पुस्तक के विषय में
'डबरे पर सूरज का बिंब' हिन्दी के महान रचनाकार मुक्तिबोध की प्रतिनिधि गद्य रचनाओं का अनूठा संकलन है । सामान्यतया लोग मुक्तिबोध की चर्चा कवि के रूप में करते हे, किंतु तथ्य यह है कि इन्होंने गद्य भी विपुल मात्रा मैं लिखा है । ध्यातव्य है कि छह खंडों में प्रकाशित रचनावली के मात्र दो खंड कविताओं के हैं, शेष चार खंडों के सतरह सौ से अधिक पृष्ठों में कहानियां, निबंध, आलोचना, डायरी, पत्र, राजनीतिक लेख आदि है । मानवीय अस्तित्व के जिन निजी और सामाजिक प्रश्नों के साथ, कला और साहित्य-सृजन के सवालों की पड़ताल के लिए मुक्तिबोध को मार्क्सवाद से ठोस आधार पर प्राप्त हुआ था, उसी प्रखर वैचारिक पृष्ठभूमि पर अंतहीन जिरह के दौरान इन्होंने जीवन और सृजन के प्रश्नों का परीक्षण अपनी गद्य रचनाओं में किया है। ये गद्य एक सच्चे रचनाकार के आत्म संघर्ष, जीवन संघर्ष और सृजनात्मक संघर्ष के प्रमाणिक दस्तावेज हैं। चयनकर्ता ने बड़ी सावधानी से इनकी रचनाओं का चयन निबंध, समीक्षाएं, कहानियां, डायरी, मूल्यांकन और राजनीति विषयक लेख से किया है और इसी तरह छह खंडों में इसे रखा है। मुक्तिबोध जैसे महान रचनाकार की विराट रचनादृष्टि को एक किताब में पूरी तरह जुटाना असंभव है पर इतना तय है कि यह पुस्तक, मोटे तौर पर पाठक को मुक्तिबोध के पूरे जीवन-दर्शन और रचना-फलक का परिचय देगी ।
हिन्दी कविता के क्रांतिकारी कदम तार सप्तक के कवि और इन गद्य रचनाओं के लेखक गजानन माधव मुक्तिबोध (1917-1964) का जन्म श्योपुर (ग्वालियर, मध्य प्रदेश) में एक संपन्न कृषि परिवार में हुआ था । साहित्य का संस्कार इन्हें मां से प्राप्त हुआ । विभिन्न स्थानों से शिक्षित-दीक्षित होने के बाद आजीविका के लिए इन्होंने स्कूल, कॉलेज में अध्यापन के साथ विभिन्न स्थानों पर विभिन्न नौकरियां की, पत्रकारिता भी की और वायु सेना में नौकरी भी । वे कई पत्रिकाओं से संबद्ध रहे ।
भूमिका
हमारे समय के प्रतिबद्ध कवि मुक्तिबोध ने स्वयं कहा है, ''मैं मुख्यत: विचारक न होकर केवल कवि हूं । किंतु आज का युग ऐसा है कि विभिन्न विषयों पर उसे भी मनोमंथन करना पड़ता है।'' 'मनोमंथन' शब्द का प्रयोग अनायास नहीं हो गया है। यह मुक्तिबोध की कविताओं का ही नहीं, उनकी चिंतन-प्रक्रिया और गद्य लेखन का भी, सबसे महत्वपूर्ण उत्स है। हमारे युग की प्रखर महाकाव्यात्मक लंबी कविता 'अंधेरे में' के कवि मुक्तिबोध के व्यापक गद्य-संसार में काव्य और सभ्यता की समीक्षा के कई स्तरों को देखा जा सकता है । ''हम केवल साहित्यिक दुनिया में ही नहीं, वास्तविक दुनिया में रहते हैं। इस जगत में रहते हैं ।'' मुक्तिबोध का यह सूत्र उनके समग्र सौंदर्यशास्त्रीय तथा समाजपरक चिंतन की प्रथम कुंजी है। यह वास्तविक दुनिया निम्न मध्यवर्ग और उत्पीड़ित जनों का वह इलाका है, जहां से मुक्तिबोध ने जीवन-विवेक प्राप्त किया और इसी जीवन