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आदितीर्थङ्कर ऋषभदेव (जीवनवृत्त, स्वरूप एवं शिव के साथ तादात्म्य): Aditirthankara Rishabhadeva (Biography, Nature and Identity with Shiva)

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Specifications
HBG983
Author: Dharamchandra Jain, Sankata Prasad Shukla
Publisher: HARYANA GRANTH AKADEMI, PANCHKULA
Language: Hindi
Edition: 2022
ISBN: 9789392721199
Pages: 185
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
366 gm
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Book Description
प्रस्तावना

जैन धर्म में 24 तीर्थंकरों में ऋषभनाथ को प्रथम तीर्थंकर माना जाता है। तीर्थंकर ऋषभदेव भारतीय संस्कृति के आद्य प्रणेता माने जाते हैं इसीलिए उन्हें आदिनाथ की संज्ञा दी गई है। यह पुस्तक सात अध्यायों में विभक्त तीर्थंकर ऋषभदेव के जीवन के हर पहलू पर रोशनी डालती है। इतिहास के गर्भ में छुपे हुए भगवान ऋषभदेव के विभिन्न रूपों ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश को उ‌द्घाटित करती है।

लेखक ने इस पुस्तक में भगवान ऋषभदेव और शिव के स्वरूप का तुलनात्मक वर्णन और विवेचन किया है। सात अध्यायों में विभक्त इस शोध परक ग्रंथ में जैन एवं वैदिक दोनों धर्मों के साहित्य व पुरातात्विक साक्ष्यों का निष्पक्ष अध्ययन करने की चेष्टा की गई है। लेखक ने ऋषभदेव जी के जीवन और गुणों पर जो प्रकाश डाला है वह सराहनीय है।

आदितीर्थंकर ऋषभदेव के ऐतिहासिक व्यक्तित्व को प्रस्तुत करने के लिए लेखक से जिस सजगता एवं परिश्रम की अपेक्षा होती है वह डॉ. धर्मचंद्र जी और डॉ. संकटाप्रसाद जी ने पूरी तरह से उपयोग की है। यही कारण है कि आदिनाथ ऋषभदेव के बारे में अनेक खोजपरक तथ्य पुस्तक में प्राप्त होते हैं। ऋषभदेव जी की वैदिक धर्म में वर्णित शिव के स्वरूप के साथ सजग तुलना द्वारा लेखक ने यह बताने का सक्षम प्रयास किया है कि भारतीय जनमानस कहीं ऋषभदेव तो कहीं शिव के नाम से एक ही महाशक्ति की उपासना करता है। नाम और रूप अलग हैं परंतु महाशक्ति के गुण अधिकांशतः एक हैं। अनेकांतवाद प्रस्तुत पुस्तक में व्यावहारिक स्तर पर दृष्टिगत होता है।

यह ग्रंथ आदि तीर्थंकर ऋषभदेव पर शोध कार्य करने वाले शोधार्थियों के लिए वरदान सिद्ध होगा, ऐसी मेरी मंगल कामना है।

प्राक्कथन

भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का इतिहास पर्याप्त प्राचीन है। इसके विकास में विभिन्न क्षेत्रों तथा मानव समुदायों का भी योगदान रहा, जिससे एक समन्वित ज्ञान की धारा के लिए स्थान मिल सका। भारतीय संस्कृति में ब्राह्मण चिन्तकों की भोग, त्याग-परम्परा, जैनों की त्याग, तपस्या तथा सहअस्तित्व की प्रबल भावना तथा बौद्धों के मध्यममार्ग की शिक्षा का योगदान विद्यमान है। भारतीयों ने भौतिकवादी रुचि का तिरस्कार नहीं किया किन्तु जीवन में आध्यात्मिक विचारधारा को आदर्श तथा अनुकरणीय रूप में स्वीकार किया। भारत के प्रत्येक विचारक ने मनुष्य जीवन का मूल उद्देश्य - मोक्ष, निर्वाण तथा जन्म-मृत्यु पर विजय प्राप्ति को ही स्वीकार किया है।

