कवि का कहा: Conversations with Three Hindi Poets

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Item Code: NZD102
Publisher: National Book Trust, India
Author: मिथिलेश श्रीवास्तव (Mithilesh Srivastava)
Language: Hindi
Edition: 2014
ISBN: 9788123771250
Pages: 94
Cover: Paperback
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 140 gm
Fully insured
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Book Description

पुस्तक के विषय में

प्रस्तुत पुस्तक में अपने समय के तीन बड़े कवियों क्रमश: रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह और मंगलेश डबराल के साक्षात्कार हैं । तीनों कवि समकालीन हैं और एक समय में एक साथ काम करते हैं । तीनों कवियों ने हिंदी भाषा को पारस पत्थर की भाँति छुआ और उसे नई संवेदना का वाहक बनाया । मिथिलेश श्रीवास्तव (1958) ने पटना विश्वविद्यालय के साईंस कॉलेज से भौतिक शास्त्र में ऑनर्स की उपाधि प्राप्त की । मौलिक लेखन किसी उम्मीद की तरह पुतले पर गुस्सा (कविता-संग्रह) प्रकाशित ।

सम्मान/पुरस्कार दिल्ली की हिंदी अकादेमी के युवा पुरस्कार से सम्मानित । दिल्ली विश्वविद्यालय के कविता-मित्र से सम्मानित । फाउंडेशन सार्क आर्ट एंड लिटरेचर के 'सार्क राइर्ट्स' पुरस्कार से सम्मानित । सूरीनाम में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन (2003) में कविता पाठ के लिए आमंत्रित । 'लिखावट' नामक कविता और विचार के माध्यम से समाज में कविता के प्रसार की लगातार कोशिश । एकेडमी ऑफ फाइन आर्टस् एंड लिटिरेचर के सलाहकार कविता के अतिरिक्त मुख्य रूप से रंग समीक्षा, कला समीक्षा और सामाजिक चिंतन पर नियमित लेखन।

अपनी बात

इस किताब में हमारे समय के तीन बड़े कवियों के साक्षात्कार हैं : रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह और मंगलेश डबराल । कविताओं की दुनिया में मेरे आने के पहले से रघुवीर सहाय और केदारनाथ सिंह बड़े कवि हो चुके थे । मंगलेश डबराल के बड़े होने ही प्रक्रिया का मैं साक्षी रहा हूँ और करीब से देखा है । अपने समय को देखने का नजरिया इन तीनों कवियों का अलग-अलग है । भाषा और अभिव्यक्ति के तरीक़े में भी बड़ा फ़र्क है । कविता का शिल्प भी अलग-अलग है । रघुवीर सहाय का पूरा जोर यथार्थ की अभिव्यक्ति में है, केदारनाथ सिंह के यहाँ प्रतीकों का निषेध नहीं है और मंगलेश डबराल मनुष्य की संवेदना को ही यथार्थ के नजदीक ले जाते हैं या कहें कि संवेदना को ही प्रतीक के रूप में कविता में ले आते हैं । तीनों कवि समकालीन हैं और एक समय में एक साथ काम करते रहे । तीनों ही कवियों ने हिंदी भाषा को पारस पत्थर की तरह छुआ और उसे नई संवेदना का वाहक बनाया है । यह बात सर्वस्वीकृत है, हम सबने माना है । रघुवीर सहाय और केदारनाथ सिंह एक पीढ़ी के कहे जा सकते हैं । मंगलेश डबराल उनके बाद की पीढ़ी के हैं । उन्नीस सौ पचास के बाद के निराशा वाले समय में इन कवियों की कविता संबल का काम करती है ।

जाहिर है कविता सरीखी कला के प्रभाव को महसूस करते हुए और खुद कविता लिखते हुए उन दिनों से ही अनेक प्रश्न मेरे जेहन में रहे जिनका उत्तर मुझे चाहिए था । मैं उत्तर खोजता रहा।

