भाषा, वर्णों से निर्मित एक जगत् है, जो प्रत्यक्ष जगत् जैसा ही विशाल एवं विस्तृत है। इस जगत् का लक्ष्य है, 'ज्ञान-प्रदान' करना। इसलिए इसे 'ज्ञान-जगत्' भी कहा जा सकता है।
ज्ञान या भाषा-जगत् की सभी वस्तुएँ शब्द रूप हैं और प्रत्यक्ष जगत् उनका अर्थ। शब्दों के आधार पर ही हम प्रत्यक्ष जगत् का ज्ञान अर्जित करते हैं और उनके द्वारा 'वाक्य' के रूप में विचारों का आदान-प्रदान। शब्द एवं वाक्य, वर्णजन्य हैं, इसलिए वर्ण ही ज्ञान के बीज हैं।
द्रष्टा की दृष्टि से प्रत्यक्ष संसार 'ज्ञानमय' है, अर्थात् नाना प्रकार के ज्ञान एवं विज्ञान से परिपूर्ण है। ज्ञान की सत्ता द्रष्टा पर निर्भर है। यदि कोई द्रष्टा न हो, तो संसार भले ही रहे, उसके ज्ञान की सत्ता जाती रहेगी। 'ज्ञान' की दृष्टि से ही द्रष्टा, 'ज्ञाता' कहा जाता है और दृश्य जगत् 'ज्ञेय' बन जाता है। ज्ञान चेतन सत्ता सापेक्ष है। फलतः मनुष्य ऐसे चेतन प्राणी को ही ज्ञान की आवश्यकता है, और वही 'ज्ञाता' के रूप में 'ज्ञेय' सृष्टि का ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ है।
जगत् का प्रत्यक्ष ज्ञान हमें ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से होता है। ज्ञानेंद्रियों से प्राप्त ज्ञान वाणी हीन है। 'शब्द' या 'नाम' का कलेवर पाकर ही इंद्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान, 'ज्ञान' की संज्ञा ग्रहण करता है। यदि शब्द न हो तो वह निराकार ही रह जायेगा।
'शब्द' या 'नाम' इंद्रियों द्वारा अर्जित ज्ञान के ध्वन्यात्मक प्रतीक हैं। ज्ञान के प्रतीक के रूप में ही 'शब्द' जगत् की वस्तुओं का बोध कराते हैं। इस प्रकार भाषा-जगत्, 'द्रष्टा दृश्य तथा ज्ञान' सभी का प्रकाशक है।
वर्णों का समुदाय वर्ण-माला है। वर्ण-माला वस्तुतः किसी भाषा की आधारभूत ध्वनियाँ हैं। वर्ण-माला का अध्ययन शब्द-शास्त्र का एक आवश्यक एवं गहन विषय है। प्रस्तुत कृति में इसी विषय पर विचार किया गया है।किसी शास्त्रीय विवेचन का लक्ष्य है पूर्ण एवं स्पष्ट बोध। इस बोध की कसौटी है, लेखक का स्वयं अपने निष्कर्षों से संतुष्ट होना। यदि वह स्वयं संदेह में हो, तो दूसरों को संदेह रहित ज्ञान नहीं दे सकता।
'स्पष्ट बोध' एक क्रमिक बोध प्रक्रिया है। उदाहरण एवं उद्धरण द्वारा, जिज्ञासा-जन्य शंकाओं का समाधान करते हुए, निष्कर्ष की चोटी के दर्शन होते हैं। ज्ञानार्जन की यही प्रक्रिया स्पष्ट बोध है।
वर्ण-माला एवं लिपि की पूर्णता के कारण हिंदी विश्व की श्रेष्ठ एवं सरलतम भाषा है। लेकिन वर्तमान काल में व्याकरण या शास्त्रीय ज्ञान की उपेक्षा के कारण उसका वैज्ञानिक स्वरूप विनष्ट होता जा रहा है। आजकल शास्त्रीय अज्ञानता के कारण 'तत्त्व' को 'तत्व', 'सत्त्व' को 'सत्व', 'महत्त्व' को 'महत्व', आदि तो लिखा ही जा रहा है, प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाएँ 'शृंगार' को 'श्रृंगार', 'शृंखला' को 'श्रृंखला' ऐसा रूप प्रदान कर हिंदी की शुद्धता को विनष्ट कर रही हैं। वैज्ञानिक युग में वर्तनी की ये भूलें मात्र हमारी अज्ञानता ही प्रदर्शित करती हैं। ये भूलें भाषा का गौरव नहीं, दुर्भाग्य है।
किसी समय 'व्याकरण या भाषा-शास्त्र' वेद के छह अंगों में एक प्रमुख अंग माना जाता था, लेकिन हिंदी में उसकी महत्ता निरंतर घटती जा रही है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, श्री श्याम सुंदर दास, पं. रामचंद्र शुक्ल आदि ने भाषा के परिमार्जन का जो प्रयास किया था, वह पं. कामता प्रसाद 'गुरु' के 'हिंदी व्याकरण' के पश्चात् जैसे महत्त्वहीन हो गया हो, क्योंकि वर्तमान समय में भाषा-शिक्षण के किसी स्तर पर व्याकरण की ओर पूरा ध्यान नहीं दिया जाता।
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