भारत को जानना, भारत को पहचानना, भारत को मानना, भारत का होना, का बनना और भारत को बनाना - यह सबकुछ वास्तविक भारत की पहचान पर ही निर्भर है। भारत और भारतीयता अमूर्त अवधारणा न होने के बाद भी अत्यंत विस्तारित संप्रत्यय है। यह संप्रत्यय विश्व के अनादि इतिहास में क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर, दोनों ही रूपों में इतना विस्तारित है कि इसकी एकरूप व्याख्या संभव नहीं है। यह भारत की ज्ञान-संबंधी उस मूल मान्यता से समझा जा सकता है, जिसे 'एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति' के रूप में जाना गया है। ज्ञात इतिहास के हर कालखंड में भारत को भारतवर्ष के रूप में, भरत-खंड के रूप में, जंबूद्वीप के रूप में, कर्मक्षेत्र के रूप में अभिहित करने, विवेचित करने के बहुशः प्रयास हुए हैं।
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब पूरी दुनिया में सभी प्रकार की राष्ट्रीयताओं को कुछ पहचान चिह्नों और परिभाषाओं के माध्यम से समझने की कोशिश प्रारंभ हुई और राष्ट्र की अवधारणा राज्य की सीमा में पर्यवसित होने लगी, तब भारत में राष्ट्र-राज्य की अवधारणा में एक चैतन्य राष्ट्र की अवधारणा को विकसित करने का एक पर्यावरण निर्मित किया। ऐसे में भारत को समझने की बहुविध कोशिश दिखाई देती है। बीसवीं शताब्दी के सभी महान् चिंतकों, जो भारतीय विचारणा के प्रतिनिधि हैं, ने भारत को जानने या भारतीयता को पहचानने के यत्न किए। इनमें रवींद्रनाथ टैगोर, महात्मा गांधी, महर्षि अरविंद, आनंद कुमारस्वामी, डॉ. संपूर्णानंद, माधवराव सदाशिव गोळवलकर सहित जाने कितने लोग भारतीयता का अपने-अपने दृष्टि से एक वितान प्रस्तुत करते हैं। किसी ने भारत को इतिहास की धारा में खोजने की कोशिश की है तो किसी ने राष्ट्र के स्वरूप को चैतन्य प्रकाश के रूप में देखने और जानने का यत्न किया है तो कोई इसे नई राजनैतिक रचना के रूप में देखता है।
वस्तुतः बीसवीं शताब्दी में भारतीयता को पहचानने के यत्न, 'नदिया एक- कूल बहुतेरे' की अवधारणा पर आधारित है। बीसवीं शताब्दी का भारत मातृभूमि के रूप में भारतमाता की प्रतिष्ठा करता हुआ दिखाई देता है।
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