दो शब्द
हिन्दी नाटक रंगमंच की किसी विशेष परम्परा के साथ अनुस्यूत नहीं है । पाश्चात्य रंगमंच की उपलब्धियाँ ही हमारे सामने हैं । परन्तु न तो हमारा जीवन उन सब उपलब्धियों की माँग करता है, और न ही यह सम्भव प्रतीत होता है कि हम उस रंगशिल्प को व्यापक रूप से ज्यों का त्यों अपने यहाँ प्रतिष्ठित कर दें ।
हिन्दी रंगमंच के विकास से निस्सन्देह यह अभिप्राय नहीं है कि अत्याधुनिक सुविधाओं से सम्पन्न रंगशालाएँ राजकीय या अर्द्धराजकीय संस्थाओं द्वारा जहाँ-तहाँ बनवा दी जाएँ जिससे वहाँ हिन्दी नाटकों का प्रदर्शन किया जा सके । प्रश्न केवल आर्थिक सुविधा का ही नहीं, एक सांस्कृतिक दृष्टि का भी है । हिन्दी रंगमंच को हिन्दी-भाषी प्रदेश की सांवृतिक पूर्तियों और आकाँक्षाओं का प्रतिनिधित्व करना होगा, रगों और राशियों के हमारे विवेक- को व्यक्त करना होगा । हमारे दैनंदिन जीवन के राग-रंग को प्रस्तुत करने के लिए, हमारे सम्वेदों और स्पन्दनों को अभिव्यक्त करने के लिए, जिस रंगमंच की आवश्यकता हे, वह पाश्चात्य रंगमंच से कहीं भिन्न होगा । इस रंगमंच का रूपविधान नाटकीय प्रयोगों के अभ्यन्तर से जन्म लेगा और समर्थ अभिनेताओं तथा दिग्दर्शकों के हाथों उसका विकास होगा ।
सम्भव है यह नाटक उन सम्भावनाओं की खोज में कुछ योग दे सके ।
पात्र
अम्बिका : ग्राम की एक वृद्धा
मल्लिका : उसकी पुत्री
कालिदास : कवि
दन्तुल : राजपुरुष
मानतुल : कवि-मातुल
निक्षेप : ग्राम-पुरुष
विलोम : ग्राम-पुरुष
रंगिणी : नागरी
अनुस्वार : अधिकारी
प्रियंगुमंजरी : राजकन्या-कवि-पत्नी
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