ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्लाह का कथन है:
"जब तक नदियाँ तन्हा बहती हैं तो बहुत शोर करती हैं लेकिन जब एक का पानी दूसरे में मिल जाता है, तो ख़ामोश हो जाती हैं।"
इस कथन में तसव्वुफ़ (सन्तमत) का बहुमूल्य मूलमंत्र अन्तर्निहित है। यही हाल भारत की उस संस्कृति का है, जिसे गंगा-जमुनी या रंगारंग संस्कृति का नाम दिया गया है। इसमें हर अशान्ति के लिए शान्ति और हलचल के लिए स्थायित्व पाया जाता है। इसका ढांचा तैयार करने में भारत के सूफ़ियों ने 'अनेकता में एकता' के दर्शन को व्यावहारिक रूप दे दिया और भारत जैसे विशाल और विस्तृत देश में विभिन्न क्षेत्रीय और जातीय सद्गुणों को चुनकर रंग और नस्ल के भेदभाव के बिना सहिष्णुता और उदारता के आकाश में तारों की भाँति टाँग दिया।
ललित कलाओं ने इस संदर्भ में सूफ़ियों का बड़ा साथ दिया, इनमें संगीत और काव्य-कला को विशेष महत्व प्राप्त हुआ। इन कलाओं ने भाषाओं और संस्कृतियों के समन्वय और सामंजस्य में जो मुख्य भूमिका निभाई, वह अनुपम है। हम देखते हैं कि कहीं फ़ारसी अश्आर भारतीय संगीत-विधा में हृदयाकर्षण का कारण हैं, तो कहीं फ़ारसी शायरी में भारतीय परिवेश के आनन्ददायक दृश्य और सरस हिन्दी शब्द।
आदरणीय सूफ़ियों ने, जिनमें अकसर की भाषा फ़ारसी है, भारत की क्षेत्रीय भाषाओं को अपनाकर क्षेत्रीय विषय-वस्तुओं पर सफल रचनाएँ कीं। यहाँ के मौसमी त्योहारों में उसी रंग में शामिल हुए, जिससे एक-दूसरे की वार्त्ता-शैली और चाल-ढाल के समन्वय से रंगारंगियों और सौन्दर्य ने जन्म लिया। सूफ़ियों के इन कारनामों के पीछे उनकी मानव-मित्रता और उदारता की भावनाएँ कार्यरत थीं। वे मानव-सेवा को 'इबादत खुदा अस्त' (उपासना ही ईश्वर है) और 'दिल दोस्तआवर के हज-अकबर अस्त' (दोस्त का दिल रखना बड़ा हज है) में विश्वास रखते थे।
चिश्ती पंथ के धर्मगुरुओं ने संगीत-कला इन्हीं बुनियादों पर जारी रखी, जिसके परिणामस्वरूप बहुत-से भारतीय संगीतकार ख़्वाजा अजमेरी रहमतुल्लाह के पास जमा हो गए थे। हज़रत कुतुबुद्दीन बख़तियार काकी के समय में और फिर हज़रत बाबा फ़रीद गंजशकर के समय सिद्धहस्त फ़ारसी कवियों ने भारतीय काव्य-विधा को स्थानीय बोली और वार्ता-शैली में काव्य-रचना का माध्यम बनाया। खुद बाबा फ़रीद रहमतुल्लाह ने पंजाबी में शायरी की और पद्यात्मक 'बेर' कही। यह प्रक्रिया आगे बढ़ी। हज़रत निज़ामुद्दीन महबूबे-इलाही रहमतुल्लाह अलैह ने बसन्त पर एक उत्सव का आयोजन किया, जिसके अन्तर्गत आज तक आस्तानाए-ग़रीबनवाज़ पर क़व्वाल राजस्थानी में 'बसन्त' गाते हैं और बसन्ती फूलों के साथ एक जुलूस दीवान के निवास स्थान से दरगाह ग़रीबनवाज़ तक जाता है और क़व्वाल राजस्थानी में 'बसन्त' गाते हैं और बसन्ती फूल पेश किए जाते हैं। इसी तरह महरौली में ख़्वाजा बख़तियार काकी रहमतुल्लाह के आस्ताने पर फूलवालों की सैर का मशहूर मेला लगता है।
