आदि शंकराचार्य
आचर्य ने उग्रभैरव से कहा, "वत्स लाख चेष्टा करने पर भी इस शरीर का नाश तो एक न एक दिन होना ही। यदि इस नश्वर शरीर के दान से किसी का कार्य सिद्ध हो, तो इससे महान् पुरुषार्थ और क्या हो सकेगा परन्तु सबके सामने सिर देना मेरे वंश की बात नहीं है, क्योंकि योग्य शिष्य इस कार्य में विघ्न डाल देंगे। उनका जीवन गुरुमय होता है। वे गुरु को अपना सर्वस्व समझते है। अत: मैं पहले से निश्चित किए हुए स्थान पर आकर समाधि में स्थित हो जाऊँगा। तुम उस निश्चित स्थान और समय पर आकर मेरा सिर ले लेना। मैं अपने सिर का दान तुम्हें प्रसन्नतापूर्वक दे रहा हूँ। किन्तु यदि मेरे शिष्यों को यह पता चला, तो निश्चय ही वे इस कार्य में बाधा डाल देंगे क्योंकि यह ध्रुव सत्य है कि जैसे कोई में व्यक्ति अपना शरीर छोड़ने में आनाकानी करता है, वैसे ही कुछ प्रिय जन ऐसे भी हैं, जो अपने श्रद्धेय के शरीर-रक्षण में अपना सब कुछ बलिदान कर देते है ।
प्राक्कथन
आचार्य शंकर भगवान् शंकर के साक्षात् अवतार थे । उनका पावन चरित्र परमार्थ-पथ के पथिकों के लिये महान् संबल है । वह अद्वैत-वेदान्त के प्रतिष्ठाता तथा संन्यासी-सम्प्रदाय के गुरु माने जाते हैं । उनकी प्रतिभा और तेजस्विता अलौकिक थी और उनकी साधना अद्वितीय । अपनी भास्वर चेतना तथा ब्रह्मज्ञान के फलस्वरूप ही उन्होंने वैदिक सनातन हिन्दू धर्म को विघटित होने से बचा लिया । उन्होंने हिन्दू धर्म में अनेक आवश्यक एवं रचनात्मक सुधार किये और उसे पुष्ट नींव पर पुनरूत्थापित किया ।
भारत की चारों दिशाओं में आचार्य शंकर ने चार मठों की संस्थापना की, जिनका मुख्य लक्ष्य, वेदान्त का प्रचार और प्रसार रहा । इन चार पीठों के माध्यम से भारत में आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक सामंजस्य एवं ऐक्यसंस्थापन का महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न हुआ । इससे आचार्य शंकर की प्रखर दूरदर्शिता स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती हें । भारत के इतिहास में उनके इस महत्वपूर्ण कार्य का अप्रतिम स्थान है । उनके अलौकिक अध्यात्म बल से ही यह दुष्कर कार्य सिद्ध हो पाया ।
आज के इस उथल-पुथल और संघर्षपूर्ण युग में हम अपने धर्म के संरक्षकों तथा प्रतिष़्ठापकों को भूलते जा रहे हैं । परन्तु आचार्य की पावन जीवनी, उज्जवल यश - गाथा एवं अलौकिक विशुद्ध कर्म भूलने की वस्तु नहीं है । उन्हें भुलाना अथवा भूलना अपने आप को भूलना होगा । उन्हें भूलना हमारा घनघोर अपराध और कृतघ्नता होगी । शंकर ने अपने व्यक्तित्व की अप्रतिम गरिमा से भारत का गौरव समस्त संसार की दृष्टि में बहुत ऊँचा उठाया । इसमें रंचमात्र भी संदेह नहीं कि उनके जीवन, साधना-प्रणाली और आदर्शों से भारत श्रेयसू और प्रेयसू अध्यात्मक और व्यवहारपक्ष के बीच सामंजस्य स्थापित कर सकता है । भारत ही कहीं, संसार के समस्त देश आचार्य शंकर के आदर्शों से प्रेरणा, स्फूर्ति और शक्ति अर्जित कर सकते हैं । उनके उपदेशों और शिक्षाओं पर आचरण करने से यह घूमण्डल नन्दन-कानन में परिणत हो सकता है ।
