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हज़ार रंग में डूबी हुई हवा (राही मासूम रज़ा के सृजन-कर्म पर केंद्रित): Air Immersed in a Thousand Colours (Focused on the Creative Work of Rahi Masoom Raza)

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Item Code: HAF548
Author: Edited By Namita Singh
Publisher: HANS PRAKASHAN, DELHI
Language: Hindi
Edition: 2023
ISBN: 9789389389951
Pages: 258
Cover: HARDCOVER
Other Details 9x6 inch
Weight 436 gm
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100% Made in India
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Book Description
पुस्तक परिचय

जिन्दगी से ऐसा रिश्ता जिसमें आप एक दूसरे को आज़माते रहते हैं यानि ज़िन्दगी एक चुनौती बार-बार आपकी ओर उछालती है और देखना चाहती है कि चुनौती के सामने आप छोटे पड़ जाते हो कि बड़े। राही साहब इस चुनौती में बड़े साबित हुए। राही साहब ने अपनी शर्तों पर अपनी तरह से बहुत धीरे-धीरे बहुत सारी वक्त की आज़माइश पार करते हुए अपनी जगह बनायी। वे शीर्ष पर पहुँचे और शीर्ष पर पहुँच कर साहित्य और जमीर दोनों सलामत रखा। फिल्मी बाज़ारू दुनिया में बहुत कुछ खोना पड़ता है क्योंकि यह एक बड़ा बाज़ार है, इसको समझते हुए भी राही साहब ने अपनी जगह अपनी तरह से बनाई।

मैंने राही साहब को सबसे पहले उनके उपन्यास 'आधा गाँव' से जाना और आश्चर्यचकित हुआ कि आधा गाँव में पूरे समाज और इंसान की पूरी तस्वीर कोई कैसे खींच सकता है। 'आधा गाँव' भारत की उस आबादी को उभार कर सामने लाता है जिसको अल्पसंख्यक कहकर किनारे कर देते हैं। असल में जो अल्पसंख्यक मानते हैं उनकी सोच अल्पसंख्यक है। इंसान अल्पसंख्यक होता ही नहीं, वह तो अपने आप में पूर्ण इकाई है और उस पूर्ण इकाई को आँकने की कोशिश में, उसे सामने रखने की कोशिश में राही साहब ने 'आधा गाँव' लिखा। सन् साठ के अंतिम दिनों की बात है जब मैं बम्बई आया। उस समय मेरे लिए राही साहब 'आधा गाँव' का पर्याय थे लेकिन मुलाकात नहीं हुई थी। बाद में, हम रोज मिलते। कभी वह हमारे घर चाय पीते, कभी हम उनके घर चाय पीते ।

एक नफासत थी उनके व्यक्तित्व में। उनके कुर्ते अब भी मुझे याद हैं, लखनऊ के कढ़ाई के कुर्ते। मैंने पूछा कितने के होते हैं तो उन्होंने कहा, मंगा दूँगा। सिगरेट भी बहुत नफासत से लगातार पीते थे। सुगंधित ज़र्दे का डिब्बा रहता था उनके पास। वह आकर्षक एक नफासत थी उनके व्यक्तित्व में। उनके कुर्ते अब भी मुझे याद हैं, लखनऊ के कढ़ाई के कुर्ते। मैंने पूछा कितने के होते हैं तो उन्होंने कहा, मंगा दूँगा। सिगरेट भी बहुत नफासत से लगातार पीते थे। सुगंधित ज़र्दे का डिब्बा रहता था उनके पास। वह आकर्षक संस्कार वाले, नफीस और भव्य थे। बोलते बहुत सुंदर थे, उर्दू भाषा पर उनका अधिकार था।

एक बार मेरा व्याख्यान किसी अखबार में छपा कि मैं भारतीयता से छोटी किसी पहचान से अपने को जोड़ नहीं सकता। अन्य किसी पहचान से मेरा जुड़ाव हो, मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता ।

पुरोवाक्

मेरे अलीगढ़ आने से बहुत पहले की बात है, सन् बासठ के लगभग धर्मयुग में एक लेख पढ़ा। लेख के साथ ही काला चश्मा लगाये लेखक की बहुत खूबसूरत तस्वीर भी छपी थी, लेकिन तस्वीर से ज्यादा ध्यान आकर्षित किया था लेख के शीर्षक ने। पाकिस्तान की उर्दू कविता की भारतीय आत्मा... जैसा कुछ शीर्षक था। कौन उर्दू लेखक है जो पाकिस्तान में भारतीय आत्मा तलाश रहा है... गंगा की बात कर रहा है... और उस लेखक का नाम था डॉ. राही मासूम रज़ा। इसके बाद भारतीयता और उर्दू कविता के संदर्भ में कुछेक और लेख आए राही के और इस तरह खूबसूरत तस्वीर वाले लेखक नहीं बल्कि एक भारतीय लेखक के रूप में राही दिमाग में हमेशा के लिए बैठ गये। लगभग पांच-छः साल बाद जब अलीगढ़ आने का हिसाब बन रहा था उस समय भी सबसे ज्यादा लुभाने वाली बात जो मन में थी वह ये कि अलीगढ़ में एक भारतीय लेखक राही मासूम रज़ा रहता है।

यह खूबी थी राही के व्यक्तित्व की कि वह हमेशा याद रहते थे। यही उनके लेखन की खूबी भी थी। उनका लेखन गुदगुदाता था, उकसाता था, कभी तड़ातड़ डंडे बरसाता तो कभी गले लगा लेता था, कभी-कभी जोर से झकझोरता और सोचने पर मजबूर कर देता था। उनकी शैली... उनके अंदाज़ विशिष्ट थे। उनकी लोकप्रियता का आलम अलीगढ़ में उनका लंगड़ापन भी लोगों को उतना ही प्यारा था। उनके प्रशंसक उनकी जैसी शेरवानी पहन कर उनकी तरह पैरों में लचक देकर चलने का अभ्यास करते थे। बात करने का सीधा मुंहफट अंदाज़ जो अपरिचित को भी अनौपचारिक आत्मीयता में बांध लेता। मैंने कभी उन्हें नीचे, दबे स्वर में बात करते नहीं देखा। यही एक तरह की आक्रामकता उनके लेखन की शैली थी चाहे वह साहित्य हो या फिल्मी लेखन ।

न सिर्फ लेखक, बल्कि व्यक्ति के रूप में भी राही एक प्रेरणा हैं। दरअसल राही का लेखक और मासूम रज़ा नामक 'व्यक्ति' इतने एकाकार हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता। उनके व्यक्तित्व का अक्खड़पन और निर्भीकता जो उनके लगातार संघर्षों से पैदा हुई थी, वही उनके लेखकीय मिजाज की खासियत थी। राही ने अपनी पूरी ज़िन्दगी को चुनौती के रूप में जिया।

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