इस पुस्तक के लिखने का असली मुद्दा व मकसद इन्सान को उसकी असलियत से आगाही कराना है। इन्सान असर्फ मखलुकात है यानी फोकुल वसीर है इसका दर्जा जानवरों में सबसे बड़ा है यानी यह नर नारायणी देह है। कुदरत ने इसको मुकम्मिल (पूरा) बनाया है। इसकी हैसियत सब से बड़ी है। यह खुद मालिक का स्वरूप है। इस मनुष्य खोल को देवी देवता भी तरसते हैं, क्योंकि ईश्वर भक्ति इस इन्सानी जामें में ही हो सकती है जो जरियाए नजात है। सन्तमत पूरी विद्या है। वह इल्म शीना है। धुनात्मिक है, वातनी है और प्रेम मार्ग है, इल्म जात है। इससे बेहतर और कोई इल्म नहीं। जब तक अपनी समझ इन्सान को आती नहीं तब तक दिल की परेशानी जाती नहीं। इन्सान को इतनी समझ नहीं है कि वह जिस मालिक की तलाश में हैरान और परेशान है वह इसके अन्दर है।
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