विवेक पर उनके साहित्य विवेक की अधिरचना टिकी हुई है। मानवीय अस्तित्व के निजी और सामाजिक प्रश्नों के साथ ही कला और साहित्य-सृजन के सवालों की पड़ताल के लिए मार्क्सवाद से उन्हें ठोस आधार प्राप्त हुआ था। इसी प्रखर वैचारिक पृष्ठभमि पर अंतहीन जिरह के दौरान मुक्तिबोध ने जीवन और सृजन के प्रश्नों का परीक्षण किया है। ऐसा करते हुए उन्होंने अपनी गद्य रचनाओं में दोहरे स्तर पर कार्य किया। एक स्तर पर वे अपनी ही सृजनात्मक समस्याओं से जूझते उनका हल खोजते दिखाई देते हैं और दूसरे स्तर पर अपने निजी अनुभवों को सामाजिक अनुभवों से पुष्ट करते हैं। इसे ही मुक्तिबोध आत्मचेतस् से विश्वचेतस् होने की प्रक्रिया कहते हैं। मुक्तिबोध, जीवन को त्रिकोणात्मक मानते हैं। इस त्रिकोण की एक भुजा हमारा अंतःकरण, दूसरी बाह्य संसार और तीसरी हमारी चेतना की आधार-रेखा है । बाहरी जगत और जीवन के आभ्यंतरीकरण के जरिए व्यक्ति अपनी जीवन दृष्टि और वर्ग चेतना को व्यापक सामाजिक धरातल पर विकसित करने में समर्थ होता है । हम देखते हैं कि मुक्तिबोध का द्वंद्वात्मक चिंतन सौंदर्यशास्त्र और जीवन संघर्ष के स्तरों पर एक साथ सक्रिय रहता है । अपने निजी मध्यवर्गीय अस्तित्वमूलक जीवन संघर्षों और सृजनात्मक प्रश्नों से जूझते हुए मुक्तिबोध इस संघर्ष को जिस विकलता के साथ सामाजिक धरातल और संघर्ष से एकाकार संकलक चंद्रकांत देवताले (07-11-1936) हिन्दी के प्रख्यात कवि हैं । विश्वविद्यालय अध्यापन से सेवा-निवृत होने के पश्चात फिलहाल स्वतंत्र लेखन से जुड़े हैं। 'मुक्तिबोध फेलोशिप', 'माखनलाल चतुर्वेदी कविता पुरस्कार', 'मध्य प्रदेश शासन शिखर सम्मान' आदि कई पुरस्कारों से सम्मानित चंद्रकांत देवताले की लगभग दर्जन भर पुस्तकें प्रकाशित हैं। कविता लेखन के अतिरिक्त समय-समय पर वैचारिक लेख भी लिखते रहे हैं।
करते हैं वह विलक्षण है। अपनी अशांत प्रकृति के चलते उनके लिए उपलब्ध तैयारशुदा मूल्यों और परिपाटियों के जखीरे पर निर्भर रहना संभव ही नहीं था। पूर्वज्ञात सत्य और पूर्व-निश्चित निषेध की सुविधाजनक प्रवृत्ति के विरुद्ध वे अन्वेषण की प्रणाली में यकीन रखते हैं। इसीलिए उनका गद्य एक सच्चे रचनाकार के आत्मसंघर्ष, जीवन-संघर्ष और सृजनात्मक संघर्ष का प्रामाणिक दस्तावेज बन गया है। ऐसा दस्तावेज जो अपने समय की साहित्यिक हलचलों और सामाजिक विवादों से समृद्ध है। अपनी मार्क्सवादी आस्था, गहरी प्रतिबद्धता और प्रखर मूल्य चेतना के अतिरिक्त मुक्तिबोध एक ऐसी नैतिकता के तहत साहित्यिक विमर्श में शामिल होते हैं जौ अमूर्त मानवतावादी नैतिकता नहीं है। वे चीजों, तथ्यों, रिश्तों और शब्दों तक कै वर्गीय चरित्र को पहचानने में चूक नहीं करते हैं।
