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समकालीन भारतीय साहित्य- साहित्य अकादेमी की द्वैमासिक पत्रिका वर्ष : 43, अंक : 227, मई-जून, 2023: Contemporary Indian Literature- Bimonthly Magazine of Sahitya Akademi Year 43, Issue 227 (May-June 2023)

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Item Code: HBA372
Author: Edited By Balram
Publisher: SAHITYA AKADEMI
Language: Hindi
Edition: 2023
ISBN: 9770970836008
Pages: 220
Cover: PAPERBACK
Other Details 9x6 inch
Weight 368 gm
Book Description
संपादकीय

बेटियाँ सब कहीं ऐसी ही होती हैं

आजकल हिंदी के दिन, लगता है कि कुछ अच्छे चल रहे हैं। भारत के लगातार प्रयासों से पिछले वरस संयुक्त राष्ट्र में थोड़े ही सही, जिन छह और भाषाओं के लिए दरवाजे खुले, उनमें तीन भारत की हैं- पहली हिंदी, दूसरी बाङ्ला और तीसरी उर्दू। संयोग से बाद की दो बांग्लादेश और पाकिस्तान की भी राजभाषाएँ हैं, जो कल तक भारत के ही छोटे-बड़े प्रदेश हुआ करते थे। सच कहें तो भारतीय उपमहाद्वीप की भाषाओं का मान इस बीच दुनिया में कुछ बढ़ा है, जबकि अतीत में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार भारत को सिर्फ एक बार मिला, रवींद्रनाथ ठाकुर की बाङ्ला कृति 'गीतांजलि' के लिए। कोई एक सौ दस बरस पहले सन् 1913 में। क्या अजीब संयोग है कि पिछले वरस हिंदी कथाकार गीतांजलि के उपन्यास 'रेत समाधि' को ब्रिटेन का प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार मिला, जो भारत को पहले भी कई बार मिला, प्रायः अंग्रेजी साहित्य के लिए, जबकि भारतीय भाषाओं के लिए बुकर समेत तमाम वैश्विक पुरस्कार प्रायः गूलर के फूल ही रहे। अंग्रेजी साहित्य के लिए अनिता देसाई, सलमान रुश्दी, रोहिंग्टन मिस्त्री, किरण देसाई और अरुंधति राय को बुकर पुरस्कार मिले हैं, लेकिन ये सब भारतीय मूल के अंग्रेजी लेखक हैं, जबकि भारत की चौबीस राज्य भाषाओं के लिए दरवाजे लगभग बंद ही रहे और साहित्य का नोबेल पुरस्कार भी वस एक ही बार किसी भारतीय नागरिक को मिला। मानें तो वी.एस. नायपॉल भी भारतीय मूल के अंग्रेजी लेखक ही ठहरते हैं, जो भारत और भारतीय संस्कृति को भर-भर मुँह गाली देते रहे। शायद इसलिए भी उन्हें नोबेल पुरस्कार मिल गया। कुछ भी कहें, देश और दुनिया में अंग्रेजी का रुतबा पहले से भी कहीं ज्यादा हो गया है, पर हिंदी का रुतबा भी कुछ बढ़ा है। पंकज मिश्रा, विक्रम सेठ, अरविंद अडिगा, अमिताव घोष, ताबिश खैर और अमिष त्रिपाठी जैसे अंग्रेजी लेखकों की किताबों के संस्करण जितने बड़े पैमाने पर होते हैं, मलयाळम्, बाङ्ला और मराठी जैसी भाषाओं को छोड़ दें तो हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं के लेखक उसकी कल्पना तक नहीं कर सकते। पल्प साहित्य की बात और है।

कुछ बरस पहले पंकज मिश्रा को अमेरिका के येल विश्वविद्यालय से विंधम-कैंपबेल पुरस्कार मिला, जिसमें उन्हें डेढ़ लाख डॉलर मिले (अब के लगभग सवा करोड़ रुपये), लेकिन हैं तो वे भी अंग्रेजी लेखक ही, पर हैं भारतीय, इसी मिट्टी की उपज, हमें यह तो ध्यान में रखना ही है। उत्तर प्रदेश के झाँसी में सन् 1969 में जन्मे पंकज की प्रारंभिक शिक्षा- दीक्षा लखनऊ के सैनिक स्कूल में हुई, जहाँ अपने बेहतर अंग्रेजी ज्ञान के चलते सहपाठियों के बीच वे कुछ अलग किस्म के छात्र नजर आने लगे थे।

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