आओ विचार करें: भारतीय संस्कृति में मानव जीवन को चार भागों-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं सन्यास में विभाजित किया गया है। इसी प्रकार जीवन के चार लक्ष्य निर्धारित किए गए है जिन्हें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष कहा गया है। इन चारों के इर्द-गिर्द ही जीवन के सभी क्रियाकलाप घूमते रहते हैं और ये चारों सास्वत प्रक्रियाएं है जो किसी सीमा क्षेत्र से बंधी हुई नहीं है। इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए व्यक्ति सकल जीवन में कर्म, कर्तव्य बोध एवम् निष्ठा से लगा रहने का प्रयास करता है। इन सभी बिदुओं को विद्वान लेखक ने अपने प्रयास में समाहित करने का श्रम किया है।
स्थापित लेखक की वर्तमान पुस्तक 'आओ विचार करें' में लेखक ने पाच भागों में सफलतापूर्वक अपनी बात कहने का परिश्रम किया है। प्रथम निबन्ध जीवन और लक्ष्य में उन्होंने विशेषकर विद्यार्थियों को लक्ष्य करते हुए लिखा है कि किस प्रकार 12 से 14 वर्ष की आयु में अपना लक्ष्य निर्धारित कर लिया जाना चाहिए। बुद्धि, विवेक और परिश्रम से लक्ष्य की ओर अग्रसर होना चाहिए। निराशा के भाव से बचते हुए सदा धनात्मक दृष्टिकोण रखना जीवन के लक्ष्य प्राप्त करने के लिए श्रेष्ठ होता है। जीवन में उच्च लक्ष्य स्थापित करना चाहिए और लक्ष्य निर्धारित होने के पश्चात उसे प्राप्त करने के लिए कठिन परिश्रम तथा एकलव्य जैसी एकाग्रता की आवश्यकता है। लेखक ने स्वामी शरणानंद जी के प्रभाव को भी उल्लेखित किया है।
पुस्तक का दूसरा निबन्ध नारी और सुख है। भारतीय संस्कृति में नारी और समाज संचालन में उसकी भूमिका का जितना विशद विवरण मिलता है वह अन्यत्र असंभव है।
इह प्रियं प्रजया ते समृध्यतः अस्मिन् गृहे गार्हपत्याय जागृहि
एना पत्या तन्वं सं सृजस्वाघा जिन्नी विदथमा वदाथः ।।
- ऋग्वेद 10.85.27
इस मंत्र में विवाह उपरांत आशीर्वाद दिया जाता है कि हे नवविवाहिता आप पति गृह में सुसतति युक्त हों, आपके स्नेह की वृद्धि हो और इस घर में आप गृहस्थ धर्म के कर्तव्यों के निर्वाह के लिए सदैव जागरूक रहें। स्वामी के साथ आप संयुक्त अर्थात एक प्राण एक मन वाली हो कर रहे है और वृद्धावस्था में आप दोनों विदध नामक सस्था में अथवा ज्ञानियों की पंचायत में श्रेष्ठ उपदेश करें। यह उच्च सामाजिक दर्शन नारी की भूमिका एवम् कर्तव्यों तथा अधिकारों का संकेतक है। तैत्तरीय ब्राह्मण में कहा गया है कि देवता अपत्नीक पुरुष की आहुतियाँ स्वीकार नहीं करते। इससे भारतीय जीवन में नारी के महत्व का पता चलता है। प्राचीन आदर्श उसे राजा का पद भी देता है तथा पति की आत्मा मानता है। रामायण में राजा के सलाहकार कैकेयी को कह रहे हैं:
न गंतव्यं वनं देव्या सीतया शीलवर्जिते ।
अनुष्ठास्यति रामस्य सीता प्रकृतमासनम् ।।
- रामायण 2. 37.23
शील का परित्याग करने वाली कैकेयी, देवी सीता वन में नहीं जाएंगी और राम के लिए प्रस्तुत हुए राज सिंहासन पर यहीं बैठेंगी।
आत्मा ही दारा सर्वेषां दारसंग्रह वर्तिनाम आत्मेयमिति रामस्य पालयिष्ति मेदिनीम ।।
- रामायण 2.37.24
वाल्मीकि रामायण के इस श्लोक के अनुसार संपूर्ण गृहस्थों की पत्नियां उनका आधा अंग है। इस तरह सीता देवी भी श्री राम की आत्मा है। उनकी जगह यही इस राज्य का पालन करेंगी। वर्तमान लेखक ने नारी की भूमिका को जोरदार ढंग से उठाया है नारी के अधिकार और कर्तव्य को इंगित करते हुए उन्होंने आलेख आधुनिक समस्याओं तथा वर्तमान समाज में नारी के सामने उत्पन्न संकटों का उल्लेख भी अपनी लेखनी में किया है। किसी समाज की उत्कृष्टता अथवा निकृष्टता को जानने का मापदंड यह होता है कि उस समाज में स्त्रियों की स्थिति किस प्रकार की है। उन्हें कितने अधिकार प्राप्त है और अपने कर्तव्यों का किस सीमा तक प्रयोग करती है। आज की नारी वैदिक काल की मैत्रेयी, गार्गी और घोषा जैसी विदुषी है। राष्ट्र रक्षा में संलग्न हैं, आकाश की ऊंचाई और समुद्र की गहराई को माप रही हैं तथा उद्योग जैसे उत्पादक कार्यों में अपना सर्वोत्तम प्रदान कर रही हैं। लेखक ने नारी की पारिवारिक जिम्मेदारियों, आज संचार माध्यमों के दुष्प्रभाव, नारी के प्रति बढ़ती हुई हिंसा और बलात्कार जैसी घटनाओं पर अपनी चिंता व्यक्त की है।
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