जीत और हार का आज का यह मानस मंथन मनुष्य के मन में उसके देह धारण करने और चाहत के प्रथम उन्मेष के समय से ही शुरू हो जाता है। सबसे पहले जो चाहत उसके मन में जगी होगी, वह निश्चित रूप से उसकी देह की सुरक्षा की ही रही होगी। देह की बुनियादी आवश्यकताओं को जुटाते जुटाते उसे पता ही नहीं चला होगा कि कब उसने दैहिक सुख संसाधनों को बटोरने में अपनी उपलब्धियों की सार्थकता पानी शुरू कर दी। जब सुखभोग के अतिभार ने उसकी देह को क्षीण करना शुरू कर दिया होगा, तो मन ने तनावों का दबाव भी बनाना शुरू कर दिया होगा। कमजोर तन और बोझिल मन ने उसके सुखों के अतिभार से झुके उसके समस्त वजूद को ही अवसाद के गहरे कूप में धकेलना शुरू कर दिया होगा और फिर हार-जीत का एक दूसरा दौर शुरू हो गया होगा।
आज मुझे अपने चारों ओर अधिकतर युवा से लेकर प्रौढ़ चेहरे अवसाद ग्रस्त दिखाई देते हैं, तो मेरा लेखक मन इसके अनोखे युग-भाव के मूल में विद्य भूमिका मान कार्य-कारण संबंधों की खोज में आकुल-व्याकुल हो उठता है। अपनी इस बेचैनी में मैं अपने आज को टटोलने लगती हैं। मेरा आज तो ऐसी घटनाओं के घटाटोप से भरा हुआ है। इस संस्कारी संस्कृति में ये विकारी तत्त्व शायद बाहर से आए होंगे या पहले भी कभी हमने ऐसी दुविधा झेली होगी और ऐसा सोचते ही मेरा आत्म-संस्कृति के प्रति गौरव से भरा मन निर्मम परीक्षण को लेकर असहज हो उठा था; लेकिन मेरी जिज्ञासा मुझे पीछे घूमकर देखने को विवश कर देती है। जब मैंने सभ्य मानव के शुरुआती दरवाजों में झाँकना शुरू किया तो मैं चकित रह गई कि हमारी आज की निजी से लेकर पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक आदि-आदि समस्याओं-समाधानों के मॉडल तो हमारे इस कल में ही दुबके हुए हैं।
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