अद्वैतवेदान्त दर्शन भारतीय दर्शनो का सिरमौर है, इसी से अधिकांश लोग अद्वैतवेदान्त को ही भारतीय दर्शन समझते है। आद्यशंकराचार्य इस दर्शन के इतने प्रखर आचार्य ये कि बहुत सारे लोग इन्हें ही अद्वैत वेदान्त का संस्थापक आचार्य मानते है। अद्वैतवेदान्त में आचार्य शंकर ने 'बह्म ही एकमात्र सत्य हैं, संसार मिथ्या है और ब्रह्म तथा जीव में कोई भेद नहीं है, को मूल सिद्धान्त के रूप में स्थापित किया है, लेकिन व्यावहारिक रूप से जगत् की सत्ता को स्वीकारते हुए बहुत सारे देवी-देवताओं की स्तुति में ग्रन्थों की रचना किया है और चार धामों की स्थापना की हैं सैद्धांनिक रूपसे ज्ञानमार्गी और व्यावहा रिक रूप से भक्ति मार्गियों जैसा आचरण बहुतों को संशय में डाल देता हैं। शंकरोत्तर अद्वैतवेदान्तियों ने शंकर के ज्ञानमार्ग को और अधिक पुष्पित और पत्वित करके इसशंका और अधिक बढ़ाया है। शंकरोत्तर अद्वैत वेदाब्तियों के विचार विमर्श के मुख्य केन्द्र रहा ब्रह्म सत्यत्व और जगत्मिश्यात्व ।
आचार्यशंकर की भक्ति भावना का व्यावहारिक पक्ष लगभग उपेक्षित रहा। वैष्णव वेदान्तियों की भक्ति भावना की परकाष्ठ। अद्वैती विचारधारा पर दबाव भी बनाती जा रही थी।
आचार्य मधुसूदन सरस्वती ने आचार्य शंकर को और उनके अद्वैत वेदान्त को ज्ञान भक्ति और कर्म तीनों दृष्टियों से व्याख्यापित करने का प्रयास किया है, और वैष्णव वेदान्तियों के द्वारा पड़ रहे भक्ति के दबाव का भी अपने कृष्णभक्ति के रूप में समन्वय किया है। ज्ञान, भक्ति और कर्म की अवधारणा को भले ही कुछ लोगों की अपेक्षा एक को प्रधानता दी हो, लेकिन अपने सम्यक् अर्थो में तीनों में कोई भेद नहीं है। इन्हीं तीनों के समन्वित रूप को गीता में निष्काम कर्मयोग के रूप में स्थापित किया गया है। आचार्य मधुसूदन सरस्वती ने इसी परम्परा को आचार्य शंकर की दशश्लोकी की अपनी व्याख्यां सिद्धान्तबिन्दु में स्थापित की है। उनके व्यक्तित्व की यही विषेषज्ञता थी कि वे ज्ञानी, कर्म योगी और वैष्णव वेदान्ती तीनों एक साथ थे।
आचार्य मधुसूदन सरस्वती की इसी परम्परा को सम्यक अद्वैत वेदान्त परम्परा में व्याख्यायित करने हेतु मैंने 'अद्वैत वेदांत (सिद्धान्त बिन्दु के आलोक में) विषय पर शोध कार्यकिया, जो पुस्तक के रूप में आप सुधी पाठकों के समक्ष प्रेषित है।
जब कभी व्यक्ति बाह्य जगत् पर दृष्टिपात कर चिन्तनशील होता है, तो उसे खेदजन्य आश्चर्य होता है। आश्चर्य प्रकृति की विशालता, नियमबद्धता, विकरालता आदि को देखने के कारण होता है और खेद का कारण उसे सम्पूर्णता में समझने की दुरूहता है। इसी आश्चर्यजन्य जिज्ञासा को शान्त करने के लिए कुछ लोगों ने प्राकृतिक घटनाओं का विश्लेषण, परीक्षण और प्रयोग कर विज्ञान की शरण ली और कुछ लोगों ने खेद को मिटाने के लिए और जिज्ञासा को शांत करने के लिए अपने अन्दर प्रवेश किया और अपनी आत्म शक्ति को जागृत करके इस सबका रहस्योद्घाटन किया। इस प्रकार की व्याख्या से पूरा प्राच्य और पाश्चात्य अध्यात्मिक दर्शन जगत् भरा पड़ा है। लेकिन इस जगत रहस्य की जैसी तार्किक और अध्यात्मिक व्याख्या अद्वैत वेदान्तियों ने की, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। अद्वैत वेदान्तियों की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि इन्होंने जगत् को मिथ्या बताकर अर्थात् जैसा दिखता है वैसा है नहीं, इसके वास्तविक स्वरूप का ज्ञान अध्यात्मिक ज्ञान से संभव होता है। दूसरी बात यह कि जिसे सामान्य जन 'मैं' कहते है, जो अज्ञान और अहंकार जनित बोध है, वही अध् यात्मिक ज्ञान होने पर परम सत्ता होता है।
