अजादी से पहले की व्यवस्था ने आर्थिक रूप से हमें जितना विपन्न किया, मुल्क से आ आत्मीयता और सांस्कृतिक लगाव से दूर होकर हम नैतिक रूप से उतने ही विपन्न भी हो गए थे, इसलिए संघर्ष अब दोहरा है। मुल्क से आत्मीयता और सांस्कृतिक लगाव की हमें कुछ ज्यादा ही जरूरत है। आदिकाल से ही मनुष्य सहज जीवन जीने की लालसा में निरंतर संघर्षरत है, लेकिन कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में ऐसी स्थितियाँ बनती ही रहती हैं, जो मनुष्य को सहज होकर जीने नहीं देतीं। कहीं आर्थिक तो कहीं राजनीतिक और सामाजिक स्थितियाँ मनुष्य को असहज करती रहती हैं। जीवन को असहज बनाने वाली स्थितियों का विरोध करते हुए पाठक को हस्तक्षेप के लिए प्रेरित करना साहित्य का प्रमुख उद्देश्य होता है। स्थितियाँ अगर व्यक्तिगत हों तो व्यक्तिगत रूप से और वे अगर सामाजिक हों तो सामूहिक रूप से हस्तक्षेप की प्रवृत्ति का विकास करना साहित्य का दायित्व होता है। हस्तक्षेप से हमारा तात्पर्य लाठी-बंदूक उठा लेने से नहीं है, आदमी की सहज जिजीविषा और संघर्षधर्मिता को धार देने से है। पलायनवादी प्रवृत्तियों से उबरने में प्रेरक भूमिका निभाने में ही साहित्य की सार्थकता है। न सिर्फ साहित्य में, बल्कि जीवन में भी हर पीढ़ी को सहजता काम्य रही है। व्यष्टि से लेकर समष्टि तक सहज स्थिति कायम करने में अगर साहित्य कोई भूमिका निभा सकता है तो साहित्य की सही भूमिका यही है। चाहे कविता हो, कहानी, उपन्यास, नाटक या सृजन की कोई भी विधा, उसे यही भूमिका निभानी होती है।
आज की कहानी सिर्फ कहानी नहीं है, वह विचारों से लैस भी है। विचार, जो किसी दर्शन से आक्रांत होने की बजाय दैनंदिन जीवनानुभवों ने निकलते हैं। जीवन, जिसमें संघर्ष है, संघर्ष जो दोहरा है- अंतः और बाह्य, जो जिंदा रहने के लिए है और सुखी जीवन जीने की कामना से भी। जीवन, खासकर मनुष्य के जीवन से कहानी का सीधा सरोकार है। कहानीकार को जीवन स्थितियों का विश्लेषण करने की समझ अगर है, जीवन को असहज बनाने वाले कारकों की जानकारी है तो फिर उसे किसी वाद के चश्मे की जरूरत नहीं होती। समकालीन कथा परिदृश्य में बाह्य संघर्ष के चित्रण की प्रमुखता देखकर ऐसा लगता है कि जैसे कथा साहित्य को मनुष्य के अंतर्लोक से कुछ लेना-देना ही नहीं है। कथा का यह रूप संतुलित नहीं, एकांगी और अधूरा है। मनुष्य के अंतर्बाह्य संघर्ष के संतुलित चित्रण वाली कथाएँ ही सही मानी जा सकती हैं, तभी वे अपना काम सही तरह से कर सकती हैं, लेकिन लेखक के काम के बारे में नोबेल विजेता कथाकार बोशेविस सिंगर कहते हैं कि किसी लेखक की भूमिका स्थूल रूप से आत्मा के मनोरंजन कर्ता की ही हो सकती है, न कि सामाजिक-राजनीतिक आदर्शों के उपदेशक की। किसी भी सच्ची कला की तरह लेखक का कर्तव्य पाठक को आनंदित करना है, न कि ऊबभरी जम्हाइयाँ लेने को मजबूर करना।
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