ईसा-पूर्व के भारत में जहां मगध जैसा साम्राज्य और अनेक छोटे-बड़े राज्य थे, वहीं अनेक गण अर्थात् नगर राज्य भी पूरे उत्तरी भारत में अपनी स्वतन्त्र सत्ता बनाये थे। राजा और सम्राट् इन नगर राज्यों को किसी भी उपाय से अपने राज्य में मिलाने को व्यग्र रहते थे। पर ये गण राज्य भी अपने उन्मुक्त अस्तित्व की रक्षा के लिये हर बलिदान देने को कटिबद्ध मिलते थे। बुद्ध के काल में वैशाली के गण तन्त्र को मगध सम्राट् अजातशत्रु ने भारी नर-संहार के बाद अपने साम्राज्य का अंग बनाया था और अशोक द्वारा कलिंग पर किया गया आक्रमण तो इतिहास प्रसिद्ध है ही। राजनीतिक तल पर चलते इस द्वन्द्व के समानान्तर उस काल के वैयक्तिक-सामाजिक जीवन में एक और द्वन्द्व कहना चाहिये, अन्तर्द्वन्द्व, भी सर्वव्याप्त था, जो बुद्ध द्वारा पारिवारिक सांसारिक जीवन को त्याग कर निर्वाण की साधना को व्यक्ति का चरम लक्ष्य प्रचारित करने के बाद अत्यन्त गहन और व्यापक रूप ले गया था। यह था गृहस्थ और सन्यास के बीच का अन्तर्द्वन्द्व। बुद्ध ने गृहस्थ और समाज के नैसर्गिक दायित्वों से पलायन को ऐसी आध्यात्मिक प्रतिष्ठा प्रदान कर दी थी कि हर व्यक्ति, वह भिक्षु हो या गृहस्थ, संसार को असार, मोह-बन्ध और विपथ मान बैठा था; और यह धारणा उसके अवचेतन में समा गई थी। तब से आज तक हिन्दू मानसिकता इससे मुक्त नहीं हो पाई है, यह देखते हुए भी कि भिक्षु या सन्यासी बनकर एक काल्पनिक निर्वाण या मोक्ष की साधना करने वालों का भौतिक अस्तित्व इस कुत्सित संसार पर ही निर्भर रहा है। संसार के बोझ को और उसकी चुनौतियों को हम विवश भाव से और बेमन से ही झेलते आये हैं। विगत दो हज़ार वर्षों के बीच हमारी अगणित पराजयों के पक्ष में हमारी यही रुग्ण मानसिकता रही है। उपरोक्त राजनीतिक द्वन्द्व पर और इस आध्यात्मिक पलायनवाद पर चिन्तन ही इस काव्य का मूल विषय बना है। मेरी सोच है कि मोक्ष या निर्वाण की वायव्य कल्पना ने व्यक्ति और समाज की नैसर्गिक स्वस्थ परस्परता को विकृत और अस्वस्थ बनाया है, क्योंकि निर्वाण का लक्ष्य अपरिहार्य रूप से व्यक्तिवादी और समाज-निरपेक्ष है। यथार्थ यह है कि भौतिक संसार और अध्यात्म मानव- जीवन की सरल रेखा के दो अनिवार्य सिरे हैं; ये एक ही नदी के दो तट हैं। मनुष्य दो पैरों पर चलता है और दो हाथों से काम करता है। एक पैर या एक हाथ के अशक्त होने या न रहने पर विफलता और कुण्ठा ही उसकी झोली में पड़ती है। अध्यात्म का लक्ष्य जीवन-सापेक्ष अन्तर्दृष्टि का और अन्तरंग ऊर्जा का विकास ही हो सकता है, मोक्ष या निर्वाण नहीं।
'अपराजिता' का कथानक जातकों में एक 'वेस्सन्तर' जातक पर आधारित है, जिसमें दान के माहात्म्य को दर्शाया गया है। यह मूल कथा काव्य में पूरी तरह परिवर्तित हो गई है। केवल पात्रों के नाम - वेस्सन्तर, माद्री, संजय, जालि, कृष्णा ही सुरक्षित रहे हैं। शेष पात्र इला, सुमन, रत्न, रुद्र आदि काल्पनिक हैं।
यह काव्य काव्यशास्त्र के नियमों से बंध कर नहीं, उन्मुक्त उपन्यास शैली में लिखा गया है। इसलिये इसे 'काव्योपन्यास' कहना अधिक संगत होगा। यह एक छन्दोबद्ध रचना है। हर अध्याय में छन्द बदल जाता है। छन्द तुकान्त भी हैं, अतुकान्त भी। एक प्रयोग भी इसमें हो गया है। कुछ छन्द चार पंक्तियों के न होकर पांच पंक्तियों के बने हैं। पांचवीं पंक्ति टेक की ध्वनि देती है। मात्राओं की गणना का पूरा ध्यान रखा गया है। इस सम्बन्ध में स्वच्छन्दता नहीं बरती गई है। अधिक क्या ? कृति का मूल्यांकन तो पाठकों के हाथों में ही है।
अन्त में बन्धुवर जवाहरलाल गुप्त का मैं अत्यन्त आभारी हूँ, जिनके प्रेमपूर्ण सहयोग से ही 'अपराजिता' को प्रकाश मिल पा रहा है।
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