सदियों से भारत में बहुभाषिकता का प्रचलन रहा है यह बात अब सर्वजनविदित है। वाणिज्य और अर्थ-व्यवस्था की दृष्टि से जो देश बहुत आगे बढ़ गए हैं ऐसे देशों के निवासियों के लिए भारत की बहुभाषिकता अभी भी पहेली जैसी ही है। उनके देशों में अनेक नस्ल के लोग अपने गीत-संगीत, खाना-खजाना, वेश-आभूषण तथा रहन-सहन को लेकर आते रहे हैं, पर कुछ ही समय में उनका अपनत्व विलीन हो जाता है। अतः उनके लिए भारत में एक साथ अनेक भाषाओं का इस कदर सदियों से कथित, पंडित, प्रस्फुटित रह पाना एक अजीबो-गरीब मिराल जैसा है जिसकी व्याख्या दे पाना मुश्किल काम है। पर किसी भारतीय की रोज़मर्रे की जिन्दगी की ओर अगर हम गौर करें तो यह देखेंगे कि वह एक ही साथ प्रतिदिन अलग अलग काम में पृथक पृथक् परिस्थितियों में मिन्त्र निन्न भाषा का प्रयोग करता है। अगर हम देखते हैं कि कोई चाय के बगीचे में मज़दूरों के साथ बिहारी बोलियों में, उनके संचालकों के साथ असमिया में, दफ्तर में अंग्रेजी में और मनोरंजन के लिए फिल्म तथा टी.वी. में हिंदी का व्यवहार करता है और घर में अपने लोगों के साथ बंगला में बात करता है तो हमें ऐसी स्थिति में कोई अस्वाभाविकता नज़र नहीं आती है। यहाँ न केवल व्यक्ति बहुभाषी है, भाषिक स्थितियों में भी बहुभाषिकता ग्रथित है। वह तभी संभव हो सकता है जब किसी मुल्क में भाषाएँ जोड़ने का काम करती हैं, तोड़ने का नहीं। लोग अक्सर यह मूल जाते हैं कि भारत में आए, बसे और जन्मे हजारों क्षेत्र के लोगों के लिए उनकी भाषाएँ ही वह साधन रही है जो एक दूसरे को आपस में जोड़ती रही हैं।
भारतीय भाषा संस्थान इसी भाषिक संयोग को, आदान-प्रदान को बर्करार रखने में और इसमें और इजाफा करने के काम मे अपने को समर्पित करता आया है। आधुनिक भारतीय भाषाओं के शिक्षण-प्रशिक्षण का क्षेत्र इस संस्थान के लिए सब से महत्वपूर्ण क्षेत्र रहा है। यहाँ से प्रकाशित पाँच सौ पचास के करीब किताबों में से आधी से ज़्यादा भाषा-शिक्षण के क्षेत्र में ही हो रही हैं।
जैसा कि भारतीय भाषा के अध्ययन-अध्यापन से जुड़े लोगों को पता ही है, 1969 में स्थापित होने के बाद से भारतीय भाषा संस्थान का मुख्य उद्देश्य रहा है सभी भारतीय भाषाओं का विकास करना एवं उनमें आवश्यकतानुसार पाठ्य सामग्री तैयार करना। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए मुख्य भारतीय भाषाओं के अलावा बहुत सी जनजातीय भाषाओं पर भी शोध हो रहा है और उनमें पाठ्य सामग्री तैयार की जा रही हैं। इसके अतिरिक्त त्रिमाषा सूत्र के अंतर्गत भारतीय भाषा संस्थान के मैसूर, पूणे, भुवनेश्वर, पाटियाला, सोलन, लखनऊ एवं गुवाहाटी में स्थित क्षेत्रीय भाषा केंद्रों के माध्यम से प्रति वर्ष जुलाई से अप्रैल तक भारत के विभिन्न राज्यों के अध्यापकों को उनकी इच्छानुसार अथवा संबंधित राज्य की भाषा प्रणाली के अंतर्गत वांछित भाषाओं में दस मास का गहन प्रशिक्षण दिया जाता है। इस प्रशिक्षण के उपरांत ये अध्यापक सीखी गई भाषा को संबंधित राज्यों के विद्यालयों में पाठ्यक्रम के अंतर्गत अथवा ऐच्छिक विषय के रूप में पढ़ाते हैं।
