हिन्दी दलित साहित्य के विकास के संबंध में दो मत हैं। पहला, मराठी दलित साहित्य से प्रेरित, हिन्दी का दलित साहित्य है। इस मत पर माता प्रसाद का तर्क है : महाराष्ट्र के बाद बीसवीं सदी के सत्तर के दशक में हिन्दी में भी दलित साहित्य की शुरुआत हुई है। दूसरा, दलित साहित्य को बुद्ध, सिद्ध, नाथ, भक्तिकालीन कवियों और फूले संग अंबेदकर से जोड़ कर देखते हैं। इस मत के समर्थक जय प्रकाश कर्दम, डॉ. धर्मवीर, डॉ. तेज सिंह, ओम प्रकाश वाल्मीकी, कँवल भारती, डा. एन. सिंह आदि हैं।
महाराष्ट्र में महात्मा ज्योतिबा फूले, पंजाब में मंगूराम, उत्तर भारत में अछूतानन्द, दक्षिण भारत में नारायणा गुरु, पेरियार, ई.वी. रामास्वामी नायकर और बंगाल में चाँद गुरु आदि ने दलितों में सामाजिक सुधार और जागरण का कार्य किया। अंग्रेजों के शासनकाल में एक ओर सामाजिक जागरण की लहर थी, वहीं दूसरी ओर दलितों में जागृति लाने के प्रयास हो रहे थे। सामाजिक विषमता और शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ आवाज बुलंद हो रही थी। सामाजिक सुधार और जन-जागरण के लिए कविता, गीत और नाटक आरम्भ से ही सशक्त माध्यम रहे हैं। इन माध्यमों के द्वारा विभिन्न दलित कवियों एवं संस्कृतिकर्मियों और दलितों के कला पथिकों ने ही दलित आन्दोलन को जन-मानस में उतारा। वस्तुतः दलित नवजागरण का श्रेय लोक कवियों और गायकों को ही जाता है। इन्होंने पहचान लिया था कि लोक भाषा और लोक छन्द में लोक की पीड़ा की अभिव्यक्ति सचमुच प्रभावकारी होती है। गाना बजाना दलितों की संस्कृति रही है। इसे ही दलित मुक्ति के लिए कारगर माध्यम बनाया जा सकता है। यही नहीं, वाद्य यंत्रों के निर्माता भी दलित हो रहे हैं। आज भी तमाम वाद्य यंत्र, जिनमें जानवरों की खाल का उपयोग होता है, दलित जातियाँ ही बनाती हैं। बहुत से वाद्य यंत्रों के तो वे आविष्कारक ही हैं। यह संयोग नहीं है कि आज भी अधिकांश तबला, ढोलक और नगाड़ा जैसे वाद्य यंत्रों के वादक दलित हैं। अतः दलित आन्दोलन ने हजारों की संख्या में कवि और गायक पैदा किये। हीरा डोम इसी पृष्ठभूमि के प्रखर लोक कवि और गायक थे। सामाजिक जागरण के दौरान जिन दलित कवियों के द्वारा अपने कवि कर्म से परिवर्तनकामी चेतना के स्वर मुखर हुए उनमें हीरा डोम का विशेष महत्त्व है।
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