Embark on a spiritual journey with this Hindi translation of the Shrimad Bhagvad Mahapurana. It is concise and crisp while still capturing the crux of the sacred text that is revered by Hindus all over the world. The writer Surajmal Mohata has made the translation very simple and easy to comprehend by readers. It features stories and legends from the Shrimad Bhagvad Mahapurana that impart ancient wisdom and spiritual teachings necessary for living a fulfilling life.
Some of the stories this book features include the story of Lord Vishnu’s Matsyavatar, of King Dushyant and Shakuntala, the story of Lord Krishna’s birth among many others. It also sheds light on the meaning of the vedas, the dialogue between Sage Narada and Maharishi Vyasa etc.
The book takes you on a journey through the much fascinating Hindu philosophy.
प्रकाशकीय
प्रस्तुत पुस्तक में श्रीमद्भागवत का संक्षिप्त हिंदी-रूपांतर दिया गया है। पाठक जानते हैं कि भारतीय वाङ्मय में श्रीमद्भागवत का महत्वपूर्ण स्थान है और उसकी कथाएं जहां रोचक हैं, वहां शिक्षाप्रद भी हैं।
लेखक की आकांक्षा रही है कि ऐसा अनमोल ग्रन्थ सामान्य पाठकों को सुलभ हो। इसलिए उन्होंने भरसक प्रयत्न किया है कि भावानुवाद की भाषा सरल-सुबोध रहे। उन्हें अपने इस प्रयत्न में बहुत-कुछ सफलता भी मिली है। वैसे भी पुस्तक इतनी सरस है कि पाठक उसे चाव से पढ़ेंगे।
पश्चिमी विचारधारा ने हमारे देश की दृष्टि भौतिकता की ओर मोड़ दी है और आज हमारी उपलब्धियों के मापदंड में बड़ा परिवर्तन हो गया है, फिर भी जिस भूमि के कण-कण में धर्म व्याप्त रहा हो, वह पूर्णतया धर्म-विहीन कैसे हो सकती है? हमें यह देखकर हर्ष होता है कि आज भी हमारे करोड़ों देशवासियों में धार्मिक साहित्य की भूख है। आवश्यकता इस बात की है कि उन्हें ऐसा साहित्य दिया जाय, जो उनके संस्कारों को पुष्ट और उनके विवेक को सन्तुष्ट करे। यह उसी दिशा का प्रकाशन है।
हमें विश्वास है कि इस जीवनोपयोगी पुस्तक को पाठक स्वयं पढ़ेंगे और घर-घर पहुंचाने में सहायक होंगे ।
निवेदन
श्रीमद्भागवत महापुराण एक अपूर्व धार्मिक ग्रंथ है । इस महान् ग्रन्थ में भगवान के अवतारों में यज्ञ, बुद्ध और कल्कि को छोड्कर अन्य सभी कथाओं का विस्तृत वर्णन किया गया है । दशम स्कन्ध में वर्णित भगवान श्रीकृष्ण की सुमधुर मंगलमयी कथाएं तो भक्त-हृदय को अत्यधिक प्रिय हैं । एकादश स्कन्ध में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा उद्धव को दिया गया उपदेश, वर्णाश्रम धर्म, सांख्य-ज्ञान, भक्तियोग, संत-लक्षण इत्यादि विषयों का पूर्ण और श्रेष्ठ विवेचन है । यद्यपि श्रीमद्भागवत की सभी कथाएं भक्तियोग का उत्तम उपदेश देनेवाली एवं श्रद्धा बढ़ानेवाली हैं, तथापि भगवान कपिल का माता देवहूति को उपदेश, जड़भरत, अजामिल, प्रह्लाद-चरित्र, वामनावतार एवं महाराजा बलि की कथाओं ने मेरे हृदय को विशेषतया आकृष्ट किया है ।