इस विधा के सर्वोच्च आचार्य आद्यशंकराचार्य हुए हैं। इसी कारण इसे शंकर वेदान्त भी कहा जाता है,। आचार्य शंकर अद्वैत वेदान्त को औपनिषदीय सिद्धान्त कहते हैं, क्योंकि अद्वैत वेदान्त के उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और गीता प्रस्थानत्रयी हैं। इसमें उपनिषद् ही प्रधान है, ब्रह्मसूत्र उपनिषदो का ही संक्षिप्त रूप है और गीता भी उपनिषदों का ही सार है। इसी कारण आचार्य शंकर ने सर्वप्रथम अद्वैत वेदान्त दर्शन की स्थापना हेतु ग्यारह उपनिषदों, ब्रह्म सूत्र और गीता पर भाष्य लिखा। शंकराचार्य से पूर्व के अद्वैत वेदान्त के आचार्यों का उल्लेख महर्षि वादरायण ने अपने ब्रह्म सूत्र में तथा आचार्य शंकर ने अपने ब्रह्मसूत्रभाष्य शारीरिक में किया है। इसमें काशकृत्स्न, सुन्दर पाण्ड्य, आचार्य भर्तृहरि, गौड़पादाचार्य और गोविन्दाचार्य का नाम प्रमुख अद्वैत वेदांतियों में है। गोविन्द पादाचार्य आचार्य शंकर के गुरु थे और गौड़पादाचार्य गोविन्दपादाचार्य के गुरु थे। गौड़पादाचार्य की माण्डूक्य कारिका अद्वैत वेदान्त का प्रथम उपलब्ध दाशीनिक ग्रन्य है।
आचार्य शंकर का जन्म 788 ई० में मालावार प्रान्त (केरल) के नम्बूदरी ब्राहमण के घर हुआ था और 32 वर्ष की आयु में देहान्त हो गया। लेकिन इतनी अल्पायु में आचार्य शंकर अपने अद्वैत वेदान्त दर्शन की स्थापना हेतु इतना अधिक दार्शनिक साहित्य लिख गये कि अधिकांश लोग अपने पूरे जीवन काल में उतना अध्ययन नहीं कर पाते हैं। प्रस्थानत्रयी पर भाष्य के अतिरिक्त आचार्य ने माण्डूक्य कारिका भाष्य विषुसहस्रनाम भाष्य, सनत्सुजातीय भाष्य, सौन्दर्य लहरी, उपदेश सहस्त्री, दशश्लोकी, विवके चूड़ामणि, अपरोक्षानुभूति आदि ग्रन्थों की रचना की है।
शंकरोत्तर अद्वैत वेदान्तियों में पद्म पादाचार्य और आचार्य सुरेश्वर (कुछ लोगों द्वारा माना जाता है कि यह आचार्य मण्डन मिश्र का शंकराचार्यानुयायी बनने पर का नाम है) साक्षात् शंकराचार्य के शिष्य थे। पद्मपादाचार्य ने आचार्य शंकर के ब्रह्म सूत्र भाष्य पर पंचपादिका टीका लिखी, जिस पर आचार्य प्रकाशात्मयति ने विवरण नाम की टीका लिखी। इसी विवरण टीका के नाम पर विवरण सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव हुआ। विद्यारण्य मुनि जिन्हें माधवाचार्य भी कहा जाता था, विवरणप्रमेयसंग्रह और पंचदर्शी की रचना की। आचार्य सुरेश्वर उपनिषद् भाष्यों पर वार्तिक की रचना करने के कारण वार्तिककार कहलाये। बृहदारण्य भाष्य वार्तिक उनका विशाल, प्रौढ़ और पाडित्य पूर्ण रचना है। इसके अतिरिक्त इनकी तैत्तरीयभाष्य वार्तिक, दक्षिणामूर्ति स्त्रोक वार्तिक अथवा मानसोल्लास, पंचीकरण वार्तिक नैष्कर्यसिद्धि आदि कृतियां हैं। आचार्य सुरेश्वर के शिष्य सर्वज्ञात्म मुनि ने ब्रह्म सूत्र के ऊपर संक्षेप शारीरिक नामक प्रख्यात पद्य बद्ध रचना की, जिस पर नृसिंहाश्रम ने तत्त्वबोधिनी नामक टीका लिखी। आचार्य मण्डन मिश्र शंकर के समकालीन विद्वान् थे, जिन्होंने ब्रह्मसिद्धि ग्रन्थ की रचना की, जिस