प्रस्तुत ग्रन्थ में मूर्धन्य शिरोमणि ज्ञानमूर्ति आचार्य वासुदेवशरण अग्रवाल जी ने भारतीय लोकधमों की रूपरेखा का विस्तृत वर्णन किया है। वस्तुतः उन्होंने वेदोक्त धर्म के द्वारा लोकधर्म की तथा लोक के द्वारा वैदिक धर्म की सिद्धि करने का अद्भुत कार्य किया है।
इस ग्रन्थ में 15 अध्याय हैं जिनमें उन्होंने वैदिकदेवता और लोक-देवता, लोकदेवताओं की सूचियाँ, भागवत् साहित्य में लोक देवता, प्राकृत ग्रन्थ में देवी-देवताओं की सूचियाँ, पुराणों में देवी-सूची, धनुर्मह, गिरिमह, इन्द्रमह, नदीमह, खन्दमह, रुद्रमह, नागमह, वृक्षमह, सागरमह, दरीमह, स्तूपमह, चैत्यमह, मुकुन्दमह, श्री देवता की पूजा, यक्षमह इत्यादि को पारिभाषित किया है। इसके अतिरिक्त शिवमह, वैश्रवणमह, भूतमह, तडागमह, पर्वतमह, उद्यानमह, धनुर्मह, काममह, ब्रह्ममह, चन्द्रमह आदि का सङ्केत भी विभिन्न स्रोतों को आधार बना कर किया है।
ज्ञानमूर्त्ति आचार्य वासुदेवशरण अठावाल वेद, उपनिषद्, स्मृतिशास्त्र, पुराण, रामायण, महाभारत आदि संस्कृत वाङ्मय के मूर्धन्य विद्वान् तो रहे ही हैं; इसके अतिरिक्त भारतीय पुरातत्त्व, भारतीय कला, पालि, प्राकृत साहित्य, तिब्बती के साथ-साथ संग्रहालय प्रबन्धन के भी कार्यकुशल ज्ञाता रहे हैं।
वर्त्तमान में पृथिवी प्रकाशन वाराणसी द्वारा इनके ग्रन्थ प्रकाशित किये जा रहे हैं, जिनमें प्रमुख है|
यद्यपि इस नवतर विद्याप्रवृत्ति का बीजवपन प्रधान रूप से पाश्चात्य विद्वानों ने किया है, पर फलस्वरूप भारतीय विद्यामानस भी इसमें बहुत रस लेने लगा, जिससे भारतीय पुरातन विद्यासंस्कार पुरानी प्रणालियों के साथ-साथ इस नवतर प्रणाली की भी उपासना करने लगा। इस उपासना के परिणामस्वरूप भारत में जुदे-जुदे क्षेत्र में, जुदे-जुदे विषयों पर, सोचने और लिखने वाला एक खासा वर्ग अस्तित्व में आया। इस वर्ग के सभी विद्वान् समान कोटि के नहीं हैं, फिर भी उसका एक हिस्सा ऐसा अवश्य है कि जिसके नाम और काम से दुनियाभर के सुविद्वान् प्रभावित हैं। डॉ० वासुदेव शरणजी का स्थान ऐसे विरल विद्वानों की अग्रिम पंक्ति में है। उनका संस्कृतज्ञान याचितकमण्डन नहीं है, अतएव प्राकृत-पालिभाषा का परिचय भी उनका मूलगामी है। वे वेद, उपनिषद्, पुराण आदि वैदिक समग्र वाङ्मय के अवगाहनशील विद्वान् तो हैं ही, पर साथ ही उन्हें जैन और बौद्ध वाङ्मय का परिचय भी पर्याप्त है।
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