रचना का उद्देश्य
प्राकृत भाषा की विविधता और कालक्रमिक विकास के कारण इसका अध्ययन प्रारम्भिक काल से ही दुरूह था। प्राकृत भाषा के जो व्याकरण प्रचीन काल में लिखे गये उनमें संस्कृत की सापेक्षता इतनी गम्भीर थी कि छात्र और विद्वान् दोनों को ही बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ता था। भरतमुनि (4थी सदी ई. पू.) से लेकर चन्द्रशेखर के भाषार्णव या भाषाभेद तक के प्राकृत व्याकरण संस्कृत भाषा में लिखे गये हैं। उनमें केवल प्राकृत की ध्वनियों के परिवर्तन संस्कृत के आधार पर बता दिया। शब्दों के रूप बनाना बता दिया। बाकी की वाक्य रचना विधि, सन्धि, कारक, समास, तद्धित, कृदन्त आदि का उपयोग करके एक वाक्य कैसे बनाया जाय इस पर कोई चर्चा न करते हुए कह दिया कि संस्कृत के अनुसार जान लें (शेष संस्कृतवत्)। जिसका परिणाम यह हुआ कि आज भी छात्र इस शेष संस्कृतवत् पर कम ध्यान देता था। वह केवल ध्वनि परिवर्तन करके प्राकृत के शब्द बना लेता है, कुछ रूप जान लेता है और आगे बढ़ जाता है। उसके मन में यह तो हमेशा रहता है कि अभी उसे और भी सीखना है। अपने मन से प्राकृत में वाक्य बनाना है। वार्तालाप करना है। संस्कृत सम्भाषण की ही तरह सम्भाषण करना है। इसके लिये तो सरकार भी वित्तीय अनुदान देने को तैयार है और संस्कृत भारती की ओर से संस्कृत सम्भाषण की तरह प्राकृत सम्भाषण की कार्यशाला भी चलाई जा सकती है। केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने तो इसके लिये पाठ्यक्रम भी बना लिये हैं जो प्रकाशनाधीन है। विद्यार्थी के मन में तब भी था और अब भी है कि यदि एक ही जगह शेषं संस्कृतवत् वाले सारे व्याकरण के तत्त्व मिल जाँय तो अच्छा हो। इसी कमी को दूर करने के लिए यह प्रयास किया जा रहा है। सरल और सुबोध हिन्दी में व्याकरण के नियमों को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है ताकि विद्यार्थी को केवल प्राकृत के नियमों को ही समझने का प्रयत्न करना पड़े।
प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति-
प्रकृति शब्द में अण् प्रत्यय लगकर प्राकृत शब्द बना है जिसका अर्थ होता है- जो प्रकृति का है वह प्राकृत है (प्रकृतेः इदमिति प्राकृतम्)। इसमें सामान्यतया प्रकृति को मूल आधार मानकर उससे निकली हुई भाषा प्राकृत है ऐसा माना जाता है और वह प्रकृति संस्कृत है। इस संस्कृत में जन्मी हुई या संस्कृत से निकली हुई भाषा प्राकृत है -प्रकृतिः संस्कृतं तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम् – प्राकृत व्याकरणम् -हेमचन्द्राचार्य। (प्रकृति अर्थात् मूल भाषा संस्कृत है उसमें उत्पन्न हुई भाषा या उससे निकली हुई भाषा प्राकृत है)। प्रकृतिः संस्कृतं तत्र भवं प्राकृतमुच्यते। (मूल संस्कृत भाषा है उसमें जन्मी हुई भाषा प्राकृत है)- प्राकृत सर्वस्वम् - मार्कण्डेया प्रकृतेरागतं प्राकृतम्। प्रकृतिः संस्कृतम् (प्रकृति से आई हुई भाषा प्राकृत है और प्रकृति संस्कृत है) -दशरूपकम् - धनिका प्रकृतेः संस्कृतादागतं प्राकृतम् (प्रकृति अर्थात् संस्कृत से आई हुई भाषा प्राकृत है) - सिंहदेवगणि वाग्भटालंकार की टीका। प्रकृतिः संस्कृतम्। तत्र भवत्वात् प्राकृतं स्मृतम् (मूल भाषा संस्कृत है उसमें जन्मी होने के कारण प्राकृत कहलाती है)। -प्राकृत-चन्द्रिका। प्रकृतेः संस्कृतायास्तु विकृतिः प्राकृती मता (मूल भाषा संस्कृत की विकृति होने के कारण प्राकृत भाषा है ऐसा माना गया है)। - प्राकृतशब्द प्रदीपिका-नरसिंह। इसी प्रकार की व्याख्या बहुत से आचार्यों ने दी है। इसके विपरीत कुछ दूसरी व्याख्याएं भी हैं।
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