यह तो सर्वविदित है कि हमारे यहां प्राचीन काल में ग्रन्यों में रचनाकाल या संवत् देने की प्रथा नहीं थी। फलस्वरूप यह ठीक-ठीक पता नहीं चलता कि श्रीमद्भागवत कब लिखा गया । मूल कथ की रचना के विषय में इतना तो अवश्य ही कहा जा सकता है कि यह भगवान बुद्ध के अवतार-ग्रहण के पहले ही अपना रूप प्राप्त कर चुका होगा । ग्रन्थ में उल्लिखित अवतारों में भगवान बुद्ध और कल्कि का नाम हमें भविष्य में होनेवाले अवतारों में मिलता है। ग्रन्थ में अन्यत्र उनका उल्लेख नहीं मिलता; पर द्वादश स्कन्ध में नन्द, चन्द्रगुप्त और अशोक-वर्धन आदि राजाओं के नामों का प्रवेश होने से यह शंका पुष्ट होती है कि यह भाग और इसी तरह के कई अन्य भाग मूल मथ में बाद में जोड़े गये हैं ।
हमें यह भी निश्चित रूप से मालूम नहीं है कि इस विशाल ग्रन्थ के महान रचयिता श्रीवेदव्यास ने इसे स्वयं अपने करकमलों से लिखा या अपने अद्भुत मेधा-शक्ति-सम्पन्न शिष्यों को अपने श्रीमुख से पढ़ाया। प्राचीन पांडुलिपि के अभाव में हमारा दृढ़ता के साथ यह कहना कि यह ग्रन्थ मूलत: लिखा ही गया था, एक अनधिकार चेष्टा ही होगी । श्रुति-स्मृति की पुरातन पद्धति से यह ग्रंथ-राज हमें परम्परागत प्राप्त होता गया, यह मत ही अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है । इस पूर्व-प्रचलित पद्धति से जो भी ग्रन्थ मानवता को प्राप्त हुए हैं, उनके विषय में यह आशंका तो सदैव बनी ही रहेगी कि समय-समय पर अन्याय विद्वानों ने अपनी रुचि के अनुसार एवं समयानुकूल प्रकरण मूल रचनाओं के साथ अन्तर्निहित कर दिये होंगे ।
इस क्रिया के कारण कालान्तर में यह ग्रन्थ इतना विशालकाय हो गया, यह कहना शायद अनुचित न होगा । कहा जाता है कि 'व्यास' नामरूपी एक नहीं, अनेक व्यक्ति हो चुके हैं । विद्वानों ने यह प्रतिपादन करने की चेष्टा की है कि 'व्यास' एक उपाधि-मात्र थी, उसी प्रकार जिस प्रकार महामहोपाध्याय, कविरल आदि उपाधियां आजकल प्रचलित हैं; पर यह तो निर्विवाद है कि इस ग्रन्थ के अग्रगण्य रचयिता एवं प्रणेता, अलौकिक काव्य-शक्ति-सम्पन्न श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास ही थे । अन्य 'व्यास' उपाधि-विभूषित काव्य-कलाकारों एवं विचारकों ने समय-समय पर अपनी विविध कलाकृतियों को इस ग्रन्थ में मिलाया, यह भी प्राय: असंदिग्ध है ।