मुक्तिबोध का समग्र साहित्य 'मुक्तिबोध रचनावली' छह खंडों में प्रकाशित है। दो खंडों मे उनकी दिक्काल को नापती, व्यग्र करती और सांप के काटे अपने जमाने की पड़ताल करती प्रदीर्घ कविताएं हैं। चार खंडों में सत्रह सौ से अधिक पृष्ठों में फैली उनकी विपुल गद्य संपदा है। अपनी कभी खत्म न होती पुकारती कविताओं की तरह उनका गद्य भी विस्मयकारी है । गद्य में उनका कवि और जीवन उसी तरह परिलक्षित होता है जैसै कविताओं मै वर्गापसरण के लिए व्यग्र उनका समाज चेतस् विचारक ।
मुक्तिबोध के गय, जिसमें कहानियां-लेख-निबंध-आलोचना-डायरी-खत आदि शामिल हैं, का रचना काल लगभग वही है जो उनकी कविताओं का। यानी यही 1936 से 1964 के मध्य । लगभग तीन दशकों की सृजनावधि, 47 वर्ष का आयुष्य और निरंतर जीवन-संघर्ष के दौरान कुछ न कर पाने के अहसास के बावजूद मुक्तिबोध का जीवन और सृजन, चे गुएवारा के इस कथन को चरितार्थ करता है कि ''एक क्रांतिकारी चेतना वाले मनुष्य की नियति एक साथ बेहद गौरवशाली तथा अतिशय यंत्रणादायिनी होती है ।''
अपने सत्तर से अधिक निबंधों मे जो सैद्वांतिक और आलोचनात्मक दोनों ही प्रकार के हैं, मुक्तिबोध ने साहित्य की कार्यपरकता और प्रयोजनशीलता पर अनेक तरह से विचार किया है। साहित्य के दृष्टिकोण, समाज और राजनीति से साहित्य का रिश्ता, जनता का साहित्य, मार्क्सवाद और साहित्य जैसे विषयों पर विचार करते हुए उत्पीड़ित जन और उनका कष्टमय जीवन उनकी दृष्टि से कभी ओझल नहीं हुआ। काज को सांकृतिक प्रक्रिया मानते हुए मुक्तिबोध समाज वैज्ञानिक स्थापनाओं से जुड़ते हैं। इस प्रकार वे अपने चिह्न मैं 'विश्लेषणात्मक संश्लेषण और संश्लेषणात्मक विश्लेषण'। की पद्धति से साहित्य के अध्ययन को मानव सत्ता के अध्ययन की तरह आंकते हैं । 'एक साहित्यिक की डायरी' मुक्तिबोध की ऐसी रचना है जो न तो तिथिवार डायरी की तरह लिखी गई है, न उसकी विधा को पारिभाषित करना आसान है।
इसमें कहानी, निबंध, आलोचना, विवाद, संस्मरण औंर आत्म-विश्लेपण-सब कुछ मौजूद है । डायरी के पृष्ठों में सृजन-प्रक्रिया, कलात्मक मान्यताएं, सौंदर्य-मीमांसा, फैंटेसी-शिल्प के गंभीर विश्लेषण के साथ ही रचनाकार की ईमानदारी और दायित्व-चेतना जैसे सवालों पर गहरी प्रतिबद्धता और निजता के साथ मुक्तिबोध ने संवाद किया है । मुक्तिबोध ने लिखा है कि 'सच्चा लेखक अपने खुद का दुश्मन होता है। वह अपनी आत्म-शांति को भंग करके ही लेखक बना रह सकता है।'' मुक्तिबोध की डायरी जी हमारे समय के जटिल प्रश्नों का दस्तावेज है, इसे प्रमाणित करती है । मुक्तिबोध ने जहा एक ओर तुलसी, कबीर के संदर्भ में मध्ययुगीन भक्ति काव्य का परीक्षण किया वहीं उन्होंने आधुनिक कवियों और अपने समकालीनों पर भी समीक्षाएं लिखी हैं। किंतु स्वच्छंतावादी काव्य-धारा के प्रमुख स्तंभ जयशंकर प्रसाद से उनकी मुठभेड़ अभूतपूर्व है। प्रसाद के महाकाव्य 'कामायनी' पर मुक्तिबोध ने स्वतंत्र पुस्तक के रूप में विस्तार से पुनर्विचार किया। साहित्यिक, दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक व्याख्याएं इस महाकाव्य को जिस दृष्टि से साहित्यिक कृति के रूप में परिभाषित करती रहीं, उससे हटकर मुक्तिबोध ने इसे एक विशाल फैंटेसी के रूप में समझा और कामायनीकार के वर्गीय चरित्र के .