिक भारत और पाश्चात्य सभ्यता
328
परिशिष्ट
उत्तर ओर दक्षिण भारतीय संस्कृति का संपर्क और भारतीय
संस्कृति को दक्षिण भारत की देन
340
प्राचीन भारतीय शिक्षण पद्धति
351
सांची के महास्तूप का उद्भव और विकास
358
हिन्दी भाषा एवं साहित्य का विकास
361
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