हज़रत निज़ामुद्दीन के चहेते अमीर खुसरू, जिनकी जन्मभूमि और निवास-स्थान पटियाली ज़िला एटा है, जो ब्रज का क्षेत्र है, एक सिद्धहस्त प्रामाणिक फ़ारसी शायर हैं। यह भारतीय कवियों और साहित्यकारों में उस्ताद का दर्जा रखते हैं। उनकी पहेलियाँ, 'कह मुकरिनियाँ', दोहे और चौपाइयाँ लोकप्रिय हैं। दुल्हन की विदाई के समय हिन्दू घरानों में डोला उस समय तक नहीं उठ सकता, जब तक उनकी कही हुई 'बाबुल' न गा ली जाए। अब्दुर्रहीम ख़ान ख़ाना 'रहिमन' नाम से हिन्दी कविता की प्रथम पंक्ति के कवियों में गिने जाते हैं। उनके दोहे हिन्दी साहित्य में मील के पत्थर का स्थान रखते हैं, इसके बावजूद कि वह फ़ारसी के धुरन्धर विद्वान हैं। इन साहित्यकारों और कवियों के अतिरिक्त भी बहुत-से सूफ़ियों ने अपने समय में वहाँ के क्षेत्रों और भाषा तथा विधाओं में कविता लिखी या अपने समय के फ़ारसी कवियों को इस ओर आकृष्ट किया। सारांश यह कि भारतीय रीति-रिवाज से संबंध रखनेवाली कविता ने बड़ी लोकप्रियता प्राप्त की।
प्रायः फ़ारसी कवियों ने 'होली', 'बसन्त', और 'बारहमासा' कहे हैं। मौलवी हिफ़्ज़ुल्लाह साहब रहमतुल्लाह, जिनका मूल पैतृक स्थान बदायूँ है, फ़ारसी के धुरन्धर विद्धान और बहुत-सी रचनाओं के रचनाकार हैं, लेकिन फ़ारसी भाषा के साथ-साथ उन्हें अपनी क्षेत्रीय भाषा, जो अवधी, ब्रज ओर खड़ीबोली के समन्वय से बनी है, कितनी प्रिय है, इसका अनुमान उनकी रचनाओं 'होली', 'बसन्त' और 'बारहमासा' से लगाया जा सकता है। उपर्युक्त, भाषा में उनकी रचनाएँ पृथक् महत्व की अधिकारी नहीं हैं, क्योंकि 'बैतुल मारिफ़त', जो उनकी कालजयी और महत्वपूर्ण फ़ारसी रचना है, उसमें भी जगह-जगह भाव में स्पष्टता और वर्णन में सौन्दर्य और शक्ति उत्पन्न करने के लिए उन्होंने इस भाषा का सहारा लिया है।
शाह बुलाक़ी क़ादिरी रहमतुल्लाह मुरादाबादी (मुत्यु 1139 हिजरी 1726 ई.) के उल्लेख में लिखा है कि नवाब अज़मतुल्लाह ख़ाँ फ़ारूक़ी, जो दिल्ली के शहंशाह की ओर से इस क्षेत्र के प्रबंन्धक नियुक्त हुए थे, उन्होंने एक बार बहुत-से बहुमूल्य उपहार शाह साहब की सेवा में भेंट किए। यह शाह साहब से दीक्षित (बैत) भी थे।
विश्व के सृष्टा ने अपनी शक्ति के प्रदर्शन के लिए धरती में प्रत्येक वस्तु के जोड़े बनाए। मानव जाति में स्त्री और पुरुष पैदा करके सौन्दर्य और प्रेम को गौरवान्वित किया। सौन्दर्य (प्रेमिका) को नाज़-नखरे, प्रेमपूर्ण हाव-भाव और प्रेम (प्रेमी) को विरह और मिलन, वियोग और निजोग को सामीप्य और दूरस्थता की ललक प्रदान की और मानव के समस्त आनन्दों को मौसमों और ऋतुओं के साथ विश्व की प्रकृति के अन्दर ही समेट दिया। मनुष्य को अपनी अनुभूतियों की