भारतभूमि पर विकसित धर्मों में जैन परम्परा को पर्याप्त प्राचीन माना जाता है। विद्वानों का विचार है कि त्याग संबंधी जैन परम्परा का प्रारंभ सिंधु सभ्यता काल (लगभग 2600-2000 ई.पू) में हुआ। इस सभ्यता के पुरातात्त्विक अवशेषों के अध्ययन से वृषभ की महत्ता, योगक्रिया तथा ऐतिहासिक कालीन जिन जैसी नग्न मूर्ति की प्राप्ति इसके मुख्य संकेत हैं। ऋग्वेद तथा अथर्ववेद से वातरसना मुनियों के बारे में अनेक कथाएँ मिलती हैं। ऋषभ का उल्लेख वस्तुतः जैन परम्परा के राजा ऋषभ के लिए ही है।

जैन परम्परा में चौबीस तीर्थङ्करों की पूजा-उपासना की जाती है। छठी शती ई.पू. में 24वें तीर्थङ्कर भगवान् महावीरस्वामी और इसमें ही 23वें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ आठवीं शती ई.पू. में हुए, इनसे पूर्व बाईस अन्य तीर्थङ्कर हुए। इनमें ऋषभ को प्रथम तीर्थंकर के पद पर प्रतिष्ठित माना जाता है।

ऋषभदेव, संसार त्याग से पूर्व एक सम्राट् थे जिनकी बहुविध देन के उल्लेख जिनसेन के आदिपुराण (आठवीं शती ई.), कल्पसूत्र, त्रिलोकसार, तिलोयपण्णत्ति, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, आवश्यकनिर्युक्ति, एवं आवश्यकचूर्णि आदि ग्रंथों में विस्तार से मिलते हैं। इन्हें असि, मसि (लेखन), कृषि तथा व्यापार का प्रारंभकर्त्ता स्वीकार किया गया है। भारत में कृषि का प्रारंभ7000 ई.पू. हुआ और लेखन कला 3000 ई.पू. से ज्ञात है। ब्राह्मण संस्कृति के शिव का ऋषभदेव से तादात्म्य भारतीय समन्वय परम्परा का द्योतक है। इन दोनों देवताओं के स्वरूप तथा मूर्ति विद्या में पर्याप्त समानता मिलती है। बाद में तो ऋषभदेव को शिवशंकर का ही अवतार मान लिया गया। यह विषय अत्यन्त रोचक है जिसके बारे में विस्तार से ग्रंथ में खोजबीन की गयी है।

प्रस्तुत पुस्तक लिखने की प्रेरणा के लिए हम प्रसिद्ध उद्योगपति एवं समाजसेवक तथा जैन श्रावक श्रीदर्शनलाल जी जैन, जगाधरी के प्रति आभार व्यक्त करते हैं जिनसे इस संबंध में हर प्रकार का सहयोग तो मिलता ही रहा साथ ही एक जिज्ञासा और उसके समाधान का प्रयास के रूप में आपने एक ओजस्वी एवं अध्यक्षीय वक्तव्य, संस्थान की ओर से लिखा। अतः हम आपके अत्यन्त कृतज्ञ हैं।

उपरोक्त ग्रंथ की पाण्डुलिपि मनीषि आचार्यप्रवर, मुनि-ऋषि, साधु-सन्तों तथा विद्वानों को सम्मति हेतु भेजने पर हमें जिनके समालोचनात्मक टिप्पण के साथ मंगल आशीर्वचन एवं साधुवाद उपलब्ध हुए हैं, उनमें सर्वप्रथम हैं-वहुभाषाविद् श्रीकाञ्ची कामकोटि पीठाधिपति पूज्य श्रीजगद्‌गुरु शंकराचार्यजी स्वामिगल, काञ्चीपुरम्। इस अनन्य उपकार के लिए हम आपके अत्यंत ऋणी एवं चिरकृतज्ञ हैं।

तपोनिधि सन्तशिरोमणि, परमपूज्य 108 आचार्य श्रीविद्यासागरजी कुण्डलपुर दमोह, विद्याविशारद आचार्य श्रीमहाप्रज्ञजी, राजलदेसर (राज.), विद्याभूषण आचार्य श्रीसन्मतिसागरजी वड़ागांव बागपत, आचार्य शिवमुनिजी कुप्पकलां संगरूर पंजाब, आचार्य सुभद्रमुनिजी, प्रीतमपुरा, दिल्ली तथा उपाध्याय श्रीगुप्तिसागरजी सोनागिरि का भी हृदय से आभार व्यक्त करते हैं, जिन्होंने अपने मंगल आशीष वचनों से हमें उपकृत किया है।

