सिनेमा का चिंतन एक ऐसे परिप्रेक्ष्य का चिंतन है, जिसमें कल्पना, फंतासी और यथार्थ का सम्मिश्रण है। निश्चित रूप से कलात्मकता एवं सृजनात्मकता इसके औजार हैं। चित्र, छवि तथा रूप को माध्यम बनाकर सिनेमा ने परिवेश और समाज के निर्माण में सकारात्मक भूमिका निभाई है।
1913 से 2013 तक भारतीय सिनेमा की यात्रा विभिन्न सोपानों से होकर गुजरी। देश परतंत्र था, सिनेमा ने स्वच्छन्द चेतना की अलख जगाई। जब राष्ट्र पराधीनता की दुर्दमनीय स्थिति से साक्षात्कार कर रहा था भारतीय सिनेमा आदर्श, उपदेश, धर्म का अंकन कर लोगों में जीने की चाह बनाये रखने का प्रयास कर रहा था। भारतीय सिनेमा अपनी उपस्थिति से भारतीय संस्कृति के रूपक को धार देना चाह रहा था। उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, स्वतंत्रता, जिजीविषा का समन्वित रूप बनकर भारतीय सिनेमा ने नये लोक में प्रवेश किया।
आस्वाद का संस्कार कर और संस्कार को आधुनिकता के साँचे में ढाल कर भारतीय सिनेमा ने विभिन्न वादों को अपने तरीके से प्रस्तुत किया। विश्व- बंधुत्व, मानवता, धर्म, संस्कृति इसके मूल अंकन में रहे रहे तो तो यथार्थवाद, उत्तर आधुनिकता, लोकप्रिय संस्कृति ने उसे मनोरंजन का सस्ता माध्यम बना दिया। भारत के दृढ़ चारित्रिक मानस को सेक्स, हिंसा और खुलेपन की चाशनी में लपेटकर कई बिंबों में प्रकट किया गया। सरहदों को तोड़ सिनेमा एशियाई संस्कृति का संस्करण वन वैश्विक पटल पर उभरा और उसने अपनी छवि का निर्माण किया। जहाँ हॉलीवुड की फिल्में कॉफी टेबल से शुरू होकर, स्नूकर और विलियर्ड के बोर्ड पर ऊँचाई पाती थी और सिगरेट के कुछ छल्लों से होते हुए बंदूकों की आवाज के साथ समाप्त हो जाती थी वहाँ भारतीय सिनेमा मूल्यों की छटपटाहट का, भारतीयता की खोज का प्रयास करता रहा।
धर्म, अध्यात्म, उपदेश, मूल्य जैसे विषय भारतीय सिनेमा के प्रारंभिक विषय रहे क्योंकि जनमानस विदेशी प्रभुत्व के मध्य अपनी देशजता के साथ आत्मबल को बनाए रखने वाली औषधि की तलाश में था।
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