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मध्यहिमालय पुरातत्व एवं सांस्कृतिक पर्यटन- Central Himalaya Archaeological and Cultural Tourism

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Item Code: HBB542
Author: Devkinandan Dimri
Publisher: Kaveri Books
Language: Hindi
Edition: 2024
ISBN: 9789386463296
Pages: 148 (Color and B/W Illustrations)
Cover: HARDCOVER
Other Details 9.5x6.5 inch
Weight 400 gm
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100% Made in India
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23 years in business
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Book Description
पुस्तक परिचय

हिमालय पर्वत शृंखलाओं के मध्य स्थित भू-भाग जिसे मध्यहिमालय अथवा उत्तराखंड के रूप में पहचाना जाता है, अपने समृद्ध अतीत की अनंत गाथा को अपने परिवेश में समेटे अपनी समृद्ध यात्रा का साक्षी रहा है। विभिन्न चरणों से प्राप्त पुरावशेष एक लम्बे कालखंड में इस क्षेत्र के समग्र इतिहास एवं संस्कृति के मूक साक्षी रहे हैं। मध्यहिमालय न केवल देवभूमि अपितु पवित्र नदियों के उद्गम स्थल लिए भी विश्व विख्यात है।

प्रस्तुत ग्रन्थ के माध्यम से पुरावेत्ताओं द्वारा निरंतर किये गए शोध को एक सूत्र में पिरोकर इतिहास के विभिन्न कालखंड का सजीव चित्रण करने का प्रयास किया गया है। पुरावशेषों के अध्ययन के साथ-साथ इस क्षेत्र में स्थित प्रसिद्ध धार्मिक तीर्थों का वर्णन भी इस आशय से किया गया है जिससे पाठक पुरातत्व एवं इस भू-भाग के सांस्कृतिक पर्यटन से भी अवगत हो सके। वस्तुतः प्रस्तुत पुस्तक अपने अतीत को अपनी सरल भाषा में अपने लोगों तक पहुँचाने का एक सूक्ष्म प्रयास है।

लेखक परिचय

डा. देवकीनंदन डिमरी ने गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर गढ़वाल से प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व में स्नात्तकोत्तर की उपाधि प्राप्त की एवं भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, नई दिल्ली से पुरातत्व में स्नात्तकोत्तर डिप्लोमा प्राप्त करने के पश्चात सन 1984 में पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग में सहायक पुराविद के पद पर सेवा प्रारम्भ की। आपने कुमायूं विश्वविद्यालय से मानद उपाधि प्राप्त की तथा टुरीनो विश्वविद्यालय, दुरीनो, इटली से विश्वदाय सांस्कृतिक संम्पदा प्रबंधन विषय पर उच्च शिक्षा ग्रहण की। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग में विभिन्न पदों पर कार्य करते हुए डा. डिमरी सन 2019 में संयुक्त महानिदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए। अपने सेवाकाल में डा. डिमरी ने विभागीय कार्यों के सफल निष्पादन हेतु अनेक देशों की यात्रा की जिनमें अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, कनाडा, बुल्गारिया प्रमुख हैं। डा. डिमरी द्वारा लिखित पुरातत्व के विभिन्न विषयों पर राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक लेख प्रकाशित हुए हैं। आपके द्वारा लिखित दो पुस्तकें प्रथम कुम्भलगढ़: दि प्राइड ऑफ महाराणा ऑफ मेवाड़ एवं दूसरी 'गोपेश्वर दि मिरर ऑफ आर्ट ऑफ उत्तराखंड हिमालया' प्रकाशित हुई हैं।

आभार

प्रस्तुत आलेख में मध्यहिमालय में पुरातत्व के क्षेत्र में अभी तक किये गए शोधकार्यों का विश्लेषण एवं उनके विधिवत संकलन के साथ इस क्षेत्र के सम्पूर्ण इतिहास को एक सूत्र में पिरोने का प्रयास किया गया है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण में कार्य करते समय पहली बार यह आभास हुआ कि मध्यहिमालय के पुरातत्व को सरल भाषा में संकलित कर एक सामान्य पाठक वर्ग तक पहुँचाया जाए जो अभी तक समग्र रूप में उपलब्ध नहीं है। सन 2008 में देहरादून में यूनेस्को (पेरिस) द्वारा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण एवं वन्य जीवन संस्थान के सहयोग से संयुक्त अधिवेशन आयोजित किया गया जिसमें देश एवं विदेश से आये विद्वानों की जानकारी हेतु मध्यहिमालय के पुरातत्व पर अंग्रेजी भाषा में एक संक्षिप्त पुस्तिका का प्रकाशन किया गया। सौभाग्य से मेरे गुरु प्रोफ. माहेश्वर प्रसाद जोशी, जिनके निर्देशन में मैंने पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की, तत्कालीन समय में संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार के अधीन संचालित स्मारक एवं पुरावेश राष्ट्रीय मिशन परियोजना से संबंधित थे तथा मंडल कार्यालय से जुड़े थे जिनके सहयोग से उक्त पुस्तिका का प्रकाशन संभव हो पाया। उसी समय से मन में यह विचार था कि जनसंपर्क की भाषा में इस लघुपुस्तिका को विस्तृत रूप में लिपिबद्ध किया जाए ताकि मध्यहिमालय के पुरातत्व के शोध संकलन को क्रमबद्ध किया जा सके एवं जनसामान्य को इस क्षेत्र के अतीत की तथ्यात्मक जानकारी सुलभ हो सके। प्रस्तुत आलेख उसी विचार का परिणाम है जिसके प्रणेता निःसंदेह प्रोफ जोशी हैं।

प्रस्तावना

भारतीय उपमहाद्वीप को मध्य एशिया और तिब्बत से विभाजित करने वाली लगभग 2400 किलोमीटर लम्बे क्षेत्र में फैली हिमालय पर्वत श्रृंखलाएं आदिकाल से ही न केवल सामरिक अपितु मानव जीवन की उत्पत्ति एवं निरंतर विकास यात्रा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही हैं। तीन समानांतर रूप से विस्तृत इन पर्वत श्रृंखलाओं में सदैव बर्फ से ढकी सबसे ऊंची चोटियां जिसे महान अथवा ग्रेटर हिमालय के नाम से जाना जाता है, भारतीय भू- भाग और मध्य एशिया के बीच न केवल एक मजबूत सुरक्षा दीवार के रूप में स्थिर है अपितु विभिन्न नदियों का उद्गम स्थल होने के कारण न केवल मध्यहिमालय एवं शिवालिक पर्वत श्रृंखलाओं अपितु मैदानी भू-भाग में बसे प्राणियों के जीवन यापन का मुख्य श्रोत रही हैं। देवों के देव महादेव एवं अनेक ऋषि मुनियों की तपस्थली के रूप में प्रसिद्ध ये पर्वत श्रृंखलाएं अनवरत काल से अध्यात्मिक केंद्र का प्रतीक रही है जो भारतीय समाज के जीवन मूल्यों के सिद्धांत में प्रकृति और मानव के आपसी सामंजस्य के महत्व को प्रदर्शित करती हैं।

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