प्रथम संस्करण का प्राक्कथन
किसी जन्म-कुण्डली का फल विचार करते समय भारतीय ज्योतिषियों की दृष्टि सबसे पहले विंशोत्तरी दशा-महादशा के फल पर जाती है । इस दशापद्धति का निर्माण हमारे प्राचीन महर्षियों ने सृष्टि के किन वैज्ञानिक एवं शाश्वत नियमों के आधार पर किया, उसका विस्तृत विवरण संकलित फर मैं इस पुस्तक में देना चाहता था; क्योंकि विश्व की इस अप्रतिम महत्वशालिनी पद्धति की वैज्ञानिकता पर हमारे पाश्चात्य ज्योतिषी बन्धुओं ने भी इन दिनों गहन अनुसन्धान किया है और आधुनिक वैज्ञानिक प्रक्रिया ते उसकी महत्ता सिद्ध की है; किन्तु स्वास्थ्य, समय और स्थान तीनों की कमी के कारण उन सबसे अपने पाठकों को अवगत कराने का लोभ मुझे सम्प्रति संवरण ही करना पड़ रहा है ।
हम इस प्राचीन पद्धति की वैज्ञानिकता के विचार को जाने दे, तब भी आज इस पाश्चात्य भौतिकवाद की चकाचौंध में हमें यह देखकर महान् प्रसन्नता होती है कि हमारे पाश्चात्य ज्योतिषी बन्धु, जो कल तक इस पद्धति को उपपत्तिवाह्य, अवैज्ञानिक और अयुक्तिक मान कर फलादेश में स्वीकार करने के लिए तैयार न थे, उन्हें भी अब इस ओर ध्यान देने के लिए बाध्य होना पड़ रहा है । और जब एक बार वे इस ओर गहराई से ध्यान देते हैं तो इसकी अद्यत फलवत्ता पर मुग्ध होकर इसको सदैव के लिए अपना लेते हैं । यह इस पद्धति की उंत्कृष्टता का ज्वलंत प्रमाण है; किन्तु हम आत्म-प्रशंसा के आवेश में आकर इस पद्धति में आ गयी कई त्रुटियों को ओर से आख मूँदे रखना नहीं चाहते - जैसाकि इस देश के अधिकांश ज्योतिषी करते हैं । इस दिशा में नवीन अनुसन्धान-वृत्ति को त्याग कर और लकीर के फकीर बने रहकर ही हमारे ज्योतिषियों ने इस पद्धति का काफी खास किया तथा इसके द्वारा अत्यन्त स्थूल फलादेश को ही प्रचारित कर इस अप्रतिम पद्धति का अवमूल्यन भी किया है । इस विषय में हमारे पश्वाड़ूकार भी कम उत्तरदायी नहीं हैं; क्योकि यह सर्वविदित है कि दशा का स्फुटीकरण जन्म-चन्द्रस्पष्ट के आधार पर किया जाता है; किन्तु काशी के अधिकांश पुराने पञ्चात्रकार आज भी अपने पञ्चात्रों में दैनिक चन्द्र-स्पष्ट देने का कष्ट नहीं उठाते । फलत: दशास्फुटीकरण के गणीत में फलवेत्ताओं को पञ्चाङ्ग के दैनिक नक्षत्र का उपयोग करना होता है; किन्तु वह नक्षत्र-मान मध्यम होता है, स्पष्ट नहीं यह सभी सिद्धांन्तज्ञ जानते हैं । मध्यम नक्षत्र के आधार से जो दशा अन्तर्दशा स्पष्ट की जागेगी, वह भी मध्यम यानी स्मृत ही होगी; सूक्ष्म और यथार्थ नही ।
फलवेताओं की दुनिया में अभी भी यह विषय काफी विवादग्रस्त बना हुआ है कि फलादेश प्राचीन गणितागत ग्रहों के आधार पर किया जाना अधिक सत्य सिद्ध होता है अथवा आधुनिक वेधसिद्ध ग्रहों के आधार पर । जिस विवाद का विषय प्रत्यक्ष फलाफल से सम्बन्ध रखता है, वह विशेष समय तक अनिश्चित, अनिर्णीत अवस्था में नहीं टिक सकता; क्योंकि जिस भी पद्धति में अधिक फलदायिनी शक्ति होगी उसे जनता तो निःसंकोच