उनके समसामयिकों के द्वारा रचित आचार्य शंकर की कोई भी जीवनी आज उपलब्ध नहीं है । उनके किसी शिष्य की लिखी कोई जीवनी भी नहीं मिलती । परवर्ती काल के पंडितों ने आचार्य की जो जीवनियाँ लिखी हैं, उनकी शैली पोराणिक है । केवल दो प्राचीन जीवन चरित वृहत् शंकर विजय और शंकरदिग्विजय ही आज प्राप्य हैं । इन दोनों चरित-ग्रंथों के आधार पर बाद में बीसों ग्रंथ लिखे गये, पर बाद के इन ग्रंथों में कोई उल्लेखनीय नवीनता दृष्टिगोचर नहीं होती है । किचित् परिवर्द्धन और परिवर्तन के साथ उनका भी वही स्वरूप है । कहा जाता है कि आचार्य के अन्तरंग शिष्य, पद्मपाद ने अपने गुरु के दिग्विजय - वृतान्त को लिपिबद्ध किया था । यदि वह ग्रंथ उपलब्ध हो जाता, तो आचार्य की जीवनी पर महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता । मैंने अपनी पुस्तक की रचना में प्रधानत :माधवाचार्य कृत शंकर दिग्विजय और आनन्द ज्ञान ( आनन्दगिरि) विरचित वृहत्(शंकर विजय ग्रंथों का आश्रयलिया है । इसके अतिरिक्त जो भी सामग्री उपलब्ध हुई, उसका प्रयोग किया गया है ।
जगद्गुरु शंकराचार्य, ज्योतिष्पीठाधीश्वर स्वामी शान्तानन्द जी सरस्वती लगभग सत्ताईस वर्षों तक ज्योतिर्मठ के मठाध्यक्ष रहे । उन्होंने स्वेच्छा से अपने को इसउत्तरदायित्व से भारमुक्त कर लिया .और अब वह निरन्तर आत्मस्वरूप में निमग्न रहते हैं । मेरे ऊपर उनका असीम स्नेह और आशीर्वाद रहता है । उन्होंने आचार्य शंकर की जीवनी लिखने के लिये बलवती प्रेरणा और अमोघ आशीर्वाद दिया । मेरे पूज्यतम पिता, ब्रह्राम्लीन पं० रामचन्द्र मिश्र शंकर के अद्वैत सिद्धान्त के अपूर्व मर्मज्ञथे । उन्होंने मुझे आचार्य शंकर के सिद्धान्तों का बोध करा कर तदनुकूल जीवन व्यतीत करने का आशीर्वाद दिया । उन्हीं के आशीर्वाद स्वरूप मैं आचार्य शंकर की जीवनी लिखने में समर्थ हो सका । अत : मैं उपर्युक्त दोनों महापुरुषों का रोम-रोम से आभारी और ऋणी हूँ ।
डॉ ० संगमलाल पाण्डेय, अध्यक्ष दर्शन-विभाग, इलाहाबाद यूनीवर्सिटी, इलाहाबाद, मेरे अनन्य मित्र हैं । उन्होंने सत्परामर्श देकर मुझे लाभान्वित किया है ।मैं उनका आभारी हूँ । मेरे घनिष्ठ मित्र एवं अनुज-तुल्य श्री गोपीनाथ, माननीय न्यायाधीश, इलाहाबाद हाई कोर्ट, इलाहाबाद, मेरी पुस्तकों के प्रशंसक हैं । इस पुस्तक के प्रणयन में वह निरन्तर मुझे प्रोत्साहन देते रहे । आभार प्रदर्शन करके उन्हें कष्ट नहीं पहुँचाना चाहता ।
मेरे अग्रज श्रद्धेय श्री परमात्माराम मिश्र, एडवोकेट .एवं अनुज चि० भृगुराम मिश्र, अवकाशप्राप्त प्रोफेसर, सेन्ट्रल पेडागॉजिकल इंस्टीट्यूट, इलाहाबाद, ने मुझे बलवती प्रेरणा देकर पुस्तक लिखने के लिये प्रोत्साहित किया । मेरे अग्रज मेरी श्रद्धा के पात्र हैं और अनुज स्नेह के । मेरे भतीजे चि० डॉ० विभुराम मिश्र ने पूर्ण मनोयोग से पाण्डुलिपि देखी है । मेरी पुस्तकों का प्रथम सुधी पाठक चि० विभु मेरे आशीर्वाद और स्नेह का पात्र है ।
अनुक्रम
1
शंकराचार्य के आविर्भाव के समय भारत की धार्मिक स्थिति
9
2
शंकर का जन्म
13
3
मानव रूप में अन्य देवताओं का आविर्भाव
22
4
बाल्यावस्था के प्रथम सात वर्ष
29
5
संन्यास-ग्रहण न
34
6
आत्मविद्या की प्रतिष्ठा
50
7
महर्षि व्यास का दर्शन
63
8
कुमारिल भट्ट और आचार्य शंकर की भेंट
71
आचार्य शंकर और मंडन मिश्र
77
10
उभयभारती से शास्त्रार्थ
93
11
शंकर का कामकला-अध्ययन
99
12
उग्रभैरव से संघर्ष
111
अन्य शिष्यों की प्राप्ति
117
14
वार्तिक-रचना का प्रस्ताव
130
15
पद्मपाद की तीर्थयात्रा
137
16
आचार्य शंकर की दिग्विजय-यात्रा
153
17
मठ ओर मठाम्नाय अथवा महानुशासन
210
18
शंकराचार्यके ग्रन्थ
216
19
आचार्य शंकर के दार्शनिक सिद्धान्त
225
20
शंकराचार्य के व्यक्तित्व पर एक विहंगम दृष्टि
266
21
सहायक ग्रंथों की सूची
275
Hindu (हिंदू धर्म) (12711)
Tantra ( तन्त्र ) (1023)
Vedas ( वेद ) (708)
Ayurveda (आयुर्वेद) (1906)
Chaukhamba | चौखंबा (3360)
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