आधार पर युग-जीवन के परिप्रेक्ष्य में इसका आकलन किया। इस द्वंद्वात्मक विधि से किए परीक्षण के आधार पर 'कामायनी' के संदेश की अकर्मक अगतिकता उजागर हुई। ऐसा नहीं है कि मुक्तिबोध ने 'कामायनी' के महत्व को समग्रत: नकार दिया है । उनके अनुसार 'कामायनी' में पलायनवाद-आदर्शवाद और आत्मग्रस्तता के वे भटकाव हैं, जिनके चलते महाकाव्य के महान कृति होने में अवरोध उपस्थित हुए ।
मुक्तिबोध का मनोमंथन उनकी कहानियों में मध्यवर्गीय जीवन के रोजमर्रा की जद्दोजहद और उनके संघर्ष कै रूप में प्रकट हुआ है । लगभग पच्चीस कहानियां हैं उनकी, जिनमें कुछ अपूर्ण भी हैं। वे मुख्यत: कवि थे और कहानियां कम ही लिखते थे । दरअसल उनकी कहानियां भी अभिव्यक्ति की व्यग्रता का परिणाम हैं । कभी-कभी लगता है, कविता ही कहानी के फार्म में रूपांतरित हो गई है । इन कहानियों में जहां जीवन की समान्य समस्याएं हैं वहीं जटिल वैचारिक प्रश्नों से मुठभेड़ भी है । 'काठ का सपना' और 'पक्षी और दीमक' जैसी कहानियों में मध्यवर्गीय जीवन की त्रासदी और विडंबना है जहां विवशता और असंतोष का कोई अंत नहीं । 'पक्षी और दीमक' कहानी में व्यक्ति को भ्रष्टाचार की सत्ता का अहसास होता है और आत्म-संशोधन की परिणति तक पहुंचता है । 'क्लाड ईथरली' मुक्तिबोध की प्रभावी कहानी है । फैंटेसी और यथार्थ में रची-बसी अणु युद्ध का विरोध करती यह कहानी एक तर्कसंगत अंत तक ले जाती है।
निबंध, कहानी, डायरी और समीक्षा के अलावा भी मुक्तिबोध ने गद्य लिखा है और वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है । उनकी एक पुस्तक 'भारत : इतिहास और संस्कृति' मध्यप्रदेश सरकार द्वारा 1962 में प्रतिबंधित कर दी गई थी और इस घटना से मुक्तिबोध अत्यधिक आहत भी हुए थे। वैसे यह पुस्तक राज्य के विद्यालयों के लिए पाठ्यपुस्तक के रूप में लिखी गई थी ओर स्वयं मुक्तिबोध इसे अपनी मौलिक रचना नहीं मानते थे । लगभग एक वर्ष बाद उच्चतम न्यायालय ने विवादास्पद और आपत्तिजनक अंशों को हटाकर पुस्तक को पुन: प्रकाशित करने की छूट दे दी थी । यह पुस्तक...राजकमल पेपरबैक्स (मुक्तिबोध रचनावाली, खंड छह) के प्रथम संस्करण 1985 में शामिल है।
अध्ययन, लेखन, अध्यापन के साथ ही पत्रकारिता के क्षेत्र में भी मुक्तिबोध सक्रिय रहे । 'भारतीय आत्मा' माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा संपादित साप्ताहिक 'कर्मवीर' में सन् 1937 से राष्ट्रीय-अंतर्राष्टीय सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखना प्रारंभ किया और यह सिलसिला नागपुर में रहते (1958) तक जारी रहा। पत्रकार के रूप में 'कर्मवीर' के अतिरिक्त 'सारथी' में वे नियमित लिखते रहे और 'नया खून' में तौ काय भी किया । 