असख्य सम्प्रदायों के होते हुए भी हिन्दू धर्म के नाम से हम जो कुछ भी समझते हैं, उन सबका प्रतिनिधित्व करने का एक विशिष्ट गौरव यदि किसी एक धर्म ग्रंथ को आज तक प्राप्त हो सकता है तो वह निःसन्देह श्रीमद्भगवद्गीता है। इससे भी बढ़कर, एक विशेष संस्कृति तथा धर्म का सर्वमान्य ग्रन्थ होते हुए भी भगवद्गीता सदा से भौगोलिक तथा धार्मिक सीमाओं का अतिक्रमण करती रही है और इसका सार्वभौम तथा सर्वात्म प्रभाव सर्वस्वीकृति है। धार्मिक समन्वय की दृष्टि से यह अपनी कोटि का प्रथम एवं अद्वितीय ग्रन्थ है।
भारतीय संस्कृति तथा हिन्दू धर्म के धारा प्रवाह में यदि एक ओर अत्यन्त प्राचीन तथा प्रागैतिहासिक काल में रचित भगवद्गीता अपना एक अपूर्व स्थान रखती है, तो दूसरी ओर नितान्त नवीन तथा पूर्णतया ऐतिहासिक व्यक्तित्व श्री रामकृष्ण की भी अपूर्णता किसी अर्थ में कम नहीं है। इतनी अल्प अवधि में ही आध्यात्मिक जगत् में सर्वत्र चाहे पूर्व हो या पश्चिम, श्रीरामकृष्ण को जो व्यापक स्वीकृति प्राप्त हुई है, यह इस बात का प्रमाण है कि उनके जीवन तथा उपदेशों में कुछ ऐसे शाश्वत तथा सार्वभौमिक तत्व हैं जो धार्मिक अथवा भौगोलिक सीमाओं में अवरुद्ध नहीं हो सकते हैं। सम्भवतः ऐसे ही तत्व संसार के महान् धर्मोपदेशक, देवदूत अथवा अवतार आदि के निर्माण के लिए उत्तरदायी होते हैं। क्रिस्टोफर आइशर ऊड श्री रामकृष्ण के अविर्भाव को एक 'फैनामेनन' या अपूर्व घटना के रूप में वर्णित करते हैं। रोमा रोलां के शब्दों में श्रीरामकृष्ण तीस करोड़ मनुष्यों में विगत दो हजार वर्षों की आध्यात्मिक आकांक्षाओं को परिपूर्णता हैं।
धर्म समन्वय की दृष्टि से संसार के धर्म साहित्य के विपुल भण्डार में गोता को छोड़कर यदि कोई दूसरा ग्रन्थ हमारे सामने आता है तो वह निःसन्देह 'श्रीरामकृष्ण वचनामृत' है।। इस ग्रन्थ में श्रीरामकृष्ण के उपदेशों के अतिरिक्त उनके जीवन की अनेक घटनाओं का उल्लेख भी मिलता है। असंदिग्धता एवं विश्वसनीयता को देखते हुए हमने आधार ग्रन्थ के रूप में इसी का उपयोग किया है।
वस्तुतः श्रीरामकृष्ण के जीवन तथा उपदेशों में अन्तःर्निहित एक सर्वात्मक, सर्वग्राहो तथा परम उदार दृष्टिकोण का स्पष्ट आभास मिलता है, जिसे यद्यपि हम किसी विशेष धर्म अथवा सम्प्रदाय की सीमित परिधि में बांध नहीं सकते, फिर भी जो सभी विविधताओं को अपने में समाहित कर सकता है। भारतीय संस्कृति का यह सनातन सर्वग्राही रूप हमारी समझ से इतिहास में दो ही बार प्रकट होता है, एक, गीता के उपदेशों में और फिर दुबारा श्रीरामकृष्ण के अनुभूतिमय जीवन के। समन्वय में मूर्त-विग्रह श्रीरामकृष्ण में सम्भवतः वह शक्ति और प्रभावशीलता न आ पाती यदि उनकी सारी बातें अनुभव, सिद्ध न हुई होतीं। आज के वैज्ञानिक युग में श्रीरामकृष्ण ने जीवन रूपी, प्रयोगशाला में गीता के सत्यों का परीक्षण कर फिर उनका सत्यापन किया। केवल इतना ही नहीं, परिवर्तित परिस्थिति में श्रीरामकृष्ण पारम्परिक ज्ञान, भक्ति, आदि मागों तक हो अपने को सीमित नहीं रखते हैं बल्कि इस्लाम, ईसाई, बौद्ध, सिक्ख तथा और भी अनेक धर्म-मतों का परीक्षण करते हैं। इस दृष्टि से श्रीरामकृष्ण के जीवन को गीता के एक व्यावहारिक भाष्य रूप में हम वर्णित कर सकते हैं। इस तुलनात्मक अध्ययन से हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि यह रहो कि गीता को समझने में हमें एक नवीन प्रकाश मिला- श्रीरामकृष्ण के जीवनालोक से गीता का एक नवीन अर्थ उद्भासित हुआ, जो उसके पूर्व कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। इस दृष्टिकोण को वस्तुतः हम नवीन भी नहीं कह सकते क्योंकि हमें ऐसा प्रतीत होता है कि यही गीता का आधारभूत दृष्टिकोण है जिसे दुर्भाग्यवश साम्प्रदायिक भाष्यकारों में किसी ने अपनाया नहीं। इस दृष्टिकोण का सबसे बड़ा वैशिष्ट्य है कि यह बौद्धिक व्यायाम का परिणाम नहीं बल्कि जीवन की उच्चतम अनुभूतियों पर आधारित है।
