"राजा के लिए प्रजा के सुख से भिन्न अपना कोई सुख नहीं है, प्रजा के सुख में ही उसका सुख है।"
आचार्य चाणक्य के उपुर्यक्त उद्घोष में उनकी समग्र विचारधारा समाहित है। भारतीय राजनीतिक इतिहास में आचार्य चाणक्य का अप्रतिम योगदान है। उनके चर्तुमुखी व्यक्तित्त्व को अभिव्यक्ति देने वाले उनके तीन नाम प्रसिद्ध हैं-विष्णुगुप्त, कौटिल्य अथवा कौटल्य और चाणक्य। वास्तविक नाम तो उनका विष्णुगुप्त था, उनके कुटिल स्वभाव के कारण सम्भवतः कौटिल्य नाम प्रसिद्ध हुआ और चणक के पुत्र होने के कारण उनका नाम चाणक्य भी प्रसिद्ध हुआ।
नालन्दा विश्वविद्यालय से शिक्षित इस सच्चे ब्राह्मण का मुख्य कार्य अध्यापन था तथा शस्त्र एवं शास्त्र के ज्ञाता एवं शिक्षक के रूप में इसे पर्याप्त ख्याति प्राप्त हुई। नन्दवंश का विनाश करके मौर्यवंश की स्थापना कर इसने चन्द्रगुप्त मौर्य को सर्वविध शिक्षा-दीक्षा देकर भारत का सम्राट बनाया था।
"अर्थशास्त्र" की रचना करके विश्व के श्रेष्ठ चिन्तक, चाणक्य ने राजशास्त्र का सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ रचने का गौरव प्राप्त किया। वह राजतन्त्र का पक्षपाती था, किन्तु राजा की निरंकुशता के विरूद्ध था। अर्थशास्त्र के सम्बन्ध में कौटिल्य ने स्पष्ट कहा है-
"आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति ये चार विद्याएं हैं। विद्या वह है जिसमें धर्म व अर्थ का परिज्ञान और सिद्धि हो, किन्तु इसमें दण्डनीति सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि अन्य विद्याओं का मूल दण्डनीति में ही है और सम्पूर्ण सांसारिक जीवन दण्डनीति पर ही अंकित है।"
इस आधार पर चाणक्य का मुख्य उद्देश्य यह कहा जा सकता है कि किसी भी शासक के शासनकाल में प्रजा का किसी भी प्रकार से उत्पीडन न हो, शोषण न हो। अत्याचारी राजकर्मचारियों को उनके कार्य में उपेक्षा या असाव रानी करने पर तदनुरूप दण्ड का विधान चाणक्य ने किया है। इस उद्देश्य से उसने अर्थशास्त्र में "कण्टकशोधन" नामक एक विस्तृत अध्याय लिखा है।
एक दूरदृष्टा, यथार्थवादी विचारक और व्यावहारिक राजनीतिज्ञ के रूप में पर्याप्त ख्याति उसे प्राप्त थी। कठोर, अनुशासन प्रिय तथा चन्द्रगुप्त जैसे वैभवशाली सम्राट का गुरू और मन्त्री चाणक्य अपने आप को भी एक सम्राट् के समान राजसी सम्पदा का उपभोक्ता बना सकता था, किन्तु इसकी ओर उसका तनिक भी रुझान नहीं था। मुद्राराक्षस नाटक में विशाखदत्त ने उसकी वीतरागता का वर्णन इस प्रकार किया है-
"कुटिया के एक ओर गोबर के उपलों को तोड़ने के लिए पत्थर पड़ा हुआ था, दूसरी ओर विद्यार्थियों द्वारा लाई गई लकड़ियों का गट्ठर पड़ा हुआ है, सुखाने के लिए रखी गई लकड़ियों के बोझ से छत दबी जा रही है और इसकी दीवार भी जीर्ण दशा में है।"
सांसारिक बन्धनों से मुक्त निष्काम चाणक्य शासन कला तथा कूटनीति का सबसे महान् प्रतिपादक कहा जा सकता है। उसके समक्ष पूर्ववर्ती समस्त विचारध गाराएँ नगण्य हो गई थीं। वह अपनी योजना के प्रत्येक पक्ष पर गम्भीरता से विचार करता था। यही कारण है कि उसकी सभी योजनाएं पूर्णरूप से सफल भी होती थीं। वह पुरुषार्थ में दृढ़ता से विश्वास रखता था। उसके अनुसार तो मूर्ख ही भाग्य का आश्रय लेते हैं।