अपना हो लेगी, ज्योतिषीगण को भी कालान्तर या प्रकारान्तर से कनाना ही होगा; अन्यथा फलित की अपनी जीविका से वे हाथ धो देंगे; प्रत्यक्ष को अन्य किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती । अत: जिससे प्रत्यक्ष में यथार्थ फल घटित होगा, उसका विकास, प्रसार और प्रतिष्ठा अनिवार्य है । आज से 422 वर्ष पूर्व श्रीगणेश दैवज्ञ नामक भारतीय प्राचीन (निरयण) ज्योतिष के एक महात् संशोधक हुए थे । उनके ग्रन्यों का निष्पक्ष अध्ययन करने से सर्वथा स्पष्ट हो जाता है कि वे अपने समय के एक उकष्ट खगोखवेत्ता, भारतीय ज्योतिष-सिद्धान्त के मर्मज्ञ विद्वान और क्रांति- द्रष्टा ऋषि-तुल्य महापुरुष थे । प्राचीन ग्रंथों से साधित ग्रहों के संस्थानों में जो अब।- ज्रि अंतर प्रत्यक्ष वेष से उस समय तक पड़ गया था, उसको बहुत हद तक उन्होंने अपने प्रसिद्ध 'ग्रहलाघव' करण-ग्रंथ द्वारा दूर किया । एक बात यहां नहीं भूलनी चाहिये कि प्रत्यक्ष से ठीक-ठीक मिलनेवाली ग्रह-गति-स्थिति जानने के लिए गणित को सुदीर्घ और क्लिष्ट प्रणालियों का उपयोग अनिवार्य होता है, लाघव से उतनी सूक्ष्मता आ नहीं सकती । और श्रीगणेश दैवज्ञ को दृग्गणितैक्य के साथ-साथ गणित- पद्धति का लाघव भी अभीष्ट था । इसलिए साधव पद्धति में किंचित स्थूलता रह जान? अनिवार्य था । उतनी स्थूलताओं के बावजूद भी उन्होंने नूतन करण-ग्रन्थ द्वारा भारतीय ज्योतिष में एक क्रान्ति कर दी ओर उनके गणित के आधार पर बने पञ्चाङ्गों का प्रचार और प्रतिष्ठा थोड़े ही समय में अत्यधिक बढ़ गयी । आज भी बिक्री की दृष्टि से काशी का जो पञ्चाक् सबसे आगे है उसमें ग्रहलाघव से ही सिद्ध यह दिये चाते हैं; किन्तु कितने शोक की बात है कि तिथि, नक्षत्रादि बनाने के लिए उसी ग्रह- लाघव की नितान्त उपेक्षा उक्त पश्वाक् में ही की जाती है । ग्रहलाघव के रविचन्द्र- स्पष्टाधिकार के श्लोक 8,9 में आचार्य ने एकदम स्पष्ट रूप से कहा है कि तिथि, नक्षत्र का सूक्ष्म, शुद्ध मान दैनिक सूर्य, चन्द्र-स्पष्ट पर से बनाना चाहिये; किन्तु उक्त पश्वाक् की बिक्री से सर्वाधिक आय होने पर भी आजतक उसमें अन्य ग्रहों के दैनिक स्पष्ट के साथ ग्रहलाघवोक्त त्रिफल संस्कृत चन्द्रस्पष्ट नहीं दिया जाता । अभी कुछ समय पूर्व इन पंत्तियों के लेखक ने उक्त पञ्चात्र के अध्यक्ष और सम्पादक स्व० 'विद्याणंवेन्'जी का ध्यान इस भारी त्रुटि की ओर आकर्षित किया था, जिससे उन्हें प्रसन्नता ही हुई और उन्होंने आगे से अपने पाचांग में दैनिक चन्द्रस्पष्ट देने के लिए उसका गणित भी आरम्भ किया था; किन्तु दुःख है कि उसी वर्ष उनकी हृदयमाति रुक जाने के कारण उनको आकस्मिक काशी-लाभ हो गया और अब उनका वह सत्प्रयास उनके उत्तराधिकारियों द्वारा कहां तक पूर्ण हो पाता है, नही कहा जा सकता, अस्तु । यहां के दीर्घकाय पश्चागों में: दैनिक चन्द्रस्पष्ट न देने के पीछे मुझे तो उनके प्रणेताओं का यही भाव दिखाई पडता है कि