गीता को समझने में जिन आधारभूत तथ्यों का ज्ञान हमें श्रीरामकृष्ण के जीवनालोक से प्राप्त होता है, उनका उल्लेख मात्र करना ही यहाँ पर्याप्त होगा। हमें यह पूर्ण विश्वास है कि इस प्रबन्ध को पढ़ने से पाठक को यह स्पष्ट अनुभव होगा कि इन तथ्यों को गीता से ढूंढ निकालने के लिए हमने कोई बौद्धिक प्रयास नहीं किया बल्कि ये सदा से हो गीता में नितान्त स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त हैं। साधारण पाठक इन तथ्यों पर आधारित गीता के उदार एवं सर्वांगीण दृष्टिकोण का अनुभव करता हुआ भी कहीं न कहीं शंकर के मायावाद या रामानुज के ब्रह्म विचार या तिलक के कर्मयोग के दलदल में फंस भी जाता है।
जिस 'देवरक्षित' विशाल भौगोलिक भूखण्ड को प्रकृति ने चारों ओर से दुर्लध्य प्राचीरों से बांध कर उसके निवासियों को नाना विभेदों के होते हुए भी एक हो जीवनादर्श में ढालकर अनेकताओं में एकता का एक अपूर्व दृष्टान्त प्रस्तुत करना मंजूर किया था वह है हमारा यह प्राचीन देश भारतवर्ष। अविस्मरणीय काल से यहां पर एक चरम उदार, सर्वग्राही एवं सर्वप्रसारी संस्कृति का उद्भव स्वतः ही हुआ था जो एक ओर जीवनादर्श के कुछ मौलिक मूल्यों को छोड़कर वैयक्तिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय जीवन में अथवा भौतिक, मानसिक, सौन्दर्य विषयक या आध्यात्मिक जीवन में मनुष्य को नवीन मार्गों के अन्वेषण में, जीवन के निश्चित आदर्शों के नवीन प्रयोग में पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करती आ रही है। संस्कृति की उन्मुक्त छत्रछाया में नाना प्रयोगों के फलस्वरूप आध्यात्मिक जीवनादर्श के भिन्न-भिन्न मार्ग देश, काल एवं अधिवासियों को आकांक्षाओं के अनुरूप बनते गए। इस उदात्त संस्कृति ने किसी भी मार्ग या पंथ को ठुकराया नहीं-सबको अपने में समाहित किया। अंग्रेजी शब्द 'रिलीजन' जिसका पर्यायवाची हमने सुविधा के लिए 'धर्म' शब्द को बना लिया है, उसके सीमित अर्थ में सम्भवतः भारत का कोई एक धर्म नहीं है। समय-समय पर भित्र-भिन्न आत्मद्रष्टा युग पुरुषों ने जो मार्ग दर्शन कराया है, उन सभी मार्गों को अंग्रेजी अर्थ में हम पृथक् पृथक् धर्म कह सकते हैं। परन्तु भारतीय संस्कृति के विशाल अंक में इन सबको समाहित कर भारत के सनातन आध्यात्मिक आदर्श का जो सर्वांगीण रूप प्रस्तुत होता है, वास्तव में उसी को हमने सच्चा धार्मिक आदर्श के रूप में स्वीकार किया। जिस किसी भी मार्ग का अनुसरण हम क्यों न कर
यूँ समय-समय पर आत्मद्रष्टा पुरुषों ने जीवन के परम पुरुषार्थ के जिन नवीन मार्गों का अनुसंधान किया उन्हें हम भारत की आध्यात्मिक संस्कृति के गोद में पनपे हुए धार्मिक सम्प्रदायों के रूप में चिन्हित कर सकते हैं। पर इन साम्प्रदायिक विचारों से ऊपर उठकर एक असाम्प्रदायिक दृष्टि से, रंगीन चश्मे से नहीं बल्कि सफेद चश्मे से, इन साम्प्रदायिक विभेदिताओं के मूल में भारतीय आध्यात्मिक आदर्श की जो नैसर्गिक एकता विद्यमान है, उसमें प्रतिष्ठित होकर सभी विरोधों को, सभी पंथ एवं सम्प्रदायों को एक ही वृक्ष की विभिन्न शाखाओं के रूप में समन्वित आज तक बिरले ही दो-एक महापुरुषों ने किया है। भारतीय संस्कृति के आत्मस्वरूप ऐसे महापुरुषों ने अपना कोई पंथ नहीं चलाया, न किसी का खण्डन ही किया। तोड़ना नहीं बल्कि गढ़ना ही इनका लक्ष्य रहा है। वे स्वयं किसी मत के समर्थक न होते हुए भी सभी अन्य मतावलम्बी उनकी बातों में अपने-अपने मत की झलक देखते हैं उन्हें अपने ही मत के समर्थक के रूप में सिद्ध करने के लिए आतुर हो उठते हैं।