डॉ. रामरतन पाण्डेय (डी.लिट्, संस्कृत) ने "संस्कृत साहित्य में चाणक्य-चरित्र का विकास" (पीएच.डी. का शोध-प्रबंध) नामक प्रस्तुत ग्रन्थ में चाणक्य चरित्र के समग्र पक्षों का, उसके ज्ञान का, उसके ऐतिहासिक एवं राजनीतिक व्यक्तित्व का समग्र विवेचन भली-भांति किया है, अतः और अधिक कहना पिष्टपेषण होगा। ग्रन्थ के प्रकाशनार्थ डॉ. पाण्डेय को स्नेहपूर्ण बधाई।
छात्रों तथा शोधार्थियों के लिए बहुपयोगी यह ग्रन्थ विद्वज्जगत् में भी पर्याप्त समादृत होगा-ऐसी आशा करती हूँ।
१९७६ में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के पश्चात् हमारे प्रिय मित्र प्रो. इन्द्रमोहन सिंह (सेवानिवृत्त, विभागाध्यक्ष पंजाब विश्वविद्यालय, पटियाला (पंजाब)) से शोधकार्य करने की प्रेरणा मिली। तत्काल इस दिशा में प्रयास प्रारंभकिया। आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी के निर्देशन में प्रथम शोध छात्र के रूप में मेरा पंजीयन हुआ। इसे मैं अपना सौभाग्य समझता हूँ। आचार्य राधावल्लभत्रिपाठी ने संस्कृत साहित्य में चाणक्य चरित्र का विकास शोध कार्य के लिए विषय दिया। इस विषय पर शोध कार्य करना मेरे लिए दुरुह कार्य था। बैंक सर्विस (इलाहाबाद बैंक) में आने के कारण शोध कार्य के लिए समय देना एक चुनौती थी। तथापि मैंने प्रयास जारी रखा और निरन्तर गुरुजी के सम्पर्क में रहा और सन् १९८२ ई. में संस्कृत विभाग डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर से शोधोपाधि प्राप्त की। मेरी व्यस्तता और अनदेखी से "संस्कृत साहित्य में चाणक्य" नामक ग्रन्थ ठण्डे वस्ते में पड़ा रहा। बल्कि इसके पूर्व मेरा डी.लिट. का शोध-प्रबंध "अनुपलब्ध संस्कृत रूपक" सन् २००० ई. में प्रतिभा प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित हो चुका है। बैंक से सेवानिवृत्त के उपरान्त आचार्य त्रिपाठी जी के सत्परामर्श से संस्कृत विभाग के शोधग्रन्थों की समीक्षा का कार्य रहा हूँ। मेरे इन दोनों कार्यों में आचार्य त्रिपाठी जी की ही प्रेरणा का परिणाम है कि यह ग्रन्थ आपके हाथ में है।
प्रस्तुत पुस्तक को पूर्ण करने में कई लोगों का सहयोग मिला। संस्कृत विभाग के तत्कालीन अध्यक्ष आचार्य रामजी उपाध्याय का वरदहस्त एवं स्नेह मेरे ऊपर रहा। इसलिए आचार्य उपाध्याय जी के चरण कमलों में प्रणामांजलि समर्पित करता हूँ। इस कार्य में विशेष सहयोग मिला हमें दर्शनशास्त्र के टंकण कला विशेषज्ञ स्व. श्री रामनारायण सोनी जी का, हमारी धर्मपत्नी श्रीमती निशा पाण्डेय का, हमारी सहशोधछात्रा श्रीमती मालती तिवारी का तथा अनुजवत् पं. श्री प्रभात चौबे (पूर्व पार्षद परकोटा) का, चारों लोगों ने हमारे साथ लगभग २ माह तक रात-रात भर कार्य किया। मैं इन चारों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ।
संस्कृत विभाग के शिक्षकों का समय-समय पर सहयोग मिलता रहा है, उनमें प्रो. कुसुम भूरिया दत्ता, प्रो. ए.पी. त्रिपाठी, डॉ. किरण आर्य, डॉ. नौनिहाल गौतम, डॉ. शशि कुमार सिंह, डॉ. संजय कुमार, डॉ. रामहेत गौतम के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना अपना कर्तव्य समझता हूँ।
ग्रन्थ के पाठ संशोधन एवं प्रकाशन में डॉ. ऋषभ भारद्वाज का अविस्मरणीय योगदान रहा है। वे हमारे शिष्यवत्, पुत्रवत् स्नेह के अधिकारी है। उन्हें मेरा शुभाशीष है। वे ऐसे ही सदैव सुरभारती की सेवा में संलग्न रहें। प्रकाशक श्री आर.डी. पाण्डेय को साधुवाद के पात्र हैं जिन्होंने बड़ी तत्परता से ग्रन्थ को प्रकाशित किया।
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