यदि वे अपने पञ्चांग मे दैनिक चन्द्रस्पष्ट देने लगते हैं तो उनको तिथि, नक्षत्रादि का सूक्ष्ममान भी दैनिक सूर्य, चन्द्र स्पष्ट पर से ही बनाना अर्पारहार्य हो जायगा; क्योंकि पूर्वाचार्यों ने इसका स्पष्ट आदेश दिया है अभी तक स्थूल सारणियों के सहारे जो अशुद्धतर एव मध्यम तिथि, नक्षत्र- मान बडी सरलता से यह लोग अपने पञ्चांगो में चलाये जा रहे है, वह तय नहीं चलाया जा सकेगा; क्योंकि गणित का साधारण विद्यार्थी भी उनकी अशुद्धियों और गलता को पकड़ लेगा इस प्रकार परिश्रम और अथ-व्यय से बचने की उनको मनोवृत्ति के अलावा अन्य कोई कारण हमारी समझ मे नही आता जो भी हो, उनकी इस मनोवृत्ति से हमारे फलित-भाग, खासकर दशा फलित को बडी-क्षति पहुँची है और पहुंच रही है अब समय आ गया है कि हम इस वास्तविकता से परिचित होकर पुरातन पञ्चांगो की इन त्रुटियों, स्थूलता और अधुद्धियों के निराकरण के लिये प्रयत्यशील हों हम यह नही कहते कि दृश्य, सूर्यसिद्धांन्त, मकरन्द या ग्रहलाघवादि की किसी एक ही पद्धति से समस्त पंचाग बनने चाहिऐ, किन्तु जिस भी पद्धति से कोई पंचाग बने उस पद्धति के अनुकूल गणित मे. जितनी अधिक-तें-अधिक सूक्ष्मता और शुद्धता की उपलब्धि सम्भव हो, उतनी तो अवश्य उस पचांग में रहनी चाहिए हम स्वय चिन्ताहरण जत्री' अर्थात भाग्योदय पंचाग मे सूर्य, चंद्रका दैनिक स्पष्ट तपा शेष सब ग्रहों का स्पष्ट हर तीसरे दिन का देते रहे-जिसमें दैनिक चंद्रस्पष्ट सबीज सूर्यसिद्धांतीय (आर्ष) और दृश्य दोनों प्रकार के होते थे । लौकिक, पार लौकिक पुण्यफलदायी समस्त श्रोतस्यार्त धर्मकृत्यानुष्ठानार्थ तक जातकादि के द्वारा अद्दष्ट फल- प्रकाशनार्थ, तिथि नक्षत्रादि आनयन मे प्रथम प्रकार के ही चंद्रस्पष्ट का उपयोग करना चाहिए तथा ग्रहण, उदयास्त, श्रृंङोघ्रति आदि प्रत्यक्ष दृश्य फलार्थ दूसरे प्रकार के वेधसिद्ध चन्द्र-स्पष्ट का उपयोग विहित है । अत. दशा.अन्तर्दशा-साधन के निमित्त हमारी निजी सम्मति दैनिक सबीज सौरपक्षीय चन्द्र-स्पष्ट का उपयोग करने के लिए है । चंद्रस्पष्ट से दशा-साधन की सारणी स्व-सम्पादित 'ज्योतिपरहस्य' गणित-खण्ड' दी गई है कुण्डकों के फल-विचारार्थ अत्यन्त उपयोगी एवं आवश्यकीय ग्रहों के ग्रन्थ, नीच, बलवत्तम भाव, कारक भाव, शत्रु, मित्र, समग्रह तथा द्दष्टि-विचारादि सब विषयो से विभूषित चक्र भी वही दिया गया है ।
वस्तुत: 'ज्योतिष-रहस्य' इस पुस्तक का अनुपूरक है और इसके प्रत्येक पाठक के पास उसकी भी प्रति होनी चाहिए भारतीय ज्योतिष के गणितफलित का अध्ययन सही तरीके से सर्वसाधारण आरम्भ कर सकें । इसी उद्देश्य से इन दोनो पुस्तको का प्रकाशन क्रिया गया है । हमे अत्यन्त प्रसन्नता है कि आधुनिक शिक्षित समुदाय से लेकर सर्वसाधारण में इन विषयों की रुचि बडी तीब्रता से जागृत हो रही है। उपरोक्त दोनों पुस्तको का विज्ञापन 'चिन्ताहरण जंत्री' में छपते ही उनकी माँगे निरन्तर बढ़ने लगीं । इससे उत्साहित होकर