'नया खून' मैं उनके संपादकीय का उनके पाठकों को इंतजार रहता था। कभी अनाम तो कभी योगंधनारायण, अवंतीलाल गुप्त, विंध्येश्वरी प्रसाद, अमिताभ आदि छद्म नामों से प्रकाशित उनके लेखों में उस दौर की देश-दुनिया की राजनीति की उनकी गहरी समझ के साथ एक प्रतिवद्ध लेखक का दृष्टिकोण भी उजागर होता है। इस प्रसंग के भी तीन लेख संकलन में शामिल हैं। इन लेखों के अतिरिक्त मुक्यिबोध द्वारा मित्रों को लिखे पत्रों की बड़ी संख्या है। इन पत्रों मैं भी उनका चिंतक और कवि बोलता है। जीवन-जगत और साहित्य-संस्कृति के प्रति उनकी चिंता और उनका पक्ष साफ-साफ प्रकट हुआ है। इस संकलन में पाठ्य-पुस्तक होने के कारण 'भारत इतिहास और संस्कृति' तथा संदर्भो की समस्या के कारण पत्रों में से चयन नहीं किया गया है।
प्रकट है कि मुक्तिबोध के प्रतिनिधि गद्य का चयन ही अपने आप में एक दुष्कर कार्य इस रूप मैं था कि क्या चुना और क्या छोड़ा जाए। फिर एक सीमा भी रही जिसके कारण कई महत्वपूर्ण रचनाओं का समावेश संभव नहीं था। फिर भी यह आशा करना अनुचित नहीं होगा कि नेशनल बुक ट्रस्ट की योजना और आकांक्षा के अनुरूप यह प्रतिनिधि चयन एक महत्वपूर्ण भारतीय सर्जक के रूप में मुक्तिबोध जैसे संघर्षशील रचनाकार को समझने में सहायक होगा। नैशनल बुक ट्रस्ट द्वारा वाङ्मय और ज्ञान के प्रसार और विनिमय के लिए व्यापक स्तर पर अनुवाद और अन्य श्रृंखलाओं के प्रकाशन के क्रम में मुक्तिबोध के गद्य का इस रूप में बडे पाठक समाज तक पहुंचना भी विशेष अर्थ रखता है।
विषय-सूची
1
सात
2
निबंध
3
साहित्य के दृष्टिकोण
4
साहित्य में सामूहिक भावना
8
5
जनता का साहित्य किसे कहते हैं?
12
6
मध्ययुगीन भक्ति-आदोलन का एक पहलू
17
7
काव्य की रचना-प्रक्रिया : एक
27
काव्य की रचना-प्रक्रिया : दो
34
9
काव्य एक सांस्कृतिक प्रक्रिया
49
10
वस्तु और रूप
59
11
नई कविता निस्सहाय नकारात्मकता
68
नई कविता का आत्म-संघर्ष
73
13
मार्क्सवादी साहित्य का सौंदर्य पक्ष
82
14
समीक्षाएं
91
15
शमशेर मेरी दृष्टि में
93
16
अंधा-युग : एक समीक्षा
103
सुमित्रानंदन पंत एक विश्लेषण
107
18
अंतरात्मा की पीड़ित विवेक-चेतना
119
19
कहानियां
127
20
ब्रह्मराक्षस का शिष्य
129
21
समझौता
136
22
पक्षी और दीमक
149
23
क्लॉड ईथरली
163
24
काठ का सपना
174
25
सतह से उठता आदमी
179
26
डायरी
199
डबरे पर सूरज का बिंब
201
28
तीसरा क्षण
206
29
एक लंबी कविता का अंत
228
30
मूल्यांकन (कामायनी : एक पुनर्विचार)
239
31
प्रथमत:
241
32
ग्यारहवां अध्याय
253
33
अंतत:
257
अन्य राजनीति विषयक लेख
263
35
पश्चिमी राष्ट्रों की लंगड़ी नीति
265
36
पश्चिमी एशिया में अमरीका
269
37
भारत का राष्ट्रीय संग्राम
273
38
परिशिष्ट
277
39
मुक्तिबोध का प्रकाशित साहित्य
279
40
मुक्तिबोध का संक्षिप्त जीवन-वृत्त
280
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