ग्रन्थ के अन्दर ही हमें ऐसे उदाहरण मिलेंगे, जिनके मनन से हम उपर्युक्त मत का प्रतिपादन कर सकते हैं। प्रथम स्कन्ध और द्वितीय स्कन्ध में वर्णित अवतारों के नामों और उनकी गणना में साम्य का अभाव पाया जाता है। प्रथम स्कन्ध में नारद और मोहिनी को अवतारों की गणना में प्रतिष्ठित किया गया है, पर द्वितीय स्कन्ध में शुकदेवजी द्वारा परीक्षित को सुनाये गये अवतारों में इन्हें न रखकर हंस और हयग्रीव को रखा गया है । इस भिन्नता को दृष्टिगत रखते हुए यह कहना उचित नहीं होगा कि श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास ने ही दोनों स्थलों पर अवतारों का वर्णन किया है । विराट भगवान की कथा प्रारम्भ में शुकदेवजी ने परीक्षित को सुनाई । आगे चलकर वही कथा मैत्रेय मुनि ने विदुरजी को सुनाई । पर दोनों वर्णनों में प्रत्यक्ष भेद के दर्शन होते हैं। इसी तरह हम पाते हैं कि ग्रन्थ में वर्णाश्रम धर्म, साधक के कर्तव्य, संत-लक्षण आदि विषय एक स्थान पर ही नहीं, विविध स्थानों पर विवेचित हुए हैं। भाषा और शैली का असाम्य भी स्पष्ट लक्षित होता है ।
कहीं पर वर्णन में असाधारण प्रखरता और तेजस्विता पाई जाती है, तो कहीं पर कुछ शैथिल्य एवं सामान्यता। उदाहरणार्थ, नवम स्कन्ध में श्रीशुकदेवजी ने परीक्षित को बहुत-से ऐसे राजाओं का जीवन-चित्रण सुनाया है, जिनका भक्ति-मार्ग में कहीं स्थान नहीं हैं। नवम स्कन्ध में कितने ही स्थलों पर भाषा में वह भावप्रवणता, ओजस्विता स्निग्धता एवं रोचकता नहीं तथा वर्णन-शैली में वह वैचित्र्य नहीं, जो इस ग्रन्थ-रत्न के प्रतिभाशाली रचयिता की सर्वमान्य विशेषताएं हैं । भगवान कपिल, जड़-भरत, अजामिल, प्रह्लाद तथा महाराजा बलि के चरितों को अपनी देवनिर्मित तूलिका से अद्भुत कौशल के साथ प्रकाशित करने वाला महान् कवि एवं चिंतक नवम स्कन्ध में आकर भगवान राम और राजा हरिश्चन्द्र के चरित खींचने में साधारण भाषा को ही क्यों प्रयुक्त कर पाया, यह शंका सहज ही हमारे मनों में अंकुरित होती है। इस शंका का एक ही समाधान है, वह यह कि इस विशाल ग्रन्थोदधि में उपलब्ध अपार रत्नराशि को श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास ने ही नहीं, उत्तरकालीन अन्य विद्वज्जनों ने भी एकत्र किया है ।
पर इस महान ग्रन्थ के विषय में मेरी तुच्छ बुद्धि कोई निश्चित मत प्रतिपादन करने में सर्वथा असमर्थ है । हां, यह निस्संदेह कहा जा सकता है कि नागरी प्रचारिणी सभा, काशी ने गोस्वामी तुलसीदास-विरचित रामचरितमानस से क्षेपक-स्थलों को हटाकर जो स्तुत्य कार्य संपादित किया है, वैसा ही कार्य, यदि पक्षपातरहित विद्वानों एवं संस्कृत-भाषा के मर्मज्ञों की सहायता से, कोई संस्था इस ग्रन्थ के शुद्धिकरण हेतु करने का उत्तरदायित्व संभाले, तो यह भारतीय धर्म और जीवन के प्रति एक अच्छी सेवा होगी ।
