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आलाप तान अंक: Aalap Tana Anka (With Notation)

$38
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Specifications
HAA264
Publisher: Sangeet Karyalaya, Hathras
Author: डा. लक्ष्मी नारायण गर्ग: (Dr. Lakshmi Narayan Garg)
Language: Hindi
Edition: 1977
Pages: 229
Cover: Hardcover
9.0 inch X 6.0 inch
250 gm
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Book Description

सम्पादकीय

इस समय इस तानबाजी कें शैतान ने हमारे संगीत में प्रविष्ट होकर बहुत कुछ नाश कर दिया है । निरक्षर और जड़ बुद्धि के गायकों की दया पर निर्भर रहना हमारे सुशिक्षित वर्ग को अब पसंद नहीं । केवल तानों की कवायद देखकर अब हम आश्चर्यान्वित होना छोड़ चुके हैं । भातखंडे संगीत शास्त्र , प्रथम भाग, पू० २४२ २४४) यह बात भातखंडे जी नै कम से कम साठ वर्ष पहले तो कही ही होगी । पता नहीं, उन्हें कैसे विश्वास हो गया कि तानों की कसरत देख अब हम आश्चर्यान्वित होना छोड़ चके हैं? हमें तो लगभग अर्द्धशताब्दी बीत जाने के बाद आज भी तानबाजी के प्रशंसक सहृदय ही सर्वत्र दिखाई देते हैं । यहां तक कि सुशिक्षित समझे जानेवाले संगीत के आलोचक भी गायक की असाधारण तैयारी की प्रशंसा ही पत्र पत्रिकाओं में छपवाते हैं और स्वयं को जबरन् मर्मज्ञ आलोचक मान भ्रम रस में डुबकियां लगा पुण्य कमाते हैं । हमारी बात पर किसी को विश्वास न हो तो गुर्जरी तोड़ी के संदर्भ में पं० ओम् रनाथ ठाकुर का यह प्रमाण हमें मजबूरन् पेश करना पड़ेगा आजकल सामान्य परिपाटी ऐसी बन गई है कि प्रत्येक राग में तैयारी दिखाने के लिए तान प्रयोग आवश्यक सा माना जाता है । इसलिए इसमें (गुर्ज़री तोड़ी में) भी खूब तानें ली जाती हें । इसका आरोह अवरोह सीधा होने के .कारण इसमें तान का विस्तार सरल रहता है इसलिए भी प्राय सभी इसमें कसकर तानें लेते रहते हैं । हमें भी लेनी पड़ती हैं । किंतु हमारे मत से इस करूण रस वाहिनी रागिनी में तानें न लेना हो समुचित है । ( संगीतांजलि , षष्ठ भाग, पू० ३२)

यह है हमारा वर्तमान शास्त्रीय संगीत! अगर आज स्व० भातखंडे होते तो पंडित जी की उक्त व्यावहारिक विवशता देख निश्चय ही अपने मत में परिवर्तन कर लेते ।

तानों की अंधाधुधी के लिए हमारी मुगल कालीन सामाजिक व्यवस्था मूल रूप से उत्तरदायी रही है । सामंतीय वातावरण और उसके अंधकारमय भविष्य नें उस जमाने के राजाओं को जरूरत से ज्यादा विलासप्रिय बना दिया था । देश विदेश कै विद्वानों को आमंत्रित कर कोरे तर्कवाद पर आधारित शास्त्रार्थ कराने में भारतीय सामंतों को परंपरा बहुत पहले से ही आनंद लेती रही है । मुगल काल में संगीत कला ने भी राजा की बौद्धिक संतुष्टि हेतु स्वयं को अखाड़े में ला पटका । प्रतिद्वंद्विता की इस रणभूमि में भाव और रस का क्या काम? दूसरे को पछाड़ने कें लिए गवैये गले से अजीबो गरीब आवाजें निकालकर अपनी कलाकारी का प्रदर्शन करने लगे । इस उखाड़ पछाड़ में तान सबसे ज्यादा काम आई । आवाजों के अजायबघर गले में सर्राटेदार तैयारीसंयोग से हाथीचिंघाड़ तान और शेरदहाड़ तान जैसी तानों का निर्माण होने लगा । धकेल तान, धक्का तान और गोरखधंधा तान दे संगीत को गोरखधंधा बनाकर ही दम लिया । आज भी दिल्ली घराने के उत्तराधिकारियों को बड़े गौरव के साथ ऐसी हो न जाने कितनी तानों की बानगी देते हुए देखा जा सकता है ।