धर्मनिष्ठ, समाजसेवी उन बन्धुओं का भी हार्दिक धन्यवाद करते हैं जिनका समय व असमय परम सहयोग हमें मिलता रहा, इनमें प्रमुख हैं- श्री वी. के. जैन (चरखी दादरी, हरियाणा), श्रीरतनलाल चौपड़ा (गंगाशहर, राजस्थान), श्रीराजकुमार जैन, प्रधान, जैन बल्लभ स्मारक (दिल्ली), श्रीराकेश गोहिल (भोपाल), श्रीहेमचन्द जैन (दिल्ली), श्री के. बालकृष्णन, नई दिल्ली, डॉ हिम्मतसिंह सिन्हा, श्री चन्द्रमोहन सिंगला तथा श्री रामेन्द्र सिंह, कार्यालय सचिव, विद्याभारती, कुरुक्षेत्र (हरियाणा)।

इसके अलावा सरस्वती नदी शोध संस्थान, हरियाणा के समस्त पदाधिकारियों के भी हम अत्यंत अभारी हैं, जिनसे समय-समय पर उपयोगी सुझाव एवं सहयोग हमें मिलता रहा।

भूमिका

भारतीय धर्म तथा संस्कृति का इतिहास पर्याप्त प्राचीन है। विचार की दृष्टि से जीवन-यापन की दो पद्धतियाँ हैं एक सांसारिक भोग को प्रधान मानती है तथा दूसरी परम्परा के अनुसार त्यागमय जीवन ही आदर्श है। आदिपुराण के अनुसार मानव जीवन तथा संस्कृति का विकास कई चरणों में हुआ। सबसे पहले वह आखेट पर निर्भर था, फिर कृषि कर्म प्रारंभ हुआ और तत्पश्चात् नगर जीवन का विकास हुआ। घुमक्कड़ जीवन के स्थान पर स्थायी जीवन निर्वाह पद्धति के विकास के साथ सुख-सुविधाओं की ओर भी ध्यान गया। यह सब कृषि कर्म के विकास के साथ ही हुआ । व्यापार-वाणिज्य से नगरों के विकास में योगदान के साथ ही विलासिता पूर्ण जीवन के विकास में भी मदद मिली। इस प्रकार जीवन सामान्य से जटिल होता गया और साथ ही परस्पर कलह तथा वैमनस्य के कारण मानव दुःखी जीवन बिताने के लिए बाध्य हुआ।

भारत में कृषि-कर्म का प्रारंभ लगभग 7000 ई.पू. हुआ। भौतिक विकास करते हुए पहले ग्राम, फिर कस्बे अन्ततः नगरों के रूप में आवास बने। सिंधु सभ्यता काल (लगभग 2600-2000 ई.पू) से सुनियोजित नगरों का विकास हुआ। व्यापार, उद्योग तथा कृषि-उत्पादन से समृद्धि आयी। इसमें प्रतियोगिता, अधिक उत्पादन तथा बिक्री की चिन्ता मूल में रहती है। व्यापार के संदर्भ में बाहर यात्राएं करनी पड़ी। इस प्रकार जीवन तनावूपर्ण और असहज हो जाता है।

समृद्धि के बावजूद ऐसे वातावरण में मनुष्य स्वभावतः निवृत्ति का सहारा लेता है। इस निवृत्तिमार्ग का मूल सिंधु सभ्यता में देखा जा सकता है। हड़प्पा से प्राप्त नग्न पाषाण कवन्ध (खण्डित मूर्ति), जिसकी पहचान नग्न तीर्थंकर मूर्ति के प्राग् रूप से की जाती है, तपस्वी जीवन का स्पष्ट संकेत है। इसी प्रकार मोहनजोदड़ो से प्राप्त योगी की ध्यान मुद्रा में मूर्ति भी महत्वपूर्ण है, जो आत्मलीन होने की परम्परा के विकसित होने का प्रमाण है। सिंधु सभ्यता की कुछ मुद्राओं के अंकन से योग तथा ध्यान की लोकप्रियता का भी पता चलता है।

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