इस कथासार के संकलन में मैंने अध्यायों को सिलसिलेवार रखने की अपेक्षा विषयों के शृंखलाबद्ध प्रस्तुत करने को अधिक महत्व दिया है। जहां-कहीं भी कथा की शृंखला कुछ टूटती नजर पड़ी, उसे एकत्र कर एक सुसंगठित और सुव्यवस्थित रूप में रखने की भरसक चेष्टा की है । इस उत्कृष्ट ग्रन्थ में कई स्थल तो बड़े ही गहन और गढ़ हैं। शब्दार्थ और तात्पर्य में अन्तर है। शाब्दिक अर्थ से ऊपर उठकर वास्तविक अर्थ को पकड़ पाना तथा समझ सकना उच्चकोटि के विद्वानों द्वारा ही सम्भव है। वास्तविक अर्थ न समझ पाने के कारण ही 'चीरहरण', 'रामलीला', 'युगलगीत' ऐसी सर्वप्रिय, सरस एवं कोमल कथाओं तक को छोड़ने का मैंने साहस किया है । मैं जानता हूं भगवान के माधुर्य रूप के उपासक प्रेमी भक्त इसकें लिए शायद मुझे क्षमा न कर सकें । फिर भी, अपनी अज्ञानता की ढाल आगे कर मैं क्षमाप्रार्थी हूं ।
हमारे प्राचीन धार्मिक ग्रंथों के पुनरुद्धार में गीताप्रेस, गोरखपुरवालों की अनवरत सेवा मुक्तकण्ठ से प्रशंसनीय है। श्रीमद्भागवत का यह संक्षिप्त संस्करण तैयार करने में मैंने गीताप्रेस द्वारा प्रस्तुत अनुवाद से काफी सहायता ली है । अतएव गीताप्रेस, गोरखपुर के प्रति आभार प्रदर्शित करना मैं अपना आवश्यक कर्तव्य समझता हूं ।
श्री वियोगी हरिजी का भी मैं अनुगृहित हूं जिन्होंने यत्र-तत्र भाषा का परिमार्जन कर उसे अधिक रोचक बनाया।
भूमिका
'विद्यावतां भागवते परीक्षा' यह कहावत प्राचीन काल से विद्वत्समाज में प्रचलित है । विद्वानों की चूड़ांत विद्या की परीक्षा श्रीमद्भागवत महापुराण द्वारा हुआ करती थी । केवल विद्वानों को ही नहीं, बल्कि कहना चाहिए कि बड़े-बडे तत्त्व-ज्ञानियों, परमार्थमार्गियों एवं रसज्ञ भक्तों की भी परीक्षा भागवत से होती है । भागवत एक ही साथ समन्वयपरक दर्शन-ग्रंथ, उत्कृष्ट भक्तिरस-ग्रंथ और अद्वितीय काव्य-ग्रंथ भी है। दशम स्कन्ध जहां श्रीकृष्ण-लीलाओं का अनुपम रसार्णव है, वहाँ एकादश स्कन्ध भागवत-सिद्धांतों का अद्भुत निचोड़ है । अद्वैत, विशिष्टाद्वैत तथा द्वैत-सिद्धांतों का असामान्य समन्वय तो हम भागवत में पाते ही हैं । सांख्यदर्शन को भी हम एक निराले ही रूप में इस ग्रंथ में देखते हैं । अनेक आख्यानों को उपस्थित करते समय भी भागवतकार की दृष्टि निरंतर तत्त्वज्ञान की गहनता और सूक्ष्मता पर ही रही, है ।
कहते हैं कि अनेक पुराणों और महाभारत की रचना करने के उपरांत भगवान् व्यास को परितोष नहीं हुआ । परम आह्लाद तो उनको श्रीमद्भागवत के प्रणयन और संगायन के पश्चात् ही हुआ । उसी भागवत का व्यास-पुत्र शुकदेव ने विशद व्याख्यान किया । परम रसल शुकदेव के मुख से उद्गति होने पर पद-पद से अमृत झर उठा-'शुकमुखादमृत-द्रवयंयुतम्'-यही कारण है जो भागवत को भगवान का 'निज स्वरूप' कहा गया है । निस्सन्देह, भगवदनुग्रह-मार्ग का यह सर्वोस्कुष्ट ग्रंथ है । यद्यपि भागवत का एक-एक श्लोक लालित्य और माधुर्य से परिलुप्त है, तथापि इसकें कई स्थल इतने गहन और इतने क्लिष्ट हैं कि उनका अथ लगाने में बड़े-बड़े पंडितों की भी बुद्धि चक्कर खा जाती है । भागवत पर जितनी टीकाएं, जितनी वृत्तियां और जितने भाष्य लिखे गए हैं उतने और किसी भी पुराण-ग्रंथ पर नहीं ।