पर अब तक द्वितीय भाषा शिक्षण की जितनी अच्छी किताबें आती रही है खास तौर पर भारतीय भाषाओं के सीखने सिखाने की किताबें वे सभी अंग्रेज़ी के माध्यम से ही रची-बनी छपी-छपाई गई हैं। उनके रचयिता और प्रकाशक शायद सोचते हैं कि अंग्रेज़ी के माध्यम को अपनाने से द्वितीय भाषा शिक्षण और विदेशी भाषा शिक्षण दोनों के लिए उनकी किताबें प्रयोग में आ सकती हैं। सोचा होगा कि इस तरह से ऐसी किताबें बाज़ार में खरी उतरेंगी। लेकिन दक्षिण एशियाई देशों में बसे और यहाँ के किसी न किसी भाषा को मातृभाषा के रूप में बोलने वालों के लिए किसी भारतीय भाषा को सीखना और इसके दायरे के बाहर के लोगों के लिए हमारी भाषाओं पर अधिकार प्राप्त करना दो बिलकुल अलग शिक्षण-प्रक्रियाएँ हैं। अतः इन दोनों लक्ष्य-गोष्ठियों के लिए दो अलग तरह की सामग्री की आवश्यकता है। एक और कदम आगे जा कर अपने लंबे तजुर्बे से मैं यह भी कह सकता हूँ कि अगर किसी भारतीय को एक अन्य भारतीय भाषा सिखानी है तो वह काम अगर एक भारतीय भाषा के जरिये ही अच्छी तरह की जा सकती है। उस लिहाज से माध्यम भाषा के रूप में हिंदी का नाम आना स्वाभाविक है कारण इसको मातृ-भाषा तथा अन्य-भाषा के रूप में बोलने-जाननेवाले भारतीय लोगों की संख्या इतनी बड़ी है कि भारतीय संदर्भ में हिंदी के माध्यम से अन्य अनुसूचित भाषाओं को सिखाने की वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत सामग्री अब तक क्यों नहीं आयी थी, यही एक आश्चर्य-जनक बात है। इस कमी की आपूर्ति के लिए और इन ज़रूरतों को देखते हुए भारतीय भाषा संस्थान ने 'भारतीय भाषा ज्योति' की एक पुस्तक श्रृंखला की संकल्पना की है। यह मराठी पुत्त्तक उस श्रृंखला की एक कड़ी है।
त्रिभाषा सूत्र के अंतर्गत हिंदी भाषी राज्यों में अन्य भारतीय भाषाओं का तीसरी भाषा के रूप में प्रचलन तो अवश्य हुआ है परंतु भाषा अध्यापकों एवं पुस्तकों की कमी होने के कारण बांछित सफलता नहीं मिल पाई। अन्य भारतीय भाषाओं एवं विशेष रूप से दक्षिण भारतीय भाषाओं के अध्ययन एवं अध्यापन हेतु उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार एवं कुछ स्वायत्त संस्थाओं ने एक अभियान कुछ वर्ष पहले प्रारंभ किया था। चयनित भाषाओं की वांछित पुस्तक एवं भाषा अध्यापकों के विशिष्ट प्रशिक्षण एवं नियुक्ति हेतु राज्य सरकार ने भारतीय भाषा संस्थान का सहयोग आवश्यक समझा। इसी सहयोग की कड़ी में उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार के अनुरोध पर भारतीय भाषा संस्थान ने राज्य के भाषा विभाग के साथ मिलकर असमिया, बंगला, ओड़िया, मराठी, गुजराती, सिंधी, कश्मीरी, पंजाबी, कन्नड़, मलयाळम, तमिल एवं तेलुगु भाषाओं की पाठ्यसामग्री के निर्माण हेतु कार्यशालाएँ आयोजित कीं। इन कार्यशालाओं के माध्यम से इन सभी भाषाओ की पाठ्य पुस्तकें तैयार की गई थीं। ये पुस्तकें 'भारतीय भाषा ज्योति' पुस्तक श्रृंखला के अंतर्गत आ रही हैं। हरिद्वार के ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के अनुरोध पर उन के ही सहयोग में कन्नड़, मलयाळम, तमिल तथा तेलुगु पुस्तकों का मुद्रण तथा प्रकाशन हुआ है। इतिमध्य जम्मू के डोग्री संस्था की प्रार्थना के अनुसार उन के सहयोग में डोग्री पुस्तक का निर्माण तथा प्रकाशन भी हुआ है और कश्मीर के बाहर रहनेवाले कश्मीरिओं के अनुरोध पर कश्मीरी पुस्तक का प्रकाशन हमारे संस्थान ने किया है। भारतीय भाषा ज्योति सिंधी पुस्तक का प्रकाशन भी गुजरात के कच्छ के इंडियन इनस्टिट्यूट ऑफ सिंघोलजी के साथ हमारा संस्थान करनेवाला है। बाकी छह पुसतकों असमिया, बंगला, मराठी, गुजराती, पंजाबी तथा ओड़िआ का प्रकाशन अब हो रहा है।
मैं आशा करता हूँ कि भारतीय भाषा ज्योति श्रृंखला की यह मराठी पुस्तक समस्त हिंदी भाषा-भाषियों के लिए उपयोगी होगी। इसके माध्यम से वे न केवल संबंधित भाषा के अध्ययन में रुचि का परिचय लेंगे, अपितु उसके प्रचार एवं प्रसार में भी अपना अमूल्य योगदान देंगे।
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