यह तो थी हमारे संगीत के अशिक्षित पंडितों और उस्तादोंकी कहानी)। सवाल है, आज जो शिक्षित होने का दावा करनेवाले कलाकार हैं, उनके विवेक को क्या हुआ? आज जो संगीतज्ञ सबसे ज्यादा रस रस की रट लगाते हैं, उनके और उनके शिष्यों के गायन वादन में उतनी ही अधिक नीरसता दृष्टिगत होती है । यह सत्य है । एकाध अपवाद को छोड़ देना चाहिए । इसके मूल में शास्त्रीय संगीत की जड परंपरा के प्रति संगीतज्ञों का प्रगाढ़ अन्धविश्वास है, जो सड़े गले को छोड़ने नहीं देता और श्रेयस्कर को अपनाने नहीं देता । संगीत ग्रंथ लिखनेवाले और भी उत्तरदायी हैं । वे प्राय इस ओर प्रयत्नशील ही नहीं होते कि संगीत परम्परा में जो कुछ संगीत का शत्रु है उसे उजागर कर उस पर प्रहार करें । अगर आज ख्याल में तानें लगाई जाती हैं तो वे भी बेधड़क लिख देते हैं कि ख्याल गायन में तान बहुत महत्वपूर्ण है और खंडमेरु का गणित खोलने लगते हैं । संगीत का विद्यार्थी व्यवहार और सिद्धांत, दोनों में ही जब तान की अपूर्व महिमा का बखान देखता है तो जाने अनजाने आजकल की बेसिर पैर की तानबाजी की नकल करने में ही अपने कलाकार भविष्य को देखता है और जीवन गँवा बैठता है । उसे कोई बतानेवाला नहीं कि तान का असली अर्थ क्या है । यह भातखंडे के यहां पढ़ता है, तानों का मुख्य प्रयोजन गायन का वैचित्र्य अधिकाधिक बढ़ाना ही है । और सुरी बेसुरी तानों की सरहिट से गायन को विचित्र बनाने में जुट जाता है । उसने पढ़ा है तान शब्द तन् धातु से बना है, जिसका अर्थ तानना है । बस, वह भी तानों से राग को तानने लगता है और इतना तानता है कि राग ही फूलकर फट जाता है ।

प्रचलित आलाप गायन के बारे में तो संगीत ग्रन्थों में प्राय भातखंडे जी की हू ब हू नकल ही दिखाई देती है । यह कोई नहीं सोचता कि भातखंडे के जमाने में खयाल गायन से पूर्व स्थायी, अन्तरा, संचारी, आभोग के क्रम में जो आलाप किया जाता था, वह आजकल प्रचार में है ही नहीं । उसके दर्शन थोड़े बहुत गतकारी धक् के वादन में भले ही हो जाएँ ।

आलाप और तान सम्बन्धो वैचारिक सामग्री की इस दशा को देखकर ही हमने संगीत का जनवरी फ़रवरी, १९७७ का विशेषांक आलाप तान अंक के रूप में निकालने का निश्चय किया था । इसका अर्थ यह नहीं कि हम दावा कर रहे हैं कि इस अंक में जो लेख हैं, ये सभी पूर्णत मौलिक और आलाप तान के बारे में सही विचारधारा देने वाले हैं । हां, ऐसे लेखों व विचारों का भी इसमें समावेश हो गया है, बस इतना ही कथनीय है ।

प्रस्तुत विशेषांक की संगीत के व्यावहारिक पक्ष की दृष्टि से भी उपादेयता है । एम० ए० स्तर के रागों के आलाप और सुन्दर तानों की एक ही जिल्द में आवश्यकता प्राय विद्यार्थियों को रही है । इस महत्वपूर्ण अभाव की पूर्ति भी बहुत हद तरु इसके द्वारा हो सकेगी, ऐसी आशा है ।

 

अनुक्रम  
संपादकीय डॉ० मुकेश गर्ग 3
ग्राम मूर्च्छना पद्धति में तान डॉ० इद्राणी चक्रवर्ती 5
भारतीय संगीत की अनमोल सपदा तान गुलाम रसूल 14
भारतीय संगीत में आलाप श्रीमती महारानी शर्मा 21
राग का सौंदर्य आधार आलाप कु० नदिता भट्टाचार्य 24
रससृष्टि में आलाप और तान की भूमिका श्रीमती उमा गर्ग 29
आलाप डॉ० विश्वभरनाथ भट्ट 34
तान और आलाप विद्यालय से महफ़िल तक कन्हैयालाल मधुकर 41
तान डॉ० विश्वभरनाथ भट्ट 45
लयबद्ध तानों के निर्माण की विधि (गौड़सारग के माध्यम से) श्रीमती सुमिंत्राकुमारी 57
कर्नाटक संगीत में राग,आलापना और तानम् विद्वान् के० नारायणन् 70
गाइए, कुश्ती मत लड़िए प्यारेलाल श्रीमाल सरस पंडित 76
आलाप और तान आचार्य बृहस्पति 78
अनिबद्ध अर्थात् आलप्ति डॉ सुभद्रा चौधरी 86
तानसेन की दृष्टि में तान प्रभुदयाल सीतल 102

 

Sample Pages








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