अपने-अपने सम्प्रदाय के सिद्धांतों पर भागवत को उतारने में तथा अन्य विद्वानों ने समय-समय पर प्रयत्न किये हैं, किंतु फिर भी भागवत अपने-आपमें निराला ही ग्रंथ रहा है, साम्प्रदायिक एवं विभिन्न दार्शनिक वादों से निराला ।
भारत की कई भाषाओं में अनुवाद ही नहीं, पद्यात्मक छायानुवाद भी भागवत के हुए हैं । मराठी का 'एकनाथी' भागवत तो प्रसिद्ध ही है । सूरदासजी ने अपने 'सूर-सागर' की रचना श्रीमद्भागवत के आधार पर ही की है । ब्रजवासी दास का 'ब्रज-विलास' तथा द्वारकाप्रसाद मिश्र का 'कृष्णायन' इन दोनों ग्रंथों की रचना भी भागवत के आधार पर हुई है । हिन्दी भाषा का 'शुक-सागर' दशम स्कन्ध का गद्यात्मक रूपांतर 'प्रेम-सागर' तो साहित्य-जगत् में प्रसिद्ध ही है । श्री हरिभाऊ उपाध्याय का 'भागवत धर्म' भी भागवत के ग्यारहवें स्कन्ध की विस्तृत टीका है और इसी शृंखला की महत्त्वपूर्ण कड़ी है ।
गोरखपुर के सुपसिद्ध गीताप्रेस ने कुछ वर्ष पहले श्रीमद्भागवत का मूल हिंदी-अनुवाद के साथ निकाला था। उसे मेरे मित्र श्री सूरजमल मोहता ने ध्यान से पढ़ा और उन्हें यह इच्छा हुई कि इस महाग्रंथ का एक सरल एवं संक्षिप्त संस्करण तैयार किया जाय । रत्नाकर में डुबकी लगाते समय किस रत्न को लिया जाय और किसे छोड़ा जाय, यह विवेक करना बड़ा कठिन काम है । फिर भी, अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार सारग्राही संपादकों को, यह जानते हुए भी कि उनकी यह अनधिकार चेष्टा है, यह अतृप्तिकर कार्य करना ही पड़ता है । पर यह 'गागर में सागर' भर लेने का काम हर किसी के वश का नहीं । श्री मोहता प्रस्तुत संकलन करने में बहुत-कुछ अंशों में सफल हुए हैं, ऐसा कहा जा सकता है ।
भाषा में कहीं-कहीं पर थोड़ा-सा हेर-फेर मैंने कर दिया है, साथ ही कुछ स्थलों का साधारण-सा सम्पादन भी ।
आशा है, इस संक्षिप्त भागवत से पाठकों को अवश्य आनन्दानुभव होगा ।
विषय-सूची
1
भागवत-माहात्मय
15-23
2
ज्ञान और वैराग्य का क्लेश-अपहरण
15
3
गोकर्ण-धुन्धुकारी की कथा
19
4
प्रथम स्कन्ध
24-44
5
भगवान के अवतारों का वर्णन
24
6
व्यास-नारद संवाद
26
7
महाभारत की अन्तिम घटनाएं
29
8
परीक्षित का जन्म और पाण्डवों का महाप्रस्थान
33
9
कलियुग का आगमन और परीक्षित को शाप
39
10
द्वितीय स्कन्ध
45-53
11
तत्वज्ञान का उपदेश
45
12
तृतीय स्कन्ध
54-79
13
विदुर-उद्धव संवाद
54
14
मैत्रेय मुनि का विदुर को उपदेश
57
ब्रह्मा द्वारा सृष्टि की रचना
60
16
सनकादि द्वारा भगवान के पार्षदों को शाप
63
17
हिरण्याक्ष-वध
66
18
भगवान कपिल का माता देवहूति को उपदेश
68
चतुर्थ स्कन्ध
80-114
20
