इतिहास की संरचना साक्ष्य सापेक्ष्य होती है। इतिहासकार अतीत की घटनाओं का स्वयं साक्षी नहीं होता, अतः यह पुरावशेषों से ज्ञात तथ्यों के आधार पर इतिहास का निर्माण करता है। प्राचीन भारतीय इतिहास के संदर्भ में शादी तथा पदार्थी परम्परा के अवशेष समान रूप से महत्वपूर्ण है। शाब्दी परम्परा प्राधीन भारतीय साहित्य में सुरक्षित है. जबकि पदार्थी परम्परा पुरातत्व से ज्ञात विविध उपकरणों के रूप में उपलब्ध है। यद्यपि ये दोनों ही इतिहासकार के लिए अत्यन्त उपयोगी है तथापि पुरातात्विक साक्ष्य अपने अविकल रूप में प्राप्त होने के कारण अधिक विश्वसनीय माने जाते हैं। पुरातात्विक साक्ष्यों के अन्तर्गत प्राधीन मुद्राओं और अभिलेखों का विशिष्ट स्थान है। यद्यपि मुद्राओं का निर्माण अपने समय की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति क्रय-विक्रय तथा लेन-देन को दृष्टि में रखते हुए हुआ। तथापि कालान्तर में ये इतिहास के अनेक अज्ञात एवं अल्पज्ञात पक्षों के उद्घाटन में सहायक सिद्ध हुई।
आधुनिक काल में भारतीय मुद्राशास्त्र का अध्ययन यूरोपीय पुराविदों के प्रयास से आरम्भ हुआ। इन विद्वानों का ध्यान उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भिक दशकों में ही भारत की प्राचीन मुद्राओं की ओर आकृष्ट हुआ। प्रारंभिक चरण में यह आकर्षक केवल जिज्ञासा और कौतूहल का कारण था, लेकिन धीरे- धीरे ऐतिहासिक अध्ययन के स्रोत के रूप में मुद्राओं की महत्ता की पहचान हुई। कतिपय राजकीय अधिकारियों ने जिनकी अभिरुचि प्राचीन मुद्राओं के संकलन में थी, अपनी संग्रहीत मुद्राओं की जानकारी पुरातत्वविद जेम्स प्रिसेप को दी। उन्होंने इनके महत्व के सम्बन्ध में 'रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल में लेख लिखे, जो बाद में दो खण्डों में प्रकाशित हुए। प्रिंसेप के उपरान्त मुद्राशास्त्रीय अध्ययन को अलेक्जेंडर कनिधम ने आगे बढ़ाया। पुरातात्विक सर्वेक्षण के संदर्भ में उन्हें विभिन्न प्रकार की प्राचीन भारतीय मुद्राये देखने को मिली, जिनका विवरण उन्होंने 1862 ई. और 1884 ई के बीच प्रकाशित अपने सर्वेक्षण वश्तान्त में दी। उन्होंने प्राचीन भारतीय मुद्राओं पर प्रकाश डालने वाली कतिपय पुस्तकें भी लिखीं। इसके बाद के वर्षों में अनेक अवकाश प्राप्त अंग्रेज अधिकारियों ने मुद्राशास्त्रीय अध्ययन में रुचि दिखाई। उन्होंने अपने पास संग्रहीत प्राचीन भारतीय मुद्राओं को लदन के ब्रिटिश संग्रहालय को अध्ययन और अनुसंधान के लिए दिया इन मुद्राओं का व्यवस्थित अध्ययन स्टेनली लेनपून ने किया तथा उनकी अनेक सूचियों प्रकाशित की। भारत में पंजाब की प्रातीय सरकार ने लाहौर संग्रहालय के लिए सी.जी. राजर्स संग्रहीत मुद्राओं को क्रय किया। राजर्स ने 1891 ई. में अपने इस संग्रह की सूची स्वयं पांच खण्डों में प्रकाशित की। उन्होंने कलकत्ता के 'इण्डियन म्यूजियम में संग्रहीत मुद्राओं की सूची भी चार खण्डों में प्रस्तुत की। इस प्रक्रिया में विभिन्न संग्रहालयों भारतीय मुद्राओं का अध्ययन क्रमशः आगे बढ़ता गया।
बीसवी सदी के प्रारम्भिक दशकों में मुद्राशास्त्रीय अध्ययन के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई। 1910 ई. में भारतीय मुद्रा परिषद की स्थापना हुई। इसमें मुद्राओं के संग्रहकर्ताओं तथा मुद्राशास्त्रियों ने अपनी खोजों को प्रस्तुत करना प्रारम्भ किया। 1918 ई. में सबसे पहले कलकत्ता विश्वविद्यालय ने स्नातकोत्तर स्तर पर भारतीय इतिहास और सस्कृति के अध्ययन को मान्यता प्रदान की तथा पुरातत्व के अध्ययन को इसके अन्तर्गत स्थान दिया इस प्रक्रिया में पुरातत्व के एक अंग के रूप में मुद्राशास्त्र का अध्ययन भी प्रारम्भ किया गया। कलकत्ता विश्वविद्यालय के दामोदर रामकृष्ण भण्डारकर ने प्राचीन भारतीय मुद्राओं से सम्बन्धित अनेक व्याख्यान दिये जो 'कार्माइकेल लेक्चर्स' के नाम से प्रकाशित हुआ। इसके बाद क्रमशः अनेक विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर स्तर पर प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति का अध्ययन प्रारम्भ हुआ और उसके अन्तर्गत मुद्राशास्त्र का अध्ययन और अनुसंधान होने लगा। 1936 ई. से 'भारतीय मुद्रा परिषद' ने अपनी शोध पत्रिका प्रकाशित करनी प्रारम्भ की। इसके सम्पादन का कार्य काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति विभाग के अध्यक्ष डॉ. अनन्त सदाशित अल्तेकर ने सम्भाला। भारतीय मुद्रा परिषद द्वारा प्रकाशित यह पत्रिका अद्यावधि मुद्राशास्त्रीय अध्ययन एवं अनुसंधान में संलग्न है। इसमें प्रकाशित मुद्राशास्त्रीय अनुसंधानपरक लेखों ने भारतीय इतिहास के अनेक अज्ञात पक्षों को उजागर किया है। अल्तेकर महोदय की शिष्य परम्परा में अवध किशोर नारायण, डॉ. वी. एस. पाठक, परमेश्वरी लाल गुप्त एवं अजय मित्र शास्त्री ने मुद्राशास्त्रीय अध्ययन के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान दिया। इस समय भारत के अधिकांश विश्वविद्यालयों में 'प्राचीन भारतीय इतिहास, पुरातत्व एवं संस्कृति विषय के अन्तर्गत प्राचीन भारतीय मुद्राओं का अध्ययन एवं अनुसंधान हो रहा है। प्रायः प्रतिवर्ष भूमि में छिपी कुछ ऐसी प्राचीन मुद्राएँ प्राप्त होती है, जिनके अध्ययन से भारतीय इतिहास पर कुछ नया प्रकाश पड़ता है।
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