गत् पचास-साठ वर्षों में हिंदी सहित्य क्षेत्र में अध्ययन, अध्यापन एवं अनुशीलन की परिधियाँ बहुत ही व्यापक होती गई हैं। अतः आज आलोचना, अनुसंधान एवं इतिहास-साहित्यानुशीलन के सभी क्षेत्रों में अनेक विद्वानों के अथक परिश्रम से जो उपलब्धियाँ प्राप्त हुई हैं, उनसे हमारे अध्ययन में यथेष्ट सम्पन्नता, गहराई एवं विस्तार आया है।
ऐसे तो किसी भी कार्य के लिए परिपूर्णता का दावा करना कठिन है, मगर साहित्य के क्षेत्र में कोई नया कार्य करना और भी कठिन है, क्योंकि इसमें तो नित्य नये अनुसंधान, नई व्याख्याएँ और नए प्रयोग होते रहते हैं, नित्य नए प्रश्न तथा नई समस्याएँ उठती रहती हैं, अनेक ऐसे वाद, सिद्धांत, एवं प्रवृत्तियाँ हैं जिनके विषय में पूर्णतः प्रामाणिक एवं सर्वसम्मत निर्णय करना असंभव-सा है। फिर भी यह कहा जा सकता है कि मेरा यह शोध-कार्य इस दिशा का प्रथम प्रयास है।
तुलनात्मक साहित्यालोचन हिंदी साहित्य की मिश्रित परम्पराओं की देन है। इसमें संदेह नहीं कि यह एक साहित्यिक विधा के रूप में प्रतिष्ठित है, मगर इसमें विभिन्न साहित्यिक दृष्टियों एवं साहित्यिक बोधों का पारस्परिक द्वन्द्व प्रतिबिम्बित होता रहा है। इसी द्वन्द्व के कारण ही इसमें जटिलता आ गई है।
तुलनात्मक साहित्यालोचन के विभिन्न पक्षों के क्रमिक विकास एवं उनके अनुशीलन-अन्वेषण का कार्य करना आसान नहीं है। इन कठिनाइयों के बावजूद प्रस्तुत शोध-प्रबंध का उद्देश्य भारतीय और पाश्चात्य दोनों ही साहित्यों की विभिन्न विधाओं का विवेचन करना है, जो आसान कार्य नहीं। ऐसी स्थिति में तुलनात्मक साहित्यालोचन के विभिन्न आयामों का अध्ययन करना स्वयं में कठिनाइयों को आमंत्रित करना है। मैंने अपने इस शोध-प्रबंध में तुलनात्मक आलोचना के आधार पर साहित्य की तुलना जीवन की अन्य ज्ञान शाखाओं से की है।
प्रस्तुत् पुस्तक में निरर्थक विश्लेषणात्मक पद्धतियों एवं प्रसंगहीन शुष्क सैद्धांतिक तथ्यों से बचने का पूर्ण प्रयास किया गया है। इस ग्रन्थ में चर्चित आलोचकों का चुनाव भी इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर किया गया है तथा उनकी कृतियों के आवयविक एवं आंतरिक अध्ययन प्रक्रिया को मैंने अपनी आलोचना प्रणाली बनाई है।
साहित्यालोचन के लिए यह आवश्यक है कि साहित्य के सिद्धांतों के नियमों को अच्छी तरह हृदयंगम किया जाय, ताकि आलोचना में त्रुटि न रहने पाये।
मैंने भी अपने इस पुस्तक में इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखा कि भारत सरकार की हिंदी मानकीकरण के लिए जिम्मेवार केन्द्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा गठित विशेषज्ञों द्वारा प्रस्तावित मानक वर्तनी / शब्द का प्रयोग हो जिससे कि छात्र-छात्राएँ लाभान्वित हो।