हम इन दोनों पुस्तकों का आगामी संस्करण यथेष्ट परिवर्धित रूप में प्रकाशित करेगे और उसकी विस्तृत भूमिका में विभिन्न प्रकार की दशा-पद्धतियों की तुलनात्मक समीक्षा भी रहेगी । भारतीय ऋषियों ने जिस युग में विंशोत्तरी दशा-पद्धति का निर्माण किया था, उस युग में मनुष्य की औसत आयु 120 वर्ष की थी; किन्तु आज जबकि मानव-आयु में काफी हास हो इका है क्या हमें इस पद्धति को समायानुकूल संशोधित न कर ज्यों कानके चलाते रहना चाहिये? इत्यादि दशा सम्बन्धी अनेकानेक विचारणीय प्रश्न है । हमारे नेपालदेशीय ज्योतिर्विदों ने तो इसमें संशोधन कर लिया है और वे 120 में तृतीयांश 40 कम कर आज मानव की औसत आयु 80 वर्ष मानकर दशा-साधन करते हैं यानी विंशोतरी पद्धति में निरूपित प्रत्येक ग्रह के दशा-अन्तर्दशाकालों का 2/3 ही वे ग्रहण करने हैं; जैसे सूर्य का महादशा-काल 6 वर्ष के बजाय 4 वर्ष तथा सूर्य का अन्तर्दशा. काल 3 मास 18 दिन के बजाय 2 मास 12 दिन, इत्यादि सर्व ग्रहों के दशान्तर्दशा कालों के विषय में इसी प्रकार समझिए । यदि हम उनकी प्रणाली से सहमत न हों तय भो मन तना तो मानना ही पड़ेगा कि दशा..विचार का बास्तविक फलनिरूपण हमारे ऋषियों को जातक के स्पष्टायु के आधार पर ही अभिप्रेत था; अस्तु । यहां समय और स्थानाभाव से इन तथा इन्हीं जैसे अन्य अनेक महत्वशाली विषयों पर विचार करने में हम असमर्थ हैं । इन सब विषयों पर विचार दशा-सम्बन्धी वृहद पुस्तक में ही किया जा सकता है । यह एक अत्यन्त सरल प्रारम्भिक संग्रह-पुस्तक है । इसमें स्थान-स्थान पर जिस उदाहरण-कुण्डली का उल्लेख हुआ है, वह पाठकों की जानकारी के लिए नीचे देते हुए हम उनसे सम्प्रति विदा लेते हैं; इति शिवम् ।
संक्षिप्त विषय-सूची
1
ग्रहों की साधारण महादशा का फल
2
सूर्य की महादशा का फल
3
चन्द्र की महादशा का फल
8
4
मंगल को महादशा का फल
13
5
राहु की महादशा का फल
18
6
बृहस्पति की महानन्दा का फल
19
7
शनि की महादशा का फल
24
बुध की महादशा का फल
28
9
केतु की महादशा का फल
32
10
शुक्र की महादशा का फल
33
11
ग्रहों की अन्तदशा का फल
37
12
अष्ट-सूत्र
38
प्रथम नियम
39
14
द्वितीय नियम-
41
15
तृतीय नियम
51
16
चतुर्थ नियम
17
पञ्चम नियम
53
षष्ठ नियम
54
प्रत्यन्तर्दशा-फल
61
20
सूक्ष्म दशा-फल
72
21
प्राण-दशा का फल
83
22
दशा-फलादेश की सरल संक्षिप्त रीति
94
23
दशा-अन्तर्दशा के फल जानने के कुछ सरल नियम
198
वक्री मार्गी ग्रह की दशा का फल
100
25
नीच और शत्रु-क्षेत्री ग्रह की दशा का फल
26
स्थानेश का फल
101
27
अन्तर्दशा-फल-प्रतिपादन के नियम
102
दशवर्ग में विशेष विचार
103
29
योगिनी-दशा-फल-विचार
105
30
सप्तम नियम-अर्थात् स्फुट विधियां
113
31
अष्टम नियम अर्थात्-फल-विकास एवं परिपाक-काल
116
गोचर-प्रकरण
118
गोचर के शनि का विशेष नियम
125
34
गोचर-फलादेश के कतिपय नियम-सूत्र
128
35
उपसंहार
130
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