आचार्य वराहमिहिर ने देश-काल और परिस्थितियों को देखते हुए अनेकानेक जनोपयोगी ग्रन्थों का प्रणयन किया। बृहत्संहिता अथवा वाराहीसंहिता तो रचनाकाल से ही इतनी लोकप्रिय हुई कि उसने लोकव्यापक पुराणों के स्वरूप पर भी पुनर्विचार को प्रेरित किया और वे विषय पुराणों के अन्तर्गत समाविष्ट हुए। ज्योतिषियों ने वराहमिहिर के विषयों को लेकर पृथक् पृथक् स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना की। यह प्रभाव 10वीं शताब्दी से तो देशव्यापी देखने को मिलता है, दक्षिण भी अछूता नहीं रहा। आगमों तक वह प्रभाव देखने में आता है। उसके मतों का विकास-विस्तार भी होता गया। उसकी इन पंक्तियों ने समय-समय पर मनीषियों को प्रेरित किया कि लेखक, अध्येता, शिक्षक और बहुश्रुत विद्वानों के मुख से प्राप्त ज्ञान को एकत्र आबद्ध करते समय विद्वानों के प्रति राग-द्वेषादि भावों का त्याग होना चाहिए, अतएव मेरे द्वारा ग्रन्थ में किसी कारण या प्रमादवश जिन विषयों का समावेश नहीं किया गया या जो विषय भूलवश छूट गए हों, उन विषयों को समय-समय पर मात्सर्य रहित होकर विद्वज्जन परिमार्जित-परिवर्धित करते रहेंगे-ग्रन्थस्य यत्प्रचरतोऽस्य विनाशमेति लेख्याद्बहु श्रुतमुखाधिगमक्रमेण । यद्वा मया कुकृतमल्पमिहाकृतं वा कार्यं तदत्र विदुषा परिहृत्य रागम् ॥'
महायात्रा या बृहद्यात्रा ग्रन्थ को लेकर मेरे मन में बहुत उत्सुकता थी। पंचसिद्धान्तिका, बृहज्जातक का अध्ययन और बृहत्संहिता एवं समाससंहिता पर कार्य करते समय मुझे यह पता चल गया था कि वराहमिहिर का यात्रा विषय पर कोई ग्रन्थ रहा है। इसकी पुष्टि शंकर बालकृष्ण दीक्षित की पुस्तक ' भारतीय ज्योतिष' और पं. सुधाकर द्विवेदी सम्पादित 'बृहत्संहिता' की भट्टोत्पलीय विवृत्ति ने की; लेकिन बल्लालसेन के 'अद्भुतसागर' में उसके एकाधिक नामों के प्रयोग से अनेक आशंकाएँ भी खड़ी हो गईं। योगयात्रा प्राप्त हुई किन्तु 'लघुयात्रा' और 'बृहद्यात्रा' की मुझे सूचना भर थी। विशेषकर, श्रीपति भट्टाचार्य की 'ज्योतिषरत्नमाला' का सम्पादन करते समय मुझे पादटिप्पणियों के लिए ये ग्रन्थ अति आवश्यक लग रहे थे।
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