शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय ऐसे रचनाकारों में से हैं जिनके साहित्य में तात्कालीन समाज का यथार्थ चित्र मिलता है। वे मूलतः बाग्ला-भाषी थे और उन्होंने अपना सम्पूर्ण साहित्य बांग्ला में ही लिखा। इसके बावजूद वे बंगाल के ही नहीं, भारत के हैं।
शरत्चन्द्र सजग एवं प्रगतिशील कथाकार हैं। उनके कथा साहित्य के केन्द्र में बंगाली मध्यवर्ग और उसकी समस्याएँ हैं। इसके अलावा उन्होंने मजदूरों और किसानों तथा स्त्रियों की कशमकश भरी ज़िन्दगी एवं बेहाल स्थिति का मार्मिक चित्र खींचा है। शरत्चन्द्र ने अपने समाज की समस्याओं जैसे दहेज प्रथा, जाति-प्रथा, धार्मिक आडम्बर, आर्थिक विषमता एवं सामंती मूल्यों आदि का मुखर विरोध किया और एक समता मूलक समाज के निर्माण की वकालत की है।
उनके साहित्य में यदि सामाजिक एवं धार्मिक रूढ़ियों के प्रति गुस्सा है, तो मानवीय रिश्तों एवं व्यैक्तिक आशा-आकांक्षा तथा टूटन आदि का भी भावुकतापूर्ण चित्रण है।
कथाकार शरत्चन्द्र रवीन्द्रनाथ टैगोर (बांग्ला) और प्रेमचन्द (हिन्दी) के समकालीन ठहरते हैं। उनकी रचनाओं पर तात्कालीन राष्ट्रीय नव- जागरण और स्वतन्त्रता संघर्ष का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। शरत्चन्द्र के उपन्यासों में बंकिम और रवीन्द्र के समान राष्ट्रीयता की गूँज तो नहीं है, लेकिन उस समय के समाज, परिवार और घर का वास्ताविक चरित्र जरूर मिलता है। कारण, यही कि जब तक हम समाजिक एवं परिवारिक रूढ़ियों से मुक्त नहीं होते, तब तक राष्ट्र की मुक्ति बेमानी साबित होगी ।
भारतीय नवजागरण की शुरूआत सबसे पहले बंगाल में हुई। अतः परिस्थितियों के चलते सर्वप्रथम बंगाल में ही मध्यवर्ग का उदय होता है । वह अपने पुराने संस्कारों की वजह से अपनी भूमिका स्पष्ट नहीं कर पा रहा था। शरत्चन्द्र के साहित्य में यही बंगाली भद्र अथवा मध्य वर्ग है। इनकी रचनाओं के पात्र पढ़े-लिखे होने के बावजूद अपनी पारम्परिक सामंती मानसिकता एवं जातिगत रूढ़ियों में जकड़े हुए हैं। शरत्चन्द्र के अनेक किरदार इन्हीं सामाजिक रूढ़ियों से लड़ते जूझते हैं।
शरत्चन्द्र के अधिकांश पात्र सचेत, प्रगतिशील और अपने समय से आगे के है. खास करके स्त्री पात्र! इनके स्त्री पात्रों की तुलना हम कथाकार जैनेन्द्र कुमार (हिन्दी) और कुर्रतुलऐन हैदर (उर्दू) के नारी पात्रों से कर सकते हैं। शरत् की नायिकाएँ-उपनायिकाएँ अपने हकों को जानती - पहचानती हैं और उन्हें पाने के लिए संघर्ष भी करती हैं। गौरतलब है कि ये वो समय है, जब न तो बंगाल में और न ही हिन्दी पट्टी में स्त्री विमर्श जैसी कोई चीज़ थी, जो उन्हें (शरत् के नारी पात्रों को) अपने अ - धिकारों के प्रति चेताती फिरती।
लेखक अपने साहित्य में समस्याओं का चित्रण ही नहीं, उनके कारणों की तलाश भी करता है। लेखक की नज़र में समाज के अधिकांश समस्याओं की जड़ आर्थिक विषमता है। इसी कारण तह अपनी रचनाओं में इसका विरोध करता है। शरत् के अनेक पात्र गरीबी एवं उपेक्षा की जिन्दगी जीते हैं और उनके आपस के सामाजिक संबंध भी प्रभावित होते हैं। समाज में व्याप्त आर्थिक विषमताओं की वजह से किसान और मजदूर ही नहीं, सामान्य मध्यवर्गीय परिवार को भी मानसिक प्रताड़ना एवं भेदभाव का सामना करना पड़ता है। इसीलिए शरत्चन्द्र ने अपने उपन्यासों में सामंती एवं महाजनी व्यवस्था का पुरजोर विरोध किया है।
शरत्चन्द्र के उपन्यासो में 19वीं 20वीं शताब्दी के संकम्रकालीन समाज की तस्वीर उभर कर आई है। उनके कथा साहित्य के पात्रो में एक ओर सामंती मूल्यों के प्रति मोह, तो दूसरी ओर उन्हें तोड़ने की ललक भी है।
संक्षेप में, शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय ने अपने कथा साहित्य में मानवीय रिश्तों एवं भावनाओं का मार्मिक चित्रण करने के साथ-साथ तात्कालीन सामाजिक रूढ़ियों एवं समस्याओं के उठाया है। वे हर जगह सामंती मूल्यों के दरकिनार करके प्रगतिशीलता का पक्ष लेते हैं। शरत् अपने समकालीन रचनाकारों में सबसे अधिक सजग एवं प्रगतिशील दिखते हैं, विशेषकर भावालोक के चित्रण में! अतः शरत्चन्द्र का साहित्य आज भी प्रासांगिक है।
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