धार्मिक एवं आध्यात्मिक जीवन की उथल-पुथल के आज के इस युग में जब बहिर्मुखी मनुष्य अपने आन्तरिक जीवन से दूर हटकर दिन-प्रतिदिन अशान्त और दिशाहीन होता जा रहा है, हमने ऐसे हो दो महापुरुषों की तुलना करना उपयुक्त समझा जिन्होंने अपने आपको सभी प्रकार के द्वन्द्व और विरोधों से ऊपर उठाकर परम शान्ति और आनन्द का द्वार उन्मुक्त किया और दुर्गत मानव समाज को उसका सन्धान भी दिया।
भारतीय संस्कृति के मूर्त विग्रह उन दोनों में से एक हैं श्री कृष्ण जिन्होंने अज्ञात अतीत में संसार के इस रणांगन में जूझता हुआ दुर्बल-चित्त मानव को सम्बोधित कर एक ऐसा मधुर गीत गाया था जो हमेशा के लिए हमारे जीवन दर्शन का एक अविच्छेद अंग बन गया है और दूसरे हैं श्रीरामकृष्ण जो समय की दृष्टि से नितान्त नवीन होते हुए भी संस्कृत के प्राचीनतम सत्यों का आज के इस वैज्ञानिक युग में अपने जीवन की प्रयोगशाला में परिक्षण द्वारा सत्यापन करके भारतीय जीवन तथा संस्कृति को एक परम संकट की घड़ी में आकर संजीवित किया तथा विभिन्न धर्म एवं सम्प्रदाय के मत-मतान्तरों को अपने अनुभूत उन सार्वभौम एवं मौलिक सत्यों के आधार पर समन्वित करने का मार्ग प्रशस्त किया।
मूल विषय में प्रवेश करने के पूर्व इस भूमिका में भगवद्गीता एवं श्रीरामकृष्ण के सम्बन्ध में कुछ प्रारम्भिक विवेचन कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है।
भगवद्गीता
महाभारत का एक अंश होते हुए भी भगवद्गीता अपने में एक स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। गीता का अर्थ है 'गाई गई'। इसमें उपनिषद् अध्याहार है। अतः गोता का पूरा अर्थ हुआ, गाया गया उपनिषद्। उपनिषद् अर्थात् ज्ञानबोध, इस प्रकार गीता का वास्तविक अर्थ हुआ श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया बोध।
महाभारत का अंश होते हुए भी एक स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में भगवद्गीता अपना एक विशिष्ट स्थान रखती है। आचार्य शंकर ने सातवीं शताब्दी में कहा था कि "इसके उपदेशों का ज्ञान मानव जाति की समस्त आकांक्षाओं की ओर प्रवृत्त करता है।" यह प्रसिद्ध गीता शास्त्र सम्पूर्ण वैदिक शिक्षाओं के तत्वार्थ का सार संग्रह है। इसकी शिक्षाओं का ज्ञान सब मानवीय महत्वाकांक्षाओं की सिद्धि कराने वाला है।।
गीता की विश्वजनीनता तथा सार्वभौमता को गीताकार ने स्वयं स्वीकार किया है। ईश्वर में श्रद्धावान मनुष्य मात्र का इसमें अधिकार है, चाहे वह किसी भी वर्ण अथवा आश्रम में स्थित हो। उन्होंने यह भी कहा है कि स्त्री, वैश्य, शूद्र और पाप योनि वाले मनुष्य भी मेरे परायण होकर परम गति को प्राप्त होते हैं।
हिन्दुओं का यह एक ऐसा धर्म ग्रन्थ है जो किसी एक सम्प्रदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करता। वस्तुतः यह केवल हिन्दू धर्म ही नहीं बल्कि जिसे हम धर्म कहते हैं, चाहे वह कोई भी हो, गीता उन सभी धर्मों का विश्वजनीनता के साथ प्रतिनिधित्व करती है। एलडुअक्स हक्सले के अनुसार "गीता शाश्वत दर्शन के कभी भी रचे गए सबसे स्पष्ट और सर्वांगपूर्ण सारांशों में से एक है। इसलिए न केवल भारतीयों के लिए अपितु सम्पूर्ण मानव जाति के लिए इसका स्थायी मूल्य है। सम्भवतः भगवद्गीता शाश्वत दर्शन का सबसे अच्छा सुसंगत आध्यात्मिक विवरण है।"3
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