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समकालीन भारतीय साहित्य- साहित्य अकादेमी की द्वैमासिक पत्रिका वर्ष : 42, अंक : 218, नवंबर-दिसंबर, 2021: Contemporary Indian Literature- Bimonthly Magazine of Sahitya Akademi Year 42, Issue 218 (November-December 2021)

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Item Code: HBA256
Author: Edited By Balram
Publisher: SAHITYA AKADEMI
Language: Hindi
Edition: 2021
ISBN: 9770970836008
Pages: 220
Cover: PAPERBACK
Other Details 9x6 inch
Weight 374 gm
Book Description
संपादकीय

उपन्यास और लोक जीवन

वह चाहे तोल्स्तॉय का उपन्यास 'युद्ध और शांति' हो, फेदेयेव का 'बाबर', गिरिराज किशोर का' पहला गिरमिटिया' और कामतानाथ का 'कालकथा', गिरीश कर्नाड का नाटक 'तुगलक', जगदीशचंद्र माथुर का 'कोणार्क' और मोहन राकेश का' आषाढ़ का एक दिन' या फिर हो प्रेमचंद की कहानी 'शतरंज के खिलाड़ी', इतिहास केंद्रित हैं, लेकिन वे इतिहास नहीं हैं। इतिहासकारों द्वारा खोजे गए तथ्यों में मानवीय सत्य और संवेदना के ईंट-गारे का मिश्रण कर भाषाई स्थापत्य से रचनाकारों ने उन्हें न सिर्फ वर्तमान के लिए, बल्कि भविष्य के लिए भी जीवंत कर दिया है, जहाँ कला और प्रतिबद्धता पर बहस बेमानी है, क्योंकि वे एक दूसरे के विरोधी नहीं, पूरक हैं और उनकी धुरी लोक होता है, जो आलोचकों से न्याय विवेक की अपेक्षा करता है, पर आलोचक गण अक्सर उसकी अपेक्षा पर खरे नहीं उतर पाते। शिवप्रसाद सिंह के उपन्यास 'नीला चाँद' को ही ले लें, जिस पर पहले तो कोई कुछ बोला ही नहीं, और जब किसी ने मुँह खोला भी तो उसे तीसरे दर्जे का उपन्यास कह दिया, जबकि एक वार्षिक सर्वे में उसे प्रथम स्थान पर रखा गया था। 'नीला चाँद' ने कुछ समय बाद 'साहित्य अकादेमी पुरस्कार' ही नहीं, 'व्यास सम्मान' तक हासिल किया। उस समय 'नीला चाँद' का प्रतिष्ठित होना महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि वह समय कला और प्रतिबद्धता, दोनों के लिए आत्मालोचना का समय था और यही वह समय भी था, जिसमें हाहाकारी लेखकों के हवामहल के कंगूरे ढहते देखे गए और उसी समय में देखा जा सका जीवन और साहित्य का परम सत्य कि आज और अभी पर टिकी दृष्टि में दोष है, उसे भूत, भविष्य और वर्तमान, सब पर केंद्रित होना चाहिए। कमलेश्वर के उपन्यास 'कितने पाकिस्तान' और नासिरा शर्मा के 'पारिजात' को साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिलने से भी इसकी पुष्टि हुई। इस बात को प्रेमचंद और प्रसाद के सृजन भी पुष्ट करते हैं, लेकिन न जाने किस अति के मुहाने पर खड़े होकर एक समय प्रसाद की तरफ पीठ और प्रेमचंद की तरफ मुँह कर संतुलित दृष्टि को भुला ही दिया गया था। अर्से तक प्रेमचंद को देखा और उन्हें ही प्रासंगिक माना जाता रहा। प्रसाद की दृष्टि को गलत और प्रेमचंद की दृष्टि को सही मानने की प्रतिबद्धता वस्तुतः सही नहीं थी।

कला और प्रतिबद्धता ने हिंदी साहित्य को जहाँ अनेक वरदान तो कुछ अभिशाप भी दिए हैं, जिनके कारण कला और प्रतिबद्धता में नहीं, उनकी गलत व्याख्या में छिपे हैं। कला और प्रतिवद्धता के बिना न तो हम इतिहास के आईने में वर्तमान की व्याख्या कर सकते हैं, न ही बृहत्तर मानवीय यथार्थ से खुद को जोड़ सकते हैं। इनके बिना हम सार्थक सृजन भी नहीं कर सकते। शिवप्रसाद सिंह ने इतिहास में प्रवेश कर उसके जरिये समकालीन भारत के कुछ भयावह दृश्य दिखाए कि किस तरह केंद्रीय सत्ता के कमजोर होने से राष्ट्र बिखरने लगता है। 'तमस' और 'हानूश' के जरिए जैसे भीष्म साहनी अतीत की कंदराओं में घुसे, वैसे ही हजार साल पहले के भारत के इतिहास की अनेक बंद अर्गलाएँ 'नीला चाँद' के जरिये शिवप्रसाद सिंह ने खोली।

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