वस्तु का मूल्यांकन करना मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति है और सौन्दर्यबोध उसका सहज संसार। यह सहज संसार ही है जिसके द्वारा उसके अनुभव रचनात्मक साहित्य के रूप में व्यक्त होते हैं और स्वाभाविक वृत्ति के कारण वह मूल्यों को आंकता है-उसकी आलोचना करता है। जिस प्रकार अनुभूति का नियंत्रण एवं सम्प्रेषण बुद्धि करती है, वैसे ही आलोचना रचनात्मक साहित्य का नियंत्रण एवं नियमन करती है। अतः साहित्यकार अनुभव करता है, आलोचक उसका अनुभावन। यही कारण है कि आलोचना सदा ही रचनात्मक साहित्य का अनुसरण करती है। पहले साहित्य की रचना होती है, तब आलोचना की, पहले वस्तु की सृष्टि होती है और बाद में मूल्याँकन की। सभ्यता के विकास क्रम में जीवन मूल्यों की भांति मानव की मूल प्रवृत्तियों में भी परिवर्तन हुआ है। मानव स्वभाव से ही संवेदनशील और जिज्ञासु है। तभी तो सृष्टि के प्रारंभ में जब उसने चारों ओर देखा तो प्रकृति और मानव तथा उनके परस्पर संबंधों के विषय में ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा उद्भूत हुई, रहस्य-दर्शन से हर्ष और विस्मय के भाव जागृत हुए तथा उन भावों की अभिव्यक्ति के लिए उसने काव्य और संगीत का सहारा लिया, फिर कालांतर में उसमें विश्लेषण की प्रवृत्ति उत्पन्न हुई और उसने काव्य के स्वरूप, प्रयोजन, मूल्यांकन आदि पर विचार किया, जिससे साहित्यिक आलोचना का सूत्रपात हुआ।
पाश्चात्य देशों में साहित्यगत उत्तमोत्तम बातों को जानना एवं समाज को उसका ज्ञान कराना ही आलोचना का मुख्य उद्देश्य माना जाता है। यों तो आलोचनाएँ भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के अनुरूप भिन्न-भिन्न प्रकार की होती हैं, परन्तु मूलतः उसका उद्देश्य एक ही होता है वह है कवि-कर्म का प्रत्येक दृष्टिकोण से मूल्यांकन कर उसे पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना तथा उनकी रुचि परिष्कृत कर साहित्य की गतिविधि निर्धारित करना।
आलोचना का उद्देश्य मात्र यही खोज करना होता है कि लेखक की कल्पना में मानव-हृदय के किस विशेष रूप ने घनीभूत होकर अपने अनंत वैचित्र्य के प्रकाश को सौंदर्य द्वारा प्रस्फुटित किया है। भाषा, रस, अलंकार आदि को परखना ही आलोचना नहीं है बल्कि लेखक की कृति में मानव-हृदय कितना और किस सौंदर्य के साथ चित्रित हुआ है, इस तथ्य का उद्घाटन करना भी आलोचना का लक्ष्य है। भारतवर्ष में राजशेखर ने अपनी "काव्य-मीमांसा में आलोचना का वास्तविक सूत्रपात किया और औचित्य-वादियों ने उसे व्यावहारिक रूप प्रदान किया। यूरोप के यूनान में साहित्य पांचवीं शताब्दी में आरम्भ हुआ।
आधुनिक युग में कला के विभिन्न रूपों की प्रचुर मात्रा में रचना हो रही है, जिसकी प्रतिक्रिया आलोचना के रूप में होती है। इस कला को सहज ज्ञान की अभिव्यक्ति भले ही न माने, परन्तु उसका प्रधान कर्त्तव्य सहज ज्ञान के विभिन्न रूपों के पारस्परिक भेद को समझना है। कला का जो सिद्धांत आलोचना के इस कार्य में सहायता नहीं देता वह उसके लिए कोई मूल्य नहीं रखता। कला को जीवन में सर्वोच्च स्थान आलोचना ही प्रदान करती है, वस्तुतः सच्ची आलोचना ही कला का प्रधान अंग है। अतएव, आलोचना कभी भी कला और साहित्य के बाहर की वस्तु नहीं है।
