राजगृह को मगध महाजनद की प्रथम राजधानी होने का गौरव प्राप्त है। बुद्ध एवं महावीर को समान रूप से प्रिय यह स्थल शताब्दी ई.पू. से ही राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक गतिविधियों में अग्रणी रहा था। सैंधव सभ्यता के अवसान के पश्चात् महाजनपद काल में भारतीय क्षेत्र में पुनः नागरिक सभ्यता का पुनर्जन्म हुआ। उस समय भारत के छह महानगरों में राजगृह को सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। वहाँ पर छठी ई.पू. से पालकाल तक के स्थापत्य अवशेष प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त मौर्य काल से पालकाल तक की ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन सम्प्रदाय की प्रतिमायें भी बहुतायत से प्राप्त हुयी हैं। प्राचीन काल से ही यह स्थान नागपूजा का केन्द्र रहा है। छठी शताब्दी ई.पू. के स्थापत्य एवं कला के अवशेष अन्य स्थलों पर दुलर्भ हैं। अतः राजगृह प्राचीन भारतीय स्थापत्य एवं कला के इन अवशेषों के कारण इस विधा के विद्यार्थियों एवं शोधार्थियों के आकर्षण का केन्द्र है। प्रस्तुत पुस्तक में विद्वान लेखकों ने राजगृह के स्थापत्य एवं मूर्तिकला पर महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध कराई है। कला एवं स्थापत्य के प्रेमियों, छात्रों एवं शोधार्थियों के लिए यह पुस्तक विशेष उपयोगी होगी।
चितरंजन प्रसाद सिन्हा (15 फरवरी, 1941)
पूर्व निदेशक, काशी प्रसाद जायसवाल शोध संस्थान, पटना का सम्पूर्ण जौवन कला एवं पुरातत्व के अध्ययन, अनुशीलन में पूर्ण एकाग्रता से समर्पित है। डॉ. सिन्हा ने भारतीय, संस्कृति इतिहास, पुरातत्व, कला तथा विरासत में शोध तथा अध्ययन अनुसंधान के क्षेत्र में स्पृहणीय प्रतिष्ठा अर्जित की है। लेखन की दृष्टि से डॉ. सिन्हा ने कई महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी है। उनकी महत्वपूर्ण कृतियों के नाम हैं. अली स्कल्पचर्स ऑफ बिहार (1980), प्राचीन भारतीय अभिलेखिकी एवं लिपि (1975) विरासत का संरक्षण एवं उनके विभिन्न आयाम, (2006). झारखण्ड के प्रमुख शैव मंदिर (2014), बिहार प्राइड ऑफ इण्डिया एण्ड द वर्ल्ड (2020) प्री एण्ड प्रोटो हिस्ट्री ऑफ झारखण्ड (2018), आर्ट एण्ड आर्यालोजी इन बिहार, (2018), आर्ट एण्ड आर्किटेक्चर ऑफ झारखण्ड (2023), भारतीय संस्कृति एवं कला के विभिन्न आयाम (2024).
डॉ. सिन्हा का कला एवं पुरातत्व के विभिन्न पक्षों पर लगभग 240 शोध निबंध विभिन्न रिसर्च जर्नलों में प्रकाशित हैं। इसके अतिरिक्त इन्होंने तीस से अधिक ग्रन्थों का सम्पादन भी किया है। इनके मार्ग दर्शन में 14 छात्र-छात्राओं ने पी-एचडी की उपाधि प्राप्त की है। सम्प्रीति डॉ. सिन्हा इन्डियन ऑर्ट हिस्ट्री कांग्रेस के परामर्शी भी है।
अलखदेव प्रसाद श्रीवास्तव (जन्मतिथि 19 जुलाई, 1949)
की कला संस्कृति एवं पुरातत्व के अध्ययन अध्यापन में गहरी अभिरूचि है। इस विषय से संबंधित इनके तीस से अधिक शोध निबंध शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। "नालंदा की स्थापत्य एवम् मूर्ति कला" तथा "पुरातत्व परिचय-बिहार के संदर्भ में "शीर्षक की दो पुस्तकें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं। डॉ. श्रीवास्तव ने कई शोध ग्रन्थों एवं जर्नल्स के सम्पादक/सहम्पादक का दीयत्व निर्वहन किया। पुरातत्विक स्थलों के अन्वेषण-उत्खनन एवं संरक्षण में इनकी उल्लेखनीय भूमिका रही है। सरकारी सेवा से निवृति के उपरांत भी ये सांस्कृतिक एवं पुरातत्विक कार्यों में सक्रिय हैं। सम्प्रति पुरातत्व एवं संग्रहालय विज्ञान विभाग रांची विश्वविद्यालय में अतिथि शिक्षक के रूप में अध्यापन कार्य के संलग्न है।
भारत के इतिहास में मगध का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान है। मगध के नेतृत्व में ही भारत एक राष्ट्र के रूप में संगठित हुआ था और राजगृह उसकी प्रथम राजधानी थी। राजगृह से ही मगधराज श्रेणीय विम्बिसार ने सर्वप्रथम महाजनपदों के एकीकरण का कार्य प्रारंभ किया था। राजगृह न केवल राजनीति का केंद्र था अपितु सभी संप्रदायों का आश्रय स्थल भी था। बुद्ध को यह नगर सर्वाधिक प्रिय था। तभी तो ऋषिपत्तन के मृगदाव (सारनाथ) में धर्मचक्र प्रवर्तन के पश्चात् सर्वप्रथम उन्होंने मगधराज श्रेणीय बिम्बिसार से मिलने हेतु राजगृह की यात्रा की। राजगृह में ही बौद्धधर्म को प्रथम राजकीय संरक्षण एवं भूमिदान मिला था। बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में राजगृह का महान योगदान था। धर्म के अधिकांश नियम-कानून, आचार-विचार यहीं निर्धारित किए गये थे। यहीं पर बुद्ध पर देवदत्त द्वारा प्राणघातक हमले किये गये थे तथा बौद्धसंघ को आपसी फूट का शिकार होना पड़ा था। बौद्धों के अतिरिक्त जैनियों के लिए भी यह नगर परम पवित्र था। यहीं पर बीसवें तीर्थकर मुनि-सुव्रत का जन्म हुआ था। बौद्ध एवं जैन मतावलंबियों के अतिरिक्त तत्कालीन अन्य सभी संप्रदायों को राजगृह में प्रश्रय मिला था।
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