भावनाओं के अनुसार ही प्राकृतिक दृश्यों का मज़ा और आनन्द मिल पाता है। भाषा-शैली, वाक्शक्ति, हाव-भाव एवं संवेदनाएं मानव-जाति को ईश्वर की ओर से दिया गया एक अमर एवं अनुपम उपहार है। गद्य और पद्य की विविध विधाएँ, शैलियाँ, विचार और कला सभी कुछ उसकी प्रकृति के अनुकूल है। काव्य-विधा में बड़े ही मनोरम ढंग से चित्रण किया गया है कि जब प्रेमी और प्रेमिका प्रफुल्लित होते हैं, तो प्रकृति भी आनन्दित और हर्षित नज़र आती है, वरना प्रत्येक वस्तु उदासीन-सी हो जाया करती है।
वियोग या विरह की गाथाएँ, प्रेम-गाथाएँ इस बारहमासा का जीवन्त दस्तावेज़ हैं। उस परम प्रियतम के व्यक्तित्व और गुणों की नींव पर सन्तकाव्य की पहली कृति 'चन्दायन' की रचना से पहले भारत की संस्कृत, अपभ्रंश और लोकभाषाओं या स्थानीय बोलियों में मौसमों और ऋतुओं के वर्णन के साथ काव्य की यह विधा 'बारहमासा' मानो अनिवार्य ठहराई गई। इसलिए इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अवधी रूप में सन्तकाव्य लिखनेवाले अग्रगण्य कवियों ने लोकभाषा की रीति, प्रकृति और उसके नियम से प्रभाव अवश्य ग्रहण किया होगा। इस काव्य पर चिन्तन-मनन करते समय अगर हम रुतसिंगार, मेघदूत, कपूर संजरी, दर्श-रत्नाकर, यूसुफ़-जुलेखा, सन्देसरासक की शौलियों और शब्दावलियों को देखें तो इस विधा पर पड़नेवाले प्रभाव को स्पष्ट रूप से मान लिया जाएगा।
इस दृष्टि से चन्दायन (1397 ई.), मृगावती (1503 ई.), पद्मावत (1540 ई.), मधुमालती (1545), चित्रावली (1613 ई.), हंस-जवाहर (1736 ई.), इन्द्रावती (1749 ई.) इन सभी प्रेमगाथाओं की प्रतिलिपियाँ उपयोगी और विवेचनीय हैं।
सामान्यतः पद की रचना का आधार वस्तुतः प्रकृति की सतरंगी ऋतुओं और मौसमों का आकर्षक सुन्दर दृश्य है, परन्तु कवियों की वैचारिक योग्यता में जनसामान्य की स्वीकृति और अभिरुचि पर आधारित एक विशेष जिज्ञासा दिखाई पड़ती है।
कुछ शोधर्थियों का कहना है कि 'तसव्वुफ़' (सन्तवाद) एक बाहरी या विदेशी दर्शन का नाम है, परन्तु भारत-भूमि पर सूफ़ी-सन्तों ने प्रेम-साधना के आन्दोलन को एक ऐसा क्रान्तिकारी चरित्र दिया, जिसका मुख्य उद्देश्य था इस पंथ के द्वारा इस्लाम को भारतीय लोकजीवन के निकट लाना। यह बात भी सच है कि लोकजीवन की संवेदनशील झाँकियों को प्रकट करने के लिए लोक संस्कृति या सामाजिक, लोक-जीवन, सभ्यता और संस्कृति तथा वातावरणीय संचार के साधन अर्थात् ग्राम-ग्रामीण, नदी-नाले, जंगल, पहाड़, खेती-बाड़ी, सर्दी-गर्मी, वर्षा-वसन्त, हेमन्त, होली-दीवाली, सांझ सकार, फूल-फ्लावर, झूला-हिंडोला इत्यादि के सर्वव्यापी रंग और गीत-संगीत, रीति-रिवाज को अपनी रचनाओं के साथ जोड़कर प्रस्तुत करने में ही मूल उद्देश्य के द्वार खुलते हैं।
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