प्रत्येक युग में कोई-न-कोई प्रभावशाली लेखक अवश्य होता है, जो आलोचना के सघन कुहरे में पाठक को पथ-भ्रष्ट होने से बचाता है। यह स्पष्ट है कि जहाँ भावनाओं का उद्गम होता है वहीं आलोचना का भी उद्गम होता है। सृष्टि की प्रतिक्रिया का नाम ही साहित्य है और उसकी प्रतिक्रिया के मूल रूप में जो भावना निहित है, वही आलोचना है। ऐसे तो आलोचना समय-समय पर भिन्न-भिन्न रूप धारण करती रही है। भारतवर्ष की प्राचीन या मध्ययुगीन आलोचना का जो स्वरूप था उससे कहीं भिन्न आज की आधुनिक आलोचना का स्वरूप है। आधुनिक युग में जैसे-जैसे हमारा साहित्यिक इतिहास लिखा जा रहा है वैसे-वैसे आलोचना की आवश्यकता और उसकी क्षमता भी बढ़ती जा रही है। साहित्यिक प्रयोग एवं अनुशीलन, आलोचना क्षेत्र को और भी विस्तृत करते जा रहे हैं। साहित्य को सुसज्जित तथा पूर्ण, आकर्षक एवं भव्य बनाने की इच्छा से प्रेरित हो अनेक साहित्यकारों ने नवीन साहित्यिक मार्ग खोज निकाले हैं तथा अन्य नवीनतम प्रयोगों को प्रचलित करने में वे संलग्न हैं।
आज देश में साहित्यिक दायित्व के साथ-साथ आलोचना का भी दायित्व बढ़ता जा रहा है। अंग्रेजी साहित्य में तो आलोचना और आलोचकों की महत्ता अन्य सदेशों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण दिखाई पड़ रही है। यह सही है कि आलोचना के इतिहास में ही साहित्य और कला का इतिहास निहित है, लेकिन इस प्रकार का महत्वपूर्ण अधिकार आलोचना को अभी-अभी ही प्राप्त हुआ है। इसका यह अर्थ नहीं कि आधुनिककाल के पूर्व आलोचना थी ही नहीं। पहले भी आलोचना थी और पर्याप्त रूप में थी, परन्तु न तो उसका विस्तार निश्चित था, न उसकी नवीन परिभाषाएँ बन पाई थीं, न तो उसे अपने विशिष्ट स्वत्वों का ही ज्ञान था और न अपने दायित्व और महत्त्व का ही पूर्ण ज्ञान, किन्तु पिछले बीस-तीस वर्षों के अंतर्गत आलोचना संसार में यकायक क्रान्ति आ गई। साहित्य की विविध विधाओं की शैलियों की भांति आलोचना की शैली में भी अंतर दिखाई देता है, विशेष रूप से श्रेष्ठ आलोचकों की आलोचना-शैली में यह अंतर और भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।
कुछ साहित्यकारों ने तो प्राचीन सिद्धांतों का सूत्र, रूप में प्रयुक्त न कर उन्हें वेद वाक्य समझा तथा उन्हीं के सहायता से वे साहित्य का मूल्याँकन भी करने लगे। इन सब आलोचनात्मक कार्यों का परिणाम यह हुआ कि अनेक भ्रामक सिद्धांतों का निर्माण हुआ जिनका आधुनिक साहित्य पर विशेष रूप से प्रभाव पड़ा। इसी कारण से अंग्रेजी साहित्य के सत्रहवीं और अट्ठारहवीं शती में आलोचना की रूपरेखा विकृत रही। लेखक मनमाने ढंग से प्राचीन मनीषियों की कृतियों का अनुवाद करते रहे तथा उन्हीं के सिद्धांतों को साहित्य रूप में प्रयुक्त करते रहे, किन्तु भाग्यवश उस समय कुछ ऐसे आलोचकों का पदार्पण हुआ जो आलोचना-सिद्धांतों को समयानुकूल परिवर्तित करते रहे जिससे आलोचना को विशेष क्षति नहीं हो पाई। इस विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि आधुनिक आलोचना सिद्धांतों को सही-सही जानने के लिए प्राचीन आलोचना परंपरा एवं प्राचीन आलोचकों तथा उनके साहित्य-सिद्धांतों का परिचय प्राप्त करना अत्यावश्यक है।
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