सती का शरीर-त्याग और दक्ष-यज्ञ-विध्वंस
80
21
ध्रुव की कथा
86
22
महाराजा अंग और वेन की कथा
93
23
महाराजा पृथु की कथा
95
राजा प्राचीनबर्हि तथा प्रचेताओं की कथा
101
25
पुरजन की कथा
103
पंचम स्कन्ध
115-126
27
भगवान ऋषभदेव की कथा
115
28
जड़भरत की कथा
118
पृथिवी के नीचे के लोकों तथा नरकों का वर्णन
125
30
षष्ठ स्कन्ध
127-149
31
अजामिल की कथा
127
32
प्रजापति दक्ष का नारद को शाप
134
वृत्रासुर की कथा
136
34
महाराजा चित्रकेतु की कथा
142
35
मरुद्गणों की जन्म-कथा
148
36
सप्तम स्कन्ध
150-138
37
हिरण्यकशिपु को ब्रह्माजी से वर-प्राप्ति
150
38
प्रह्वाद-चरित और नृसिंहावतार
155
नारदजी का युधिष्ठिर को वर्णाश्रम का उपदेश
166
40
अष्टम स्कन्ध
169-187
41
गजेन्द्र-मोक्ष
169
42
समुद्र-मंथन
171
43
देवासुर-संग्राम
175
44
वामनावतार और महाराजा बलि की कथा
178
मत्स्यावतार
185
46
नवम स्कन्ध
188-201
47
राजा अम्बरीष की कथा
188
48
महाराजा सगर के पुत्रों की कथा एवं गंगावतरण
190
49
रामावतार
192
50
सहस्रबाहु तथा परशुराम
194
51
राजा दुष्यन्त और शकुन्तला
199
52
राजा रन्तिदेव के दान की परीक्षा
53
दशम स्कन्ध (पूर्वार्द्ध)
202-244
वसुदेव-देवकी का विवाह और आकाशवाणी
202
55
श्रीकृष्ण-जन्म
204
56
शिशु-लीला
210
बाल-लीला
213
58
ब्रह्माजी का मति-भ्रम
218
59
कालिय-दमन
221
ऋषि-पत्नियों को उपदेश
225
61
गोवर्द्धन-धारण
226
62
रास-रहस्य
229
अश्व का ब्रज-गमन और कंस-वध
231
64
उद्धव की ब्रज-यात्रा
239
65
अक्रूर का हस्तिनापुर जाना
242
दशम-स्कन्ध (उत्तरद्धि)
245-296
67
जरासन्ध की मथुरा पर चढाई
245
रुक्मिणी-हरण
249
69
स्यमन्तक मणि
254
70
अनिरुद्ध का ऊषा के साथ विवाह
260
71
राजा नृग का उद्धार
262
72
पौण्ड्रक-वध
264
73
कौरव-दर्प-हरण
74
जरासंध-वध
266
75
राजसूय यज्ञ और शिशुपाल-वध
271
76
बलरामजी की तीर्थ-यात्रा
275
77
सुदामा-चरित
277
78
कुरुक्षेत्र में नंदबाबा और यदुवंशियों का मिलन
281
79
विदेह-यात्रा
285
वेद-स्तुति
288
81
भगवान शंकर पर संकट
293
82
भगवान विष्णु की श्रेष्ठता
295
83
ग्यारहवां स्कन्ध
297-350
84
राजा निमि को नौ योगीश्वरों के उपदेश
297
85
यदुवंशियों को ब्रह्मशाप
305
श्रीकृष्ण-उद्धव-संवाद
307
87
दत्तात्रेयजी के चौबीस गुरु
309
88
साधक के कर्तव्य
315
89
आत्मा बंधा हुआ है कि मुक्त?
318
90
संत पुरुषों के लक्षण और उनकी भक्ति
320
91
सांख्यज्ञान तथा भक्तियोग
322
92
भगवान की विभूतियां
325
वर्णाश्रम धर्म
327
94
यम और नियम
330
वेदों का तात्पर्य
332
96
तत्त्व-विचार
334
97
दुःख का कारण-मन
339
98
सांख्य-दर्शन
342
99
सत्व, रज और तम गुण
344
100
यदुवंश का नाश
347
बारहवां स्कन्ध
351-352
102
परीक्षित का स्वर्गारोहण
351
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