"यदि तुम ... आध्यात्मिकता को छोड़कर पाश्चात्य भौतिकवादी सभ्यता के पीछे जाओगे, तो इसका परिणाम यह होगा कि तुम तीन ही पीढ़ियों में लुप्त जाति बन जाओगे; क्योंकि इससे जाति की मेरुदण्ड ही टूट जाएगी, और जिस आधार पर विराट् राष्ट्रीय भवन बनाया गया है, वह नष्ट हो जाएगा; और इसका परिणाम होगा हर तरह से संपूर्ण सर्वनाश।"
1947 में जब हम विदेशी शासन से मुक्त हो गये और जैसे ही हम अपनी राष्ट्रीय नियति को अपने हाथों में लेने की स्थिति में आए वैसे ही हमने राज्य द्वारा निर्धारित समाजवाद के आदर्श को और बाद में उसी के जुड़वाँ भाई - पूँजीवाद के सुखभोगवादी आदर्श - की प्राप्ति के लिए (1990 के बाद) धीरे-धीरे उस आदर्श को त्यागकर पश्चिम की भौतिकवादी सभ्यता के प्रभाव से पूरी तरह प्रभावित होना चुना। यदि हम एक पीढ़ी की कालावधि 25 वर्ष लेते हैं और इसकी गणना वर्ष 1950 - भारत के धर्मनिरपेक्ष लोकतांतिक गणराज्य की स्थापना के वर्ष से आरंभ करते हैं तो हम न तो स्वामी विवेकानंद द्वारा लुप्त होने की अनुमानित कालावधि के पूरा होने से बहुत दूर हैं और न ही, यदि हम चीजों के विषय में एक गहरा दृष्टिकोण अपनाते हैं तो, उनके द्वारा चेताये गए परिणाम से।
हमारी सभी वर्तमान समस्याओं का मूल उस घोर मानवीय स्वार्थ में निहित है जो भौतिकवादी आदर्श की हमारी अंधी खोज के कारण उत्पन्न हो गया है या उभर कर सामने आ गया है और हमारे समस्त व्यक्तिगत और सामूहिक चिंतन, भाव और जीवन में व्याप्त हो गया है।
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