पर वाचस्पति मिश्र की ब्रह्मतत्त्व समीक्षा, चित्सुख का 'अभिप्राय प्रकाशिका' तथा आनन्द पूर्ण की 'भावशुद्धि' व्याख्या लिखी गयी। मण्डन मिश्र भर्तृहरि के शब्दाद्वयवाद के समर्थक थे। वाचस्पति मिश्र ने मण्डन मिश्र से प्रभावित होकर ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य पर 'भामती' नामक टीका लिखी है, जिसके नाम पर भामती सम्प्रदाय का प्रदुर्भाव हुआ। भामती पर स्वामी अमलानंद ने 'कल्पतरु' नामक टीका और कल्पतरु की व्याख्या के लिए अप्पयदीक्षित ने परिमल नामक टीका और सिद्धान्तलेषसंग्रह नामक अद्वैत दर्शन का ग्रन्थ लिखा।
श्रीहर्ष का खण्डनखण्डखाद्य ग्रन्य अद्वैत वेदान्त दर्शन का एक अद्वितीय गन्य है, जिसमें नागार्जुन की शैली से प्रमाण-प्रमेय आदि तत्त्वों की सर्व प्रकार से तार्किक असिद्धि स्थापित की गई है। प्रकाशानन्दयति ने एक जीववाद के प्रतिपादन में वेदान्त सिद्धान्त मुक्तावली की रचना की। धर्मराजाध्वरीन्द्र ने वेदान्त प्रमाण-शास्त्र पर वेदान्त परिभाषा और सदानंद ने वेदान्तसार की रचना की।
आचार्य मधुसूदन सरस्वती सोलहवी शताब्दी के काशी के संन्यासी और पंडितों में अग्रगण्य थे। इनकी सबसे प्रसिद्ध रचना अद्वैतसिद्धि है, जिसमें द्वैतवादियों की युक्तियों का तार्किक तथा मार्मिक खण्डन करके अद्वैत तत्त्व की प्रबल तर्क से स्थापना की गई है। सर्वज्ञात्ममुनि के संक्षेप शारीरिक पर इन्होंने सारसंग्रह नामक व्याख्या लिखी। सिद्धान्त बिन्दु, वेदान्त कल्पलतिका, गूढार्थ दीपिका (गीता की टीका), अद्वैतरत्नरक्षणम्, भक्ति रसायन आदि आचार्य मधुसूदन सरस्वती के प्रसिद्ध ग्रन्य हैं। सिद्धान्त बिन्दु इनकी प्रथम रचना है जो आचार्य शंकर के दशश्लोकी की व्याख्या में लिखी गई है।
शंकरोत्तर अद्वैत वेदान्त में प्रतिपादन प्रक्रिया भेद से विवरण, वार्तिक और भामती रूप में तीन विचारधाराएं सामने आती हैं। आचार्य मधुसूदन सरस्वती को वार्तिककार आचार्य सुरेश्वराचार्य की परम्परा में रखा जाता है, क्यांकि सिद्धान्तबिन्दु' के अन्त में स्वयं आचार्य सरस्वती ने शंकराचार्य के बाद सुरेश्वराचार्य को प्रणाम किया है।
ग्रन्थकार का जीवन परिचय-
आचार्य मधुसूदन सरस्वती बंगवासी थे, यह बात प्रायः सभी इतिहासकार स्वीकार करते हैं। इनका जन्म फरीदपुर मण्डलान्तर्गत 'कोटला' पाड़ा ग्राम में हुआ था। इनके पिता श्री प्रमोदन पुरन्दर एक विद्वान् तपस्वी थे, उनकी चार सन्तानें थीं-श्रीनाथचूडामणि, यादवानन्द न्यायाचार्य, कमलनयन और वागीश गोस्वामी। इसमें से यादवानंद न्यायाचार्य राजा प्रतापादित्य की सभा के प्रधान पंडित थे। इनके अपूर्व पंडित्य से प्रभावित होकर राजा ने उन्हें 'अविलम्ब सरस्वती' की उपाधि दी थी। श्रीनाथचूड़ामणि और वागीश गोस्वामी के विषय में कोई विशेष बात ज्ञातव्य नहीं है। तृतीय पुत्र कमलनयन ही सिद्धान्त बिन्दु के रचनाकार मधुसूदन सरस्वती हैं। इन्होंने बाल्यावस्था में नवद्वीप में न्याय दर्शन का अध्ययन न्यायशास्त्र के गुरु हरिराम तर्कवागीश के सानिध्य में किया। न्याय के धुरन्धर विद्वान् गदाधर भट्टाचार्य उनके सहपाठी थे। उनकी बुद्धि बड़ी प्रखर थी, न्याय के साथ ही साथ माधव सरस्वती के निकट वेदान्त आदि दर्शनों में भी अतिशय प्रौढ़ता प्राप्त कर ली थी।
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