पुस्तक के विषय में
'अगर तुम मानते हो कि ईश्वर सब में है, सर्वव्यापक है, तो फिर तुम्हारा यह कर्तव्य बनता है कि उस ईश्वर को प्रसत्र रखो। जब तुम एक प्यासे को देखते हो, भूलो मत कि उसके भीतर बैठा हुआ ईश्वर प्यासा है। जब तुम एक भूखे को देखते हो, भूलो मत कि उसके भीतर बैठा हुआ ईश्वर भूखा है। अगर कोई व्यक्ति दु:खी है तो उसके भीतर ईश्वर भी दु:खी है। मनुष्य दु:खी और ईश्वर सुखी, ऐसा नहीं हो सकता। ईश्वर मनुष्य की भावना का प्रतिबिम्ब है और मनुष्य ईश्वर की भावना का। यही जीवन का रहस्य है, यही जीवन का सत्य है। जब दूसरों में परमतत्व को देख सको और परमतत्व के उत्थान और विकास के लिए दूसरों के जीवन के अभावों को दूर कर सको तो वही सबसे बड़ी भक्ति है।'
सन् 2009 से स्वामी निरंजनानन्द सरस्वती के जीवन का एक नया अध्याय प्रारम्भ हुआ है और मुंगेर में योगदृष्टि सत्संग श्रृंखला के अन्तर्गत योग के विभिन्न पक्षों पर दिये गये प्रबोधक व्याख्यान स्वामीजी की इसी नयी जीवनशैली के अंग हैं ।
4 से 6 जुलाई 2009 तक पादुका दर्शन, मुंगेर में गुरु पूर्णिमा महोत्सव के अंतगर्त आयोजित प्रथम योगदृष्टि सत्संग श्रृंखला का विषय था भक्ति। स्वामीजी ने अपने सरस, सुबोध सत्संगों में भक्ति की शास्त्रीय व्याख्या के साथ-साथ भक्ति की व्यावहारिक साधनात्मक पद्धतियों का सुन्दर निरूपण प्रस्तुत किया। भक्ति मार्ग के हर साधक के लिए यह सत्संग-मंजूषा एक अमूल धरोहर है।
स्वामी निरंजनानन्द सरस्वती
'एक यात्री था जो अनन्त काल से यात्रा करता आ रहा था उसकी यात्रा का उद्देश्य अपने नगर पहुँचना था पर वह नगर कत दूर था। यात्री धीरे- धीरे अपने पगों को अपने गन्तव्य की ओर बढ़ाते चलता था । नगर का नाम था ब्रह्मपुरी और यात्री का नाम था श्रीमान् आत्माराम
सन् 2009 से स्वामी निरंजनानन्द सरस्वती के जीवन का एक नया अध्याय प्रारम्भ हुआ है और मुंगेर में योगदृष्टि सत्संग शृंखला के अन्तर्गत योग के विभिन्न पक्षों पर दिये गये प्रबोधक व्याख्यान स्वामीजी की इसी नयी जीवनशैली के अंग हैं ।
हिमालय पर्वतों के सुरम्य, एकान्तमय वातावरण में गहन चिंतन करने के बाद स्वामीजी ने गंगा दर्शन लौटकर जून 2010 की योगदृष्टि सत्संग शृंखला में प्रवृत्ति एवं निवृत्ति-मार्ग को अपने सत्संगों का विषय चुना । उनके विवेचन की शुरुआत एक प्रतीकात्मक कथा से होती है जिसका मुख्य नायक, आत्माराम, अपने गन्तव्य, ब्रह्मपुरी की ओर यात्रा कर रहा है । इस कथा को आधार बनाकर स्वामीजी ने बहुत सुन्दर ढंग से प्रवृत्ति तथा निवृत्ति मार्ग के मुख्य लक्षणों, साधनाओं और लक्ष्यों का निरूपण किया है । सांसारिक जीवन जीते हुए भी किस प्रकार सुख, सामंजस्य और संतुष्टि का अनुभव किया जा सकता है; जीवन के किस मोड़ पर साधक वास्तविक रूप से आध्यात्मिक मार्ग पर आता है; और साधक की इस यात्रा में मार्गदर्शक की क्या भूमिका होती है - आध्यात्मिक जीवन से सम्बन्धित इन सभी आधारभूत प्रश्नों का उत्तर इन सत्संगों में निहित है ।
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