विद्यालयी शिक्षा के सभी स्तरों के लिए अच्छे शिक्षाक्रम, पाठ्यक्रमों और पाठ्यपुस्तकों के निर्माण की दिशा में हमारी परिषद् पिछले पच्चीस वर्षों से कार्य कर रही है। हमारे कार्य का प्रभाव भारत के सभी राज्यों और संघशासित प्रदेशों में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से पड़ा है और इस पर परिषद् के कार्यकर्ता संतोष का अनुभव कर सकते हैं।
किन्तु हमने देखा है कि अच्छे पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों के बावजूद हमारे विद्यार्थियों की रुचि स्वतः पढने की ओर नहीं बढ़ती। इसका एक मुख्य कारण अवश्य ही हमारी दूषित परीक्षा प्रणाली है जिसमें पाठ्यपुस्तकों में दिये गए ज्ञान की ही परीक्षा ली जाती है। इस कारण बहुत कम विद्यालयों में कोर्स के बाहर की पुस्तकों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहन दिया जाता है। अतिरिक्त पठन में रुचि न होने का एक बड़ा कारण यह भी है कि विभिन्न आयु-वर्ग के बच्चों के लिए कम मूल्य की अच्छी पुस्तकें पर्याप्त संख्या में उपलब्ध भी नहीं हैं। यद्यपि कुछ वर्षों में इस कमी को पुरा करने के लिए कुछ काम प्रारंभ हुआ है पर वह बहुत ही नाकाफ़ी है।
इस दृष्टि से परिषद् ने बच्चों के लिए पुस्तक लेखन की दिशा में एक महत्वाकांक्षी योजना प्रारंभ की है। इसके अंतर्गत "पढ़ें और सीखें" शीर्षक से एक पुस्तकमाला तैयार करने का विचार है जिसमें आयु वर्ग के बच्चों के लिए सरल भाषा और रोचक शैली में अनेक विषयों पर बड़ी संख्या में पुस्तकें तैयार की जाएँगी। हम आशा करते हैं कि 1991 के अंत तक हम निम्नलिखित विषयों पर हिंदी में 50 पुस्तकें प्रकाशित कर सकेंगे।
लगभग 27 वर्ष पूर्व यह पुस्तक प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक में, 'एनी बेसेंट' के परिचय के साथ-साथ उनके जीवन पर्यन्त किए गए जन कल्याणकारी कार्यों को शब्द- स्वरूप देकर सजीव रखने की एक कोशिश मेरे द्वारा की गई है। इंसान द्वारा इंसानियत के साथ किया गया हर कृत्य मानव कल्याण का हित साधक होता है। विश्व ख्याति प्राप्त ऐसी महान महिला के बारे में यह एक लघु पुस्तिका है। उनके कृत्यों का पृष्ठांकन तो और भी विस्तृत हो सकता था, पर मैंने तो गागर में सागर भरने का प्रयत्न कर पाठक को थोड़े में ही बहुत कुछ बताने का प्रयत्न किया है, क्योंकि आज का युग 'मोबाइल- युग' बन चुका है। मोबाइल ने आदमी को अपना बनाकर उसे अपने में ही समेट लिया है। अब आदमी के पास वक्त ही कहाँ बचा है कि वह बड़ी-बड़ी पुस्तकों को पढ़े और परिणामस्वरूप पाठक की पठन-पाठन की आदत भी छूटती-सी जा रही है। चूँकि, इस पुस्तक को पाठक ने जिज्ञासु बनकर पढ़ा, इसी कारण इसका महत्व बढ़ा और अब एक बार फिर से यह पुस्तक अपनी नई सज्जा के साथ आपके हाथों में है।
आज महिलाओं के सशाक्तिकरण की दिशा में प्रत्येक क्षेत्र में कार्य किए जा रहे हैं। परंतु 'एनी बेसेंट' ने इन कार्यों को आधी शताब्दी के पहले ही जनमानस में आरंभ कर दिया था, विशेषकर महिलाओं के उत्थान के लिए।
'एनी बेसेंट' को भारतीय कहलाने में गर्व की अनुभूति होती थी। भारत की संस्कृति, भाषा एवं लोकजीवन से उन्हें प्रेम था, अपनत्व था। उन्नीसवीं शताब्दी में भारत की जनता की गरीबी और निरक्षरता ने उन्हें झकझोर कर रख दिया था। परंतु, ऐसे वातावरण में भी उन्हें इन भोले लोगों में स्नेह और सरलता की छवि दिखती थी। इस छवि को निराहरने की शक्ति उन्हें उनकी भारतीयता से ही मिलती थी।
वे उच्चकोटि की वक्ता थीं। अतः उन्होंने अपने व्याख्यानों को अपने विचार व्यक्त करने का माध्यम चुना। उनके व्याख्यान बहुत लोकप्रिय हुए। वे गीता से बहुत प्रभावित थीं। उन्होंने ही सर्वप्रथम गीता का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया था। भारत के लिए, यह उनका पहला उपहार था, जो गीता के महत्व को विश्व-पटल पर दर्शाने में सहभागी बना।
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