जब मैं पटना विश्वविद्यालय के साइंस कॉलेज में भौतिक शास्त्र का विद्यार्थी था तब 'दिनमान' नाम की साप्ताहिक पत्रिका हम सब लोग पढ़ा करते थे और जो विद्यार्थी 'दिनमान' न खरीदता न पढ़ता, उसे बौद्धिक रूप से पिछड़ा समझा जाता । 'दिनमान' से छपी खबरों की विश्वसनीयता, ख़बरों की भाषा का असर, उसकी छाप-छपाई इन सबका हमारे लिए मायने होता। हिंदी में वही एक मात्र पत्रिका दिखती जो अंग्रेजी की पत्रिका की छुट्टी कर देती । पत्रिकाएँ संपादक के नाम से ही जानी जाती हैं । रघुवीर सहाय 'दिनमान' के संपादक थे । दिल्ली आने के बाद इस बातकी पुष्टि हुई कि दिनमान के प्रकाशन के पीछे का नजरिया रघुवीर सहाय का ही था । रघुवीर सहाय से हमारा 'दिनमान' के माध्यम से पहला अपरोक्ष परिचय हुआ । रघुवीर सहाय हमारे लिए महानायक की तरह रहे । अपने महानायक को देखने, छूने, मिलने, बतियाने की ललक मेरे मन में तभी से रही । रघुवीर सहाय दिखते कैसे हैं, सोचते कैसे हैं? यह संयोग की बात है कि अपने मित्र मनमोहन चंद शर्मा के साथ दिल्ली की हिंदी अकादेमी के तत्कालीन सचिव नारायणदत्त पालीवल से मिलने का अवसर बना । उसी मुलाकात में यह तय हो गया कि मैं अकादेमी की साहित्यिक पत्रिका 'इंद्रप्रस्थ भारती' के लिए साक्षात्कारों की एक सीरीज़ का जिम्मा लूँगा और हर अंक के लिए किसी बड़े साहित्यकार का साक्षात्कार करूँगा । बात तय हो गई और साक्षात्कारों की एक सूची आम सहमति से बना ली गई । उस सूची में पहला नाम रघुवीर सहाय का रखा गया । दूसरे स्थान पर केदारनाथ सिंह थे । उनके बाद विष्णु खरे का नाम था । चौथी बारी में नामवर सिंह से मुझे साक्षात्कार करना था । लेकिन रघुवीर सहाय और केदारनाथ सिंह से ही साक्षात्कार पूरा कर पाया कि विजयमोहन सिंह भोपाल के भारत भवन से आकर हिंदी अकादेमी दिल्ली के सचिव वन गए । शायद उन दिनों केंद्र में चंद्रशेखर की सरकार बन चुकी थी । विजयमोहन सिंह ने सचिव बनते ही जो पहला निर्णय लिया वह साक्षात्कारों की सीरीज़ को स्थगित करने का था । विजय मोहन सिंह ने कहा, ''बहुत हो गए साक्षात्कार ।'' इस वजह से विष्णु खरे का साक्षात्कार अनछपा रह गया है ।

रघुवीर सहाय प्रैस एंक्लेव वाले अपने घर में रहते थे जो मेरे पुष्वविहार वाले घर के पड़ोस में ही था । टेपरिकॉर्डर उठाया उनके घर पहुँच गया । एक कमरे में एकांत में बैठकर हमारी बातें शुरू हो जातीं । इस तरह कुछेक बैठकियों में रघुवीर सहाय का साक्षात्कार पूरा हुआ जो 'इंद्रप्रस्थ भारती' अक्टूबर-नवंबर-दिसंबर, 1990 अंक में छपा । रघुवीर सहाय का यह कहना हमेशा याद रहता है कि ' 'एक आयातित भाषा में साहित्य नहीं रचा जाता है । अपनी भाषा के अनेक रूप के साथ-साथ भारत में अनेक शब्द भाषाएँ हैं उनको भी उस कवि को जानना चाहिए जो शिल्प के प्रति सजग हैं ।''

रघुवीर सहाय की समग्र रचनावली में इन साक्षात्कारों को शामिल किया गया है । रचनावली के संपादक सुरेश शर्मा के आग्रह पर इन साक्षात्कारों को रघुवीर रचनावली मैं शामिल करने की मैंने अपनी सहमति दी थी ।

सबसे अधिक मुश्किलों का सामना मुझे केदारनाथ सिंह के साथ साक्षात्कार के समय करना पड़ा। केदारनाथ सिंह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के परिसर में उन दिनों रहा करते थे । फोन पर समय तय हो जाता । जब भी मिले चार बजे शाम के बाद ही । अपने विभाग की जिम्मेदारियों से निवृत हो वे घर लौटते और आराम कर चुके होते तो मैं पहुँचता । टेपरिकॉर्डर ऑन करता, एक प्रश्न पूछता, वे उत्तर देना शुरू करते कि निचली मंजिल से पुकारने की आवाज आती, ''मास्टर साहब, चलें ।'' यह आवाज़ मैनेजर पांडये की होती जो शाम की सैर के लिए केदारनाथ सिंह को आवाज लगा रहे होते । केदारनाथ सिंह कहते, ''मिथिलेश, किसी और दिन करेंगे ।' और मैं आज्ञाकारी अनुशासित विद्यार्थी की भाँति उठकर अपने घर चला जाता । ताज्ज़ुब करने की बात नहीं है यदि मैं कहूँ कि साक्षात्कार करीब तीस बैठकियों में पूरा हो सका था । विजय मोहन सिंह के संपादक में छपे अप्रैल-मई-जून, 1991 अंक प्रकाशित हुआ जोकि कविता अंक 1991 के नाम से भी जाना गया । 'लिखना चुप रहने के विरुद्ध एक निरंतर लड़ाई है' शीर्षक से छपे इस साक्षात्कार को केदारनाथ सिंह ने 1993 में प्रकाशित अपनी किताब 'मेरे समय के शब्द' मैं शामिल किया है । इस साक्षात्कार में रघुवीर सहाय की ही तरह केदारनाथ सिंह ने भी युवा साहित्यकारों को मार्गदर्शन करने से इंकार किया है । वरिष्ठ सहकर्मी के नाते उन्होंने सिर्फ यह कहा है कि ''युवा पीढ़ी को निर्भय होकर लिखना चाहिए ।''

मंगलेश डबराल उम्र में मुझसे लगभग दस साल बड़े हैं । उनके साथ मेरा संबंध ठीक वैसा ही रहा जैसे एक बड़े भाई साहब के साथ होता है । थोड़ा डरा हुआ सा और थोड़ी मित्रता के साथ । पुष्पविहार में हम लोग वर्षों पडोसी रहे । दुख-सुख के साथी-संगी, कई शाम एक साथ बिताने वाले । मंगलेश डबराल का व्यक्तित्व और व्यवहार इतना आकर्षक रहा है कि उनके सान्निध्य में रहते हुए मैंने कभी बोरियत महसूस नहीं की । उनकी कविता का मैं मुरिद रहा हूँ । उनको समझने की मेरी मुश्किलें इस वजह से आसान नहीं हुई थी ।

जिसे आप रोज़ देख रहे हैं, रोजमर्रा की रूटीन में देख रहे हैं, रोज के संघर्ष को देख रहे हैं, एक आम आदमी की तरह निराश होते, दुखी होते, ईर्ष्या करते देख रहे हैं, उसे उसकी कविता में सामने रखकर कैसे देखें । जिसे रोज़ देख रहे हैं, रोज़ उसकी संगति में रह रहे हैं । उसे समझना इतना मुश्किल क्यों हो रहा है । सरलता कै पीछे की जटिलता को समझना कितना ज़रूरी और मुस्किल था ।

प्रकाशन विभाग की पत्रिका 'आजकल' के संपादक उन दिनों पंकज बिष्ट (प्रताप सिंह विष्ट) थे। 'आजकल' का वे युवा लेखन अंक निकाल रहे थे । मुझे उन्होंने मंगलेश डबराल का साक्षात्कार करने का जिम्मा दिया । ''अच्छी कविता से अच्छा कुछ नहीं' शीर्षक से वह साक्षात्कार आजकल के युवा लेखन अंक में छपा । बाद में उस साक्षात्कार को प्रभात खबर ने उसी शीर्षक से 1995 के अपने दीपावली अंक में छापा था । इस साक्षात्कार में मंगलेश डबराल ने एक जगह कहा है, ''मैं मार्क्सवादी हूँ लेकिन शायद स्वतंत्र मार्क्सवादी ।'' मंगलेश डबराल कहते हैं, ''सफलता से ज्यादा जरूरी है, सार्थकता की चिंता, मैं चाहता हूँ ऐसी कविता लिखता रह सकूँ जो सत्ता और शक्ति का विरोध करती हों । इसी साक्षात्कार में मंगलेश डबराल नेकहा है कि ''मेरे मन में कविता लिखने की जबरदस्त आकांक्षा की स्थितियाँ मुझे जहाँ ले गई, मैं चलता चला गया ।''

एक स्त्री के जैसा ही एक कवि भी जीवन के यथार्थ और जीवन के रहस्य को एक साथ सँभाले रहता है । कैसे संभाले रहता है यही जानने के लिए मैंने इन कवियों के साथ साक्षात्कार का सिलसिला चलाया और कुछ हद तक जाना । इन तीनों कवियों के साक्षात्कारों को पढ़कर शायद पाठकों को इनकी कविता को समझने में मदद मिलेगी ।

कविता के विभिन्न आयामों पर शोध करने वाले छात्रों को भी इन साक्षात्कारों से मदद मिलेगी । ये साक्षात्कार कवि का कहा हुआ ही है इसलिए इस किताब का नाम मैंने 'कवि का कहा' रखा है।

राष्ट्रीय पुस्तक ट्रस्ट के निदेशक श्री एम.. सिकंदर एवं संयुक्त निदेशक डॉ. बलदेव सिंह वहन का मैं दिल से आभारी हूँ जिन्होंने इन साक्षात्कारों को पुस्तक का रूप दिया ।

 

अनुक्रम

 

अपनी बात

(v)

1

सीमित होता कविता संसार और कविता का वाचन

1

2

लिखने का कारण

10

3

वाह वाह वाले निराश हो घर जाएँ

31

4

आधुनिक कविता का वाचन कैसे हो

34

5

हिंदी कविता में आत्मदया दिखाई देती है

37

6

लिखना चुप रहने के विरुद्ध एक निरंतर लड़ाई है

40

7

अच्छी कविता से अच्छा कुछ नहीं

60

8

वे जो देखते हैं

74

9

मंगलेश डबराल : अन्याय का विरोध

76

10

और सहने की ताकत

76

11

लेखकों के सरोकार एक हैं

80

12

छोटी चीजों की मार